समाजराजनीति बात पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ‘दीदी’ उर्फ़ ममता बनर्जी की

बात पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ‘दीदी’ उर्फ़ ममता बनर्जी की

ममता बनर्जी पर यकीन करने वालों का एक बड़ा तबका है, जो आमतौर पर उनकी व्यक्तिगत खूबियों का बड़े यकीन से बखान करता है।

जहां एक तरफ़ नारी के अंदर सहनशीलता, धैर्य, दया जैसी भावनाओं के चलते इस पितृसत्तात्मक समाज ने उन्हें कमजोर और अबला समझने की भूल की। वहीं अपने भीतर दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ अदम्य साहस का परिचय देती हुई बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी उर्फ़ ‘दीदी’ ने नारी के सबला होने का परिचय दिया है। जब-जब इस समाज ने बिना पुरूष के साथ के औरत को डरपोक, नासमझ, असहाय, लाचार और अबला समझा। उसी दौरान इस देश की महिलाओं ने अपनी बहादुरी और अदम्य साहस का परिचय दिया और इस पितृसत्तात्मक समाज को बताया कि नारी अबला नहीं बल्कि सबला है, वह कमजोर नहीं बल्कि फौलादी है, वह डरपोक नहीं निर्भीक है। समाज के बनाए हुए इन मापदंडों को गलत क़रार देने के लिए कोलकाता में ऐसी ही एक सशक्त नेता का जन्म हुआ। ममता बनर्जी उर्फ़ ‘दीदी।’ छात्र नेता के रूप में राजनीति में प्रवेश करने वाली ममता को कौन नहीं जानता? बंगाल की पहली महिला मुख्यमंत्री रही ममता का जन्म 5 जनवरी 1955 को कोलकाता के एक बंगाली ब्राह्मण परिवार में हुआ था।

ममता बनर्जी के पिता का देहांत बचपन में ही हो गया था। ऐसे में इन्हें दूध बेच कर अपने घर का पालन-पोषण करना पड़ा। सिर्फ 15 साल की उम्र में इन्होंने राजनीति के मैदान में प्रवेश किया और देवी कॉलेज में छात्र परिषद् यूनियन की स्थापना की जो कांग्रेस की स्टूडेंट विंग थी, जिसने वाम दलों की आल इंडिया डेमोक्रेटिक स्टूडेंट आर्गेनाईजेशन को हराया था। दक्षिण कोलकाता के जोगमाया देवी कॉलेज से ममता बनर्जी ने इतिहास में ऑनर्स की डिग्री हासिल की और बाद में कलकत्ता विश्वविद्यालय से उन्होंने इस्लामिक इतिहास में मास्टर डिग्री ली। साथ ही श्री शिक्षायतन कॉलेज से उन्होंने बीएड की डिग्री ली और कोलकाता के जोगेश चंद्र चौधरी लॉ कॉलेज से उन्होंने कानून की पढ़ाई भी की।

घायल ममता बनर्जी ने व्हील चेयर पर की रैली, तस्वीर साभार: ट्विटर

ममता का राजनीतिक सफ़र

ममता ने 21 साल की उम्र में 1976 में महिला कांग्रेस महासचिव पद से अपना राजनीतिक सफ़र शुरू किया और साल 1980 तक इस ओहदे पर बनी रहीं। इसके बाद साल 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव में पहली बार यह मैदान में उतरीं और इन्होंने माकपा के नेता सोमनाथ चटर्जी हराया। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री होने दौरान उनको युवा कांग्रेस का राष्ट्रीय महासचिव भी बनाया गया। 1989 के आम चुनावों में उन्हें सीपीएम की मालिनी भट्टाचार्या ने हरा दिया। हालांकि वह साल 1996, 1998, 1999, 2004 और 2009 तक लगातार कोलकाता साउथ की सीट पर जीत दर्ज करती रहीं। अक्टूबर 2001 में ममता ने अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में रेल मंत्री का पद संभाला लेकिन 17 महीने बाद वह इस्तीफ़ा देकर सरकार से अलग हो गईं। इसके बाद साल 2009 से लेकर 19 मई 2011 तक उन्होंने दोबारा रेल मंत्रालय का कार्यभार संभाला।

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एक लंबे संघर्ष के बाद जिस तरह उन्होंने बंगाल से वामपंथी सरकार को हटाया, इससे उनकी छवि भारत में एक मजबूत इरादों और कभी हार न मानने वाली महिला की बनी। ममता के राजनीतिक जीवन में एक अहम मोड़ तब आया जब उन्होंने 1998 में कांग्रेस पर माकपा के सामने हथियार डालने का आरोप लगाते हुए उन्होंने अपनी नई पार्टी तृणमूल कांग्रेस बना ली। 1999 में वह एनडीए गठबंधन से भी जुड़ गईं। लेकिन साल 2001 में वह एनडीए गठबंधन से अलग भी हो गई और उन्होंने कांग्रेस के साथ फिर हाथ मिलाया। साल 2011 के विधानसभा चुनावों में उन्होंने अकेले अपने बूते ही तृणमूल कांग्रेस को सत्ता के शिखर पर पहुंचाया। ममता बनर्जी केंद्र सरकार में कोयला, मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री, युवा मामलों और खेल के साथ ही महिला और बाल विकास की राज्य मंत्री भी रह चुकी है।

ममता का व्यक्तित्व सादगी से लैस सफेद सूती साड़ी और हवाई चप्पल में उन्हें अन्य नेताओं से अलग करता है फिर चाहे वह केंद्र में मंत्री रही हो या मुख्यमंत्री बनने के बाद लेकिन उनके पहनावे या रहन-सहन में कोई अंतर नहीं आया। मिसाल के तौर पर मुख्यमंत्री हमेशा नीली पट्टी धारी सफेद साड़ी और हवाई चप्पल में दिखती हैं।साल 2012 में प्रतिष्‍ठि‍त ‘टाइम’ मैगजीन ने उन्हे ‘विश्व के 100 प्रभावशाली’ लोगों की सूची में स्थान दिया था। ममता ने समाजसेवा के लिए कभी शादी ना करने का फैसला लिया। इस ज़िद, जुझारूपन और शोषितों के हक़ की लड़ाई के लिए मीडिया ने उनको अग्निकन्या का नाम दिया था। ममता बनर्जी ने एक राजनेता के अलावा खुद को एक कलाकार, लेखक और संगीतकार के रूप में भी पेश करने की कोशिश की है। पिछले साल उन्होंने सीएए विरोध वाली एक चित्रकारी की जिसे लोगों ने बहुत पसंद किया। नागरिकता संशोधन कानून के ख़िलाफ़ भी ममता बनर्जी काफ़ी मुखर रही।

सीएए विरोधी प्रदर्शन के दौरान पेटिंग करती ममता, तस्वीर साभार: Asianage

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पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव 2021

हाल में पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव का पहला चरण शुरू होने में बस कुछ ही दिन शेष है। लोग तृणमूल कांग्रेस की लीडर और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और भाजपा के बीच कड़ी टक्कर के कयास लग रहे हैं। हालांकि ममता बनर्जी पर यकीन करने वालों का एक बड़ा तबका है, जो आमतौर पर उनकी व्यक्तिगत खूबियों का बड़े यकीन से बखान करता है। ममता ने नंदीग्राम विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने का ऐलान किया है। पश्चिम बंगाल की राजनीति में नंदीग्राम और सिंगूर ने अहम भूमिका निभाई है। इन्हीं दोनों क्षेत्रों में उद्योगों के लिए वाम मोर्चा की सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलन में हुई 14 लोगों की मौत के विरोध के पर ही ममता को साल 2011 के विधानसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत से जीत हासिल हुई थी। उसके बाद 5 साल में अस्पताल, बेटियों और महिलाओं, किसानों, आदि के लिए कई कल्याणकारी सरकारी योजनाओं के बलबूते 2016 के चुनाव में उनकी पार्टी 211 सीट जीतकर सदन पहुंची और उन्हें राज्य की सबसे लोकप्रिय नेता बना दिया। साल 2016 में भाजपा ने 3 सीट जीत कर विधानसभा में प्रवेश पा लिया। तब से भाजपा ममता पर मुसलमानपरस्त होने का एजेंडा के तहत आरोप लगा कर घेरने की कोशिश करती रही है। 

साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भी भाजपा ने अपनी पूरी ताकत झोंककर लोकसभा की 42 में से 18 सीट जीतने की कामयाबी पाई। इस साल हो रहे विधानसभा चुनाव की लड़ाई ममता के राजनीतिक अस्तित्व बचाने की लड़ाई में बदल गई है। चुनाव के छह महीने पहले से ही भाजपा का धुआंधार प्रचार और अध्यक्ष सहित अनेक राज्यों के मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों समेत देश के प्रधानमंत्री से लेकर गृहमंत्री तक पश्चिम बंगाल में चुनावी रैली कर रहे हैं। भाजपा की यही चिरपरिचित शैली भी है, पश्चिम बंगाल में अमित शाह ने एक रैली के दौरान 200 सीट जीतने का दावा किया है। जब बात सियासत से जुड़े किसी व्यक्ति की हो तो हर छोटी सी छोटी बात मुद्दा बन जाती है और मीम की बौछार में वह बात, उसकी हकीकत, तफलीफ़ सब कहीं गुम हो जाते हैं। सीधी सी सामान्य सी बात को लोग सियासी मुद्दा बनाकर उछालने लग जाते हैं। ठीक ऐसा ही हुआ ममता बनर्जी उर्फ़ दीदी के साथ। उनके पैर की हड्डी का टूटी नहीं कि लोग उनकी हिम्मत तोड़ने में जुट गए। उनकी तकलीफ़ पर उनके स्वास्थ्य पर शायद ही किसी की नज़र हो वरना लोग तो इसे सियासी मुद्दा बनाने पर जुट गए। हर तरफ़ चर्चा हैं ‘दीदी’ के साथ हुई दुर्घटना की लेकिन दुर्भाग्य की बात ये है कि कुछ लोग उनके स्वास्थ्य की चिंता न करके इसे चुनावी मुद्दा बनाकर उछालने पर लगे हैं। चुनाव के नतीजे चाहे जो भी हो, लेकिन ‘दीदी’ हमेशा इसी तरह इस पुरुषप्रधान समाज के द्वारा बनाये गये मापदंडों को चुनौती देने वाली नेता बनी रहेंगी। सफेद नीली पट्टीदार साड़ी, पैरों में चप्पल पहने सादगी के साथ अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व का परिचय देती हुई एक योद्धा से विजेता तक का सफर तय करती हुई ‘दीदी’ हमेशा ही हमारे देश की महिलाओं के लिए एक मिसाल रही हैं। जितना सादा और सरल इनका जीवन है उतना ही प्रभावशाली इनका व्यक्तित्व है।

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तस्वीर साभार : DNA India

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