अरे! बिन बाप का बच्चा है, सिर्फ अकेली मां है, तभी इतना शैतान है।
घर पर कोई आदमी नहीं है न , तभी बच्चे इतने बिगड़े हुए हैं।
कुछ ऐसे ही वाक्यों का ठप्पा लगाया जाता है हमारे पितृसत्तात्मक समाज में उन बच्चों के ऊपर जिनका पालन-पोषण उनकी मां ने अकेले किया है। सदियों से ही यह पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं को अबला, असहाय समझता आया है। यह समाज मां दुर्गा को तो देवी और जननी मानता है लेकिन असल में जन्म देने वाली मां को कमजोर समझता है, इतना कमजोर कि एक महिला इनकी नज़र में बच्चे जन सकती है, नौ महीने उसे अपने पेट में रख सकती है, बच्चा जनने का दर्द अकेले झेल सकती है लेकिन अकेली अपने बच्चे की परवरिश नहीं कर सकती। इस पितृसत्तात्मक समाज ने हमेशा से ही महिलाओं को पुरुषों पर आश्रित ही देखना चाहा और यही कारण है कि लीक से हटकर अगर किसी महिला ने कोई काम किया तो वह इस समाज में बुरी औरत के ताज से नवाज़ी गई। परंपरागत सामाजिक व्यवस्था पितृसत्तात्मक है, जिसमें समाज से लेकर परिवार तक हर मामले में पुरूषों का नियंत्रण रहा है। यह व्यवस्था पुरूषों को महिलाओं से ज्यादा योग्य और श्रेष्ठ मानती है और उन्हें समाज में विशेष दर्जा और सुविधा प्रदान करती है।
लोगों को जब पता चलता है कि एक अकेली मां बच्चों को पाल रही है और घर में कोई मर्द नहीं है तो उनके चेहरे पर एक अलग भाव होता है। ऐसा भी कई बार हुआ है कि समाज उन्हें तंग करता है और वह यकीनन यही सोचता होगा कि यह तो अबला है, किस से शिकायत करेगी। यह समाज शोषण करने की ताक में बैठा रहेता है। 6 जुलाई 2015 को सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला दिया गया जिसमें कहा गया कि अविवाहित मां अपने बच्चे की अकेली अभिभावक बन सकती है। इसमें उसके पिता की रजामंदी लेने की आवश्यकता नहीं है। यह फैसला उन एकल महिलाओं के लिए मील का पत्थर था जो अपने बच्चों के गार्डियनशिप के लिए लंबे समय से लड़ाई लड़ रही थी।
दरअसल यह पितृसत्तात्मक समाज डरता है जिस दिन महिलाओं के चुनौती भरे जीवन को उसने स्वीकार कर लिया वह उनसे हार जाएगा।
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जब से महिलाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने लगी हैं, पुराने ढाचें चरमराने लगे हैं लेकिन अकेली स्त्री को स्वीकार करना अभी भी समाज में असंभव है। इस पितृसत्तात्मक समाज को यह गवारा नहीं होता कि कोई महिला बिना पुरुष की छाया के जिए और अपने सभी निर्णय स्वतंत्रता के साथ ले सके। महिलाएं चाहे कितने भी बड़े मुकाम छू लें, फिर भी उनका अकेले होना इस समाज को चुभता है। इस समाज में महिला की छवि आत्मनिर्भर की ना हो कर दूसरों पर निर्भर रहने की बनी हुई है। इस समाज ने महिलाओं को लेकर एक छवि गढ़ रखी है जिसमें एकल महिलाएं और सिंगल मदर फिट नहीं बैठती हैं। इस पितृसत्तात्मक समाज में अकेली मांओं का चरित्र हनन करना सबसे आसान होता है।
हाल ही में महिलाओं के मुद्दों पर मुखर होकर बोलने वाली गीता यथार्थ ट्रेंड में है। हुआ कुछ यूे गीता ने अपनी कमोड पर बैठी एक फोटो सोशल मीडिया पर अपलोड किया, उनका मकसद सिंगल मदर्स को बच्चे पालने में आने वाली चुनौतियों के बारे में अवगत कराना था। इस फोटो के अपलोड होते ही लोग दो हिस्सों में बंट गए, कुछ ने इसे स्वीकारा तो कुछ ने बहुत भद्दी टिप्पणियां कीं। इसी मुद्दे पर हमने बात की गीता से। फेमिनिज़म इन इंडिया ने गीता से पूछा कि सिंगल पेरेंटिंग की क्या विशेषताएं हैं? मुश्किलें तो काफी हैं मगर क्या उसके कुछ फायदे भी हैं? साथ ही उन्होंने समाज में किन मुश्किलों का सामना किया?”
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पूछे जाने पर गीता कहती हैं, सिंगल पेरेंटिंग की विशेषताओं की बात करें तो नॉर्मल पेरेंटिंग से अधिक ज्यादा ज़िम्मेदारियां बढ़ जाती हैं। बाकी बात करें फायदों की तो सबसे बड़ा फायदा है कि सिंगल पेरेंटिंग में बच्चे को ‘घरेलू हिंसा’ जैसी चीजें नहीं झेलनी पड़ती, उसे लैंगिक भेदभाव नहीं झेलने पड़ते, उसके मन में ‘पापा मम्मी को मारते हैं’ वाला डर नहीं बैठता है। हां, बेशक़ सिंगल पेरेंटिंग में संघर्ष है लेकिन वह कहते हैं न कि संघर्ष में ही जीवन है तो संघर्ष के साथ-साथ फायदों की लिस्ट भी कम नहीं है। मेरे हिसाब से सिंगल मदर के बच्चे ज्यादा समझदार होते हैं, जल्दी बड़े हो जाते हैं, ज़िम्मेदार हो जाते हैं। अब बात करूं समाज ने मेरे रास्ते में कितनी मुश्किलें खड़ी की तो जैसा कि हमारे समाज के लिए बिना पति की महिला कमजोर, असहाय है, अबला है और मेरी तरह अगर पति को छोड़ देती है तो समाज की जुबां और दिमाग में एक ही सवाल कि कहीं बाहर अफ़ेयर तो नहीं चल रहा? कहीं ये बच्चा बॉयफ्रेंड का तो नहीं है? इन्हीं सब सवालों को झेलना पड़ा मुझे भी लेकिन मैंने हार नहीं मानी।
फेमिनिज़म इन इंडिया ने यह भी पूछा कि भारत में सिंगल मदर को देखते ही लोग तरह तरह के कयास लगाने लगते हैं। क्या उन्हें भी भारतीय समाज से ऐसा ही रिस्पांस मिला? गीती बताती हैं, “रेस्पॉन्स की बात करूं तो जो लोग मुझे नहीं जानते उनसे तो मुझे सकारात्मक और नकारात्मक कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। लेकिन जो मुझे जानते हैं चाहे वे मेरे दोस्त हो, ऑफिस का स्टाफ़ हो, चाहे सोशल मीडिया पर बहुत समय से जुड़े हुए लोग हो, उनसे हमेशा मुझे सपोर्ट ही मिला है। मेरे परिवार का मुझे हमेशा साथ ही मिला है, सोशल मीडिया पर मेरे लेखों पर, फ़ोटो पर कमेंट को लेकर मेरे परिवार ने कभी मुझसे कोई सवाल नहीं किया, हमेशा मेरा साथ दिया। बाकी बात करूं इस पितृसत्तात्मक की तो इस समाज ने मुझे तानों की सौगात दी है, जो कि इसका हमेशा का रवैया है। लोगों ने मुझ पर तमाम सवालात उठाए, तोहमतें लगाई और तंज कसे जैसे कि पति से नहीं बनी होगी तभी तलाक ले लिया,कहीं अय्याशी के लिए तो नहीं पति को छोड़ दिया? इन सबके बावजूद मैंने हार नहीं मानी। मैं कमज़ोर नहीं पड़ी। मैंने कदम पीछे नहीं खीचें शायद यही मेरी सबसे बड़ी ताकत है।
यह पितृसत्तात्मक समाज इतनी कुंठित मानसिकता से भरा हुआ है कि महिलाएं अपनी तकलीफ़ें, चुनौतियों के बारे में खुलकर बात नहीं कर सकती। इस समाज ने अपने हिसाब से अच्छी और बुरी महिलाओं का दर्जा रखा है। कोई महिला पीरियड्स के बारे में खुल कर बात करती है तो वह बुरी है, बहुत तेज़ है। महिलाएं अपने यौन और प्रजनन स्वास्थ्य के मुद्दों पर खुल बात करें तो वह बुरी हैं। दरअसल यह पितृसत्तात्मक समाज डरता है जिस दिन महिलाओं के चुनौती भरे जीवन को उसने स्वीकार कर लिया वह उनसे हार जाएगा। यह समाज जहां शादी में हो रहे बलात्कार को स्वीकार नहीं करता, जो शादीशुदा जीवन में हो रही घरेलू हिंसा को सहना हर औरत का धर्म समझता है, यही समाज किसी महिला को खुले में बच्चे को दूध पिलाने की बात पर आंखे तरेरता है। यह समाज बच्चों को पालने की जिम्मेदारी को पूरी तरह से मां का धर्म समझता है। यह तब तक नहीं सुधर सकता जब तक गीता जैसी कई और महिलाएं इन मुद्दों पर मुखर होकर नहीं बोलेंगी। अपनी चुनौतियों, संघर्ष को लेकर जब तक महिलाएं खुल कर बोलना नहीं शुरू करेंगी तब तक इस पितृसत्तात्मक समाज की व्यवस्था नहीं सुधरने वाली।
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