संस्कृतिसिनेमा डियर बॉलीवुड, महिला केंद्रित फिल्मों में नायकों की कोई ज़रूरत नहीं !

डियर बॉलीवुड, महिला केंद्रित फिल्मों में नायकों की कोई ज़रूरत नहीं !

बॉलीवुड को उस वृहद और संपन्न पृष्ठभूमि को अपनाने की ज़रूरत है जो हमारी विचारधारा को संकीर्ण और पितृसत्तात्मक न बनाए।

कहते हैं कि जो महाभारत में नहीं है वह पूरी भौगोलिक दुनिया में नहीं है। शायद इस बात को हमारा फिल्म उद्योग सदियों से मानता आया है और इसलिए बॉलीवुड और हमारी पौराणिक कथाएं हमेशा से जुड़ी रही हैं। किसी युग में ब्लैक एंड व्हाइट सिनेमा से शुरू हुआ बॉलीवुड आज तकनीकी तरक्की हासिल कर चुका है। रामायण और महाभारत जैसे कथाओं से मनोरंजन करती हमारी फिल्मी दुनिया का बुनियादी विषयों की ओर रुख करने के कारण हम चुनिंदा संवेदनशील सामाजिक और राजनीतिक विषयों को परदे पर देख रहे हैं। लेकिन हमेशा से पौराणिक कथाओं को मूल मानने वाला बॉलीवुड उस पितृसत्तात्मक सोच और ऐबों से मुक्त नहीं हो पाया जिनकी प्रेरणा यह कथाएं ही रही हैं।

पौराणिक कथाओं का सदैव भारतीय दर्शकों के साथ गहरा संबंध रहा है। लगभग हर क्षेत्र में रामायण और महाभारत का अपना संस्करण है। हमारे महाकाव्यों को देश की संस्कृति का अभिन्न अंग माना जाता है। इसलिए परिणामस्वरूप, भारतीय टीवी और सिनेमा ने पौराणिक कथाओं को और भी अधिक आत्मसात किया है। हीरो का हीरोइन को बचाने की कहानी हो, बुराई पर अच्छाई की जीत, भाई का अपनी बहन के लिए गुंडों से लड़ना हो या प्यार में विफल प्रेमी की कहानी। लगभग सभी किरदार और उनकी कहानियों का श्रोत हमारे पौराणिक ग्रंथ ही रहे हैं। बात करते हैं बॉलीवुड का सबसे प्रिय विषय बनकर उभर रहे मुद्दे- नारी सशक्तिकरण की। बॉलीवुड में महिलाओं के अधिकारों और सशक्तिकरण पर बनती फिल्में अचानक ज़ोर पकड़ रही है। महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले यौन शोषण, महिलाओं के आत्मनिर्भर बनने की कहानी, महिलाओं के लिए शौचालय, मंगल ग्रह पर रॉकेट भेजने वाली महिलाएं और पीरियड्स जैसे विषयों पर फिल्म बनना जहां अपने आप में एक सफल कदम है। वहीं, इन फिल्मों में नायक द्वारा कहानियों का कहलवाना घिसी-पिटी मानसिकता। जहां इन कहानियों में हम हीरो के बड़प्पन, पौरुष और पराक्रम देखते है तो वहीं महिलाओं का खुद को सुरक्षित रखने और अपने लिए आवाज़ उठा पाने की असमर्थता और असहायता।

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आम तौर पर, कोई भी यह विश्वास कर लेगा कि बॉलीवुड ने लैंगिक समानता के मुद्दे को आखिरकार स्वीकार कर लिया है। लेकिन सभी महिला-केंद्रित फिल्मों में पुरुषों का इर्द-गिर्द घूमना, महिलाओं को नजरंदाज करना उनकी आत्मनिर्भरता में बाधा है। बॉलीवुड में महिलाएं आज भी केवल वह पात्र होती हैं जिन्हें या तो बचाए जाने की जरूरत है या किसी पुरुष नेतृत्व की। इस पुरुष नेतृत्व और संरक्षकता की आड़ में वर्चस्व की कहानियों का मूल हम पौराणिक कथाओं में पा सकते हैं। महाभारत में युद्धिष्ठिर ने सब कुछ हारने के बाद द्रौपदी को दांव पर लगा दिया था। सभा में द्रौपदी का अपमान होना,  भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य और विदुर जैसे न्यायकर्ता, महान और दिग्गज लोगों का चुप रहना और आखिरकार श्री कृष्ण का उनको बचाना, बॉलीवुड की सिंघम या बाडीगार्ड जैसी फिल्मों की याद दिलाता है जहां अन्याय और अत्याचार को देखते हुए भी दूसरे किरदार हीरो के आगमन का इंतजार करते हैं।

बॉलीवुड को उस वृहद और संपन्न पृष्ठभूमि को अपनाने की ज़रूरत है जो हमारी विचारधारा को संकीर्ण और पितृसत्तात्मक न बनाए। आज महिलाओं को किसी सरफिरे आशिक की ज़रूरत नहीं, न ही उसे किसी ढाल या आवाज की ज़रूरत है।

आदि कवि वाल्मीकि ने रामायण में महर्षि गौतम का प्रमुखता से उल्लेख किया है। भगवान इन्द्र के वेष बदलकर उनकी गैरमौजूदगी में आश्रम में आने और उनकी पत्नी से संबंध बनाने के कारण क्रोध में उनका अपनी पत्नी अहिल्या को श्राप देने की कहानी काफी प्रचलित है। उल्लेखनीय बात यह है कि यहां भगवान इन्द्र पर सवाल नहीं उठते बल्कि अहिल्या को अभिशाप दिया जाता है। ऐसी प्रवृत्ति हमें बॉलीवुड फिल्मों में भी मिलती हैं जहां महिलाओं के कपड़े, उनका अकेला होना, रात को बाहर निकालना जैसे कारक उसके शोषण का कारण बन जाते हैं। पितृसत्तात्मक नियमों पर चलता हमारे समाज का महिलाओं को दरकिनार करना, सवाल करना, दोषी ठहरना, खुद के उसूलों और नीतियों पर उंगली उठाने से अधिक सुविधाजनक है।

फिल्म पिंक में तीन लड़कियों के चरित्र पर उंगली उठाए जाते हैं क्योंकि वे अकेली रहती थीं, नौकरी करती थीं और लड़कों से दोस्ती रखती थीं। उनकी आवाज़ तबतक सुनी नहीं जाती जबतक कि उनके वकील का किरदार निभा रहे अमिताभ बच्चन उनके रक्षक बनकर उनकी सिफारिश नहीं करते। सिंबा में रणवीर सिंह का ज़मीर तब जागता है जब उनके किसी पहचान की महिला का बलात्कार होता है। हर फिल्म में कहानी के साथ-साथ एक नायक की जरूरत और उसकी खोज की आदिकाल से ही हमारी प्रवृत्ति रही है या चाहे वह बाहुबली हो, हम अपना नायक खोजने पर आमादा रहते है। यह प्रवृत्ति चक दे इंडिया जैसे फिल्मों पर लागू होती है जहां हम नायक का स्थानीय संस्करण खोज लेते हैं जो महिला खिलाड़ियों का उद्धार कर सके।

बॉलीवुड ने न सिर्फ इस प्रवृत्ति को पौराणिक कथाओं से ग्रहण किया है बल्कि प्रेम के लिए राजनीति, एक तरफा प्रेम या उससे जन्मी ईर्ष्या को प्यार के नाम पर बढ़ावा देने की मूल भी कहीं न कहीं हमारे पौराणिक कथाओं से ली जाती है। शादी से पहले गर्भवती हो तो लोग क्या कहेंगे, लड़कियों का सुंदरता के लिए प्रसिद्ध होना, पुरुष मतलब पराक्रम, पति को परमेश्वर मानना आदि मिथकों की व्यावहारिकता संभवतः पौराणिक कथाओं में ही मिलती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार कुन्ती का विवाह से पूर्व, (सूर्य के अंश से) उनके गर्भ से कर्ण का जन्म हुआ था। परन्तु लोक लाज के भय से कुन्ती ने कर्ण को एक बक्से में बन्द करके गंगा नदी में बहा दिया था। ठीक वैसी ही कहानी प्रकाश झा के निर्देशित फिल्म राजनीति में नजर आई। जहां अजय देवगन को (जो सूरज का किरदार निभाते हैं) उनकी बिन-ब्याही मां लोक लाज के डर से नदी में बहा देती है। पति को भगवान मानना, उसके दिखाए राह पर चलना, उसकी आज्ञा मानना जैसे दकियानूसी सोच की वकालत अकसर हमारी पौराणिक कथाएं करती नजर आती हैं। आधुनिकीकरण के चक्कर में करवा चौथ जैसे पितृसत्तात्मक रिवाजों की चमक-धमक दिखाना भी बॉलीवुड की देन है।

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कई पौराणिक कथाओं के आधार पर रामायण और महाभारत के पात्र अहल्या, तारा, मंदोदरी, द्रौपदी और कुंती को पंच-कन्या कहा जाता है। इन्हें आदर्श महिला और पत्नी के रूप में सम्मानित भी किया जाता है। ये अपनी सुंदरता, समर्पण, आत्म बलिदान, निष्ठा और पवित्रता के लिए जानी जाती है। जबकि पुरुष पात्रों की बात वीरता और पराक्रम के लिए होती है। दुर्भाग्यवश पितृसत्ता का आवरण पहना समाज पौराणिक कथाओं के महिलाओं के उन तथ्यों पर रोशनी नहीं डालता जिससे सामाजिक ढांचे या मानदंडों पर आघात हो। उदाहरण के तौर पर, सूर्पनखा को सीता के अपहरण एवं राम और रावण के बीच युद्ध के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। लेकिन उनकी मर्यादा पुरुषोत्तम राम के प्रति खुले आम और स्पष्ट रूप से प्रेम को जाहिर करने की हिम्मत की बात को अनदेखी की जाती है।

निश्चित ही भारतीय संस्कृति पर पौराणिक कथाओं का गहरा प्रभाव है। लेकिन हिन्दी फिल्म जगत को उस वृहद और सम्पन्न पृष्ठभूमि को अपनाने की आवश्यकता है जो हमारे विचारधारा को संकीर्ण और पितृसत्तात्मक न बनाए। समलैंगिक रिश्तों या किन्नर समुदाय पर बनी फिल्में आज भी उस संकीर्ण सोच के साथ बनाई जाती है जिसके हम शिकार हैं। आज महिलाओं को किसी सरफिरे आशिक की आवश्यकता नहीं। न ही उसे किसी ढाल या आवाज की जरूरत है। समय के अनुसार विषयों में परिपक्वता और बदलाव होनी चाहिए। प्यार में विफलता, तकरार और फिर प्यार की कहानी का उन्मूलन हो जाना ही कल्याणकारी है। ऐसी फिल्में जिनका मूल मंत्र किसी पुरुष का महिला के गरिमा को बचाना या उनकी कहानी सुनाना हो, समाज के विकास के लिए खतरनाक साबित हो सकते हैं। आने वाले दिनों में कई निर्देशक द्वारा दोबारा महाभारत और रामायण के परिप्रेक्ष्य में फिल्मों की घोषणा करना और तत्कालीन महत्वपूर्ण सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों को अनदेखा करना, अहितकारी और समय के चक्र में वापस जाना हो सकता है।

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तस्वीर : फेमिनिज़म इन इंडिया

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