“आ कर रण में ललकारी थी, वह झाॅंसी की झलकारी थी।
गोरों से लड़ना सिखा गई, रानी बन जोहर दिखा गई।
है इतिहास में झलक रही, वह भारत की सन्नारी थी।“
कवि मैथलीशरण गुप्त की इन पंक्तियों में आधी ही सच्चाई है और आधा झूठ है। वाकई में झलकारी भारत की वह नारी थी जिसने रणभूमी में अंग्रेज़ों को ललकारा था लेकिन वह इतिहास में झलक रही है ऐसा हमें नजर नहीं आता। इतिहास में झांसी के साथ रानी लक्ष्मीबाई के नाम की गूंज सुनाई देती है। ‘खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी’, यह पंक्तियां बच्चे-बच्चे की जुबां पर है। ‘‘मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी’’ कहनेवाली रानी लक्ष्मीबाई, जो युद्ध के दौरान अपने नन्हें दत्तक बच्चे को पीठ पर बांधकर झांसी की सुरक्षा की बागडोर झलकारी के हाथों सौंपकर खुद की सुरक्षा के लिए रणभूमी से पलायन करती है। इस घटना को आज की भारतीय नारी इस प्रकार अभिव्यक्त करती है, ‘‘हम सभी झांसी की रानी को पढ़कर बड़े हुए हैं। आज भी चौक पर उनका पुतला यह दर्शाता है कि कैसे वह अपने बच्चे को पीठ पर बांधकर युद्ध लड़ने निकली थी। विडंबना यह है कि इतिहास इसे साहसिक कदम बताता है। कुछ महिलाएं इसे रानी लक्ष्मीबाई की मजबूरी बताते हैं, लेकिन एक बात में वे चूक जाती हैं। वे यह जानती ही नहीं कि मजबूरी बच्चे को पीठपर बांधकर लड़ने की नहीं बल्कि जान बचाकर भागने की भी थी। अलग बात है कि भागते हुए भी उन्हें अंग्रेज सैनिकों का सामना करना पड़ा और अंत में ग्वालियर में जनरल ह्यूरोज से लड़ते हुए रानी लक्ष्मीबाई शहीद हुई। बहरहाल जातिवादी इतिहासकारों ने झांसी में रानी लक्ष्मीबाई का वेश धारण कर लड़नेवाली झलकारी की बहादुरी का महत्वपूर्ण प्रसंग निष्पक्ष होकर नहीं बताया, इसलिए आज भारत की आम नारी इस वास्तविक सच्चाई को न जानकर दुर्बलता को साहस का नाम दे रही है।
इस सच्चाई को कुछ आधुनिक कवियों और लेखकों ने विशेष रूप से दलित, पिछड़े समाज के लेखकों, पत्रकारों तथा नाट्यकारों ने अपनी रचनाओं में झलकारी के महान साहसिक नेतृत्व के साथ-साथ इतिहास के अनेक महत्वपूर्ण लेकिन वास्तविक तथ्यों को फिर से उजागर करने का प्रयास किया है, वरना आज यह नाम और इससे जुड़े वास्तविक, सामाजिक, राजनीतिक तथ्यों का किसी को ज्ञान नहीं होता। इन रचनाकारों में प्रमुख नाम है, श्री. प्रसाद, चोखेलाल वर्मा, मोहनदास नैमिशराय, भवानी शंकर विशारद तथा मैथलीशरण गुप्त आदि। जनकवि बिहारीलाल हरित अपनी कविता ‘वीरांगना झलकारी’ में इस प्रकार झलकारी की वीरता का वर्णन करते है-
“लक्ष्मीबाई का रूप धार झलकारी खड़ग संवार चली।
वीरांगना निर्भय लश्कर में, शस्त्र अस्त्र तन धार चली।
वहीं, मोहनदास नैमिशराय ख्यातनाम दलित साहित्यकार और ‘बयान’ के संपादक झलकारी बाई के जीवन पर संशोधन कर पुस्तक लिखते हैं, जिसमें वह कहते हैं कि झलकारी के स्वतंत्रता संग्राम में दिए योगदान को बहुत कम लोग जानते हैं। वह इस बात का कारण बड़े दुखी होकर बताते हैं, ‘‘जाति विशेष के चश्माधारी इतिहासकारों, साहित्यकारों और पत्रकारों में से किसी ने भी दलित समाज की इस वीरांगना झलकारी बाई की खबर नहीं ली थी।’’ झलकारी जिसके सिर पर कहीं की रानी होने का ताज नहीं था पर हिम्मत किसी रानी से कम भी नहीं थी। वह लक्ष्मीबाई का वेश धारण कर शत्रु सेना से डटकर मुकाबला करती है। इस प्रसंग की वास्तविकता को मोहनदास नैमिशराय इस प्रकार वर्णित करते हैं, “10 मई 1857 को मेरठ छावनी में भारतीय सैनिकों ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जो विद्रोह की शुरुआत की थी उसकी चिंगारी झांसी में भी पहुॅंची। ऐसे समय पर पूरन कोरी और भाउ बख्शी ने झांसी में विद्रोह का संचालन किया था। इस दौरान महिला विंग की कमांडर झलकारी बाई, रानी लक्ष्मीबाई के बारे में चिंतित थी कि कहीं रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों के हाथ न पड़ जाएं और ब्रिटीश सेना झांसी पर अपना पताका न फहराए। ऐसे में झलकारी बाई ने रानी को सुरक्षित स्थान पर चले जाने का सुझाव दिया था।”
और पढ़ें : कुयिली : दक्षिण भारत की दलित वीरांगना| #IndianWomenInHistory
युद्ध की ऐसी कठिन परिस्थिति में भी झलकारी बाई विचलित नहीं हुई। उनके अंदर धीरता और वीरता का अनोखा संगम दिखाई देता था। रानी लक्ष्मीबाई ने झलकारी की पीठ थपथपाकर कहा था, ‘‘झलकारी तुमने बड़ी मेहनत की है।’’ झलकारी के नेतृत्व में महिला सैनिकों के साथ अन्य सैनिक भी डटे हुए थे। अचानक झलकारी की नज़र दीवार के एक भाग से किले पर चढ़ रहे अंग्रेज़ सैनिकों पर पड़ी। उन्होंने अपनी बंदूक उठाई और दीवार के किनारे-किनारे आगे बढ़ी। उन्होंने अपने सिपाहियों से कहा, ‘‘यदि गोरा इस दीवार के भीतर आया तो हमारी ईज्जत मिट्टी में मिल जाएगी। आज बता देना है कि बुंदेल की जन्मी प्राण देकर भी झांसी की रक्षा करे है। दुश्मन की मुंडी फोड़ दो एक भी गोरा जिंदा वापस जाने न पावें।’’
झलकारी की जोशीली आवाज़ ने स्त्रियों में उत्तेजना भर दी थी। जिनके पास बंदूकें नहीं थी उन्होंने ईंट-पत्थरोें का उपयोग किया, वह युद्ध भयावह था। झलकारी बाई का चेहरा और व्यक्तित्व रानी लक्ष्मीबाई से मिलता था इसका लाभ उठाकर वह गोरों को उलझाएं रखना चाहती थी ताकि रानी लक्ष्मीबाई को किले से निकल कर सुरक्षित स्थान तक पहुंचने का अवसर मिले। झलकारी अपनी इस योजना पर अमल कर रही थी, तभी पूरन कोरी के शहीद होने की खबर झलकारी को मिली। वह उसके शव के पास पहुंची। उसने देखा, जमीन पर रक्त में डूबा उसके पति का शव पड़ा था। कुछ क्षणों तक वह भाव शून्य हो पति के मृत देह को देखती रही। उसने कहा, ‘‘झांसी के लिए मुझसे पहले तुमने प्राण दे दिए।’’ भाव तंद्रा भंग होते ही वह तेजी से उछलकर घोड़े पर सवार हो कुछ ही दूरी पर चल रहे युद्ध में अंग्रेज सेना पर घायल सिंहनी की भांति टूट पड़ी। उसे झांसी की सुरक्षा के साथ-साथ रानी के मान-सम्मान की भी चिंता थी। उनकी निगाह में झांसी और रानी में कोई फर्क न था।
अंग्रेज़ अधिकारियों को उलझाने के लिए वह सीधे जनरल के खेमे की ओर बढ़ी। तभी एक बंदूकधारी सैनिक झलकारी की ओर बंदूक तान कर बोला, ‘‘तुम कौन हो?’’ झलकारी ने बेखौफ होकर उत्तर दिया, ‘‘रानी’’ उसने फिर पूछा, ‘‘कौन रानी?’’ झलकारी उसी स्वर में बोली, ‘‘झांसी की रानी’, महारानी लक्ष्मीबाई।’’ दूसरा सैनिक खुशी से चिल्लाया, ‘‘रानी! झांसी की रानी!’’ तभी झलकारी ने आदेश देनेवाले अंदाज में कहा, ‘‘हम तुम्हारे जरनल को इधर इसी समय मिलना चाहते हैं।’’ खबर मिलते ही जनरल ह्यूरोज बाहर आया। तब तक सभी खेमे में रानी के पकड़े जाने की खबर फैल गई थी। झलकारी का रूबाब रानियों वाला ही था। चेहरे और आंखों में स्वाभीमान की चमक थी। निडरता उनकी रग-रग में प्रवाहीत हो रही थी। ह्यूरोज ने आश्चर्य से फिर पूुछा, ‘‘कौन हो तुम?’’ उसने उसी अभिमान से कहा, झांसी की रानी’’ और वह धोखे में आ गया। लेकिन दुल्हाजू ठाकूर ने झलकारी को देखकर पहचान लिया था बिना समय गंवाए उसने ह्यूरोज से कहा, ‘‘सरकार यह रानी नहीं है।’’ सुनकर ह्यूरोज को आश्चर्य हुआ। दुल्हाजू ने आगे बताया कि वह झलकारी ही थी जिसने उन्नाव फाटक पर अंग्रेज़ों के सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया था।
और पढ़ें : दलित, बहुजन और आदिवासी महिला स्वतंत्रता सेनानी जिन्हें भुला दिया गया
यह सुनकर ह्यूरोज को क्रोध आया उसने झलकारी को गोली मारने की धमकी दी। लेकिन झलकारी डरी नहीं, उसी गरज के साथ कहा, ‘‘मार दो गोली, मुझे मौत से डर नहीं लगता।’’ उसने पुछा, ‘‘तुम्हारे पास कोई हथियार है?’’ झलकारी ने बिना देरी किए अपनी चोली के भीतर से कटार निकाल कर दिखाई। वह बोला इससे तुम किसे मारोगी?’’ वह बोली, ‘‘जो भी हमार इज्जत पर हाथ डालेगा।’’ पास खड़ा स्टुअर्ट बोला यह पागल है। जनरल बोला, “No Stuart, if even one percent of the Indian girls become crazy like this, we all will have to run away from this country.” (नहीं स्टुअर्ट अगर हिन्दुस्तान की एक फीसद लड़कियां भी इसकी तरह दीवानी हो जाए, तो हम सबको यह देश छोड़ भागना पड़ेगा।)
ह्यूरोज को उसकी वीरता और निडरता ने बहुत प्रभावित किया था। जनरल ह्यूरोल के यह शब्द भारत की हर नारी के लिए किसी तमगे से कम नहीं हैं लेकिन भारत के इतिहासकारों ने इस बात का सही मूल्यांकन नहीं किया जिसके लिए भारत की हर औरत को इतिहासकारों पर सवाल उठाने चाहिए। वहीं, रानी लक्ष्मीबाई की हार का मूल्यांकन करते समय कारणों को उजागर करते हुए राजेश शर्मा लिखते है, “अधिकांश बुंदेली शासकों ने रानी से दूरियां बना ली थी और यह पूरी लड़ाई रानी ने अकेले ही लड़ी और वीरगति को प्राप्त हुई। दूसरा कारण वे दूल्हाजू की गद्दारी को बताते हैं। लेकिन कहीं भी वह झलकारी के साहस और वीरता का उल्लेख नहीं करते। यदि झलकारी नहीं होती तो रानी लक्ष्मीबाई का मनोबल अंग्रेज़ों से सामना करने का नहीं होता। इसी जोखिम भरे समय में झलकारी की रानी और झाॅंसी के प्रति निष्ठा दिखाना, रानी को युद्धस्थल से निकलवाना और स्वयं उसका वेश धरकर अंग्रेजों की सेना का बहादुरी से सामना करना जातिवादी लेखकों के लिए उल्लेखनीय महत्व नहीं रखता इसलिए वे रानी लक्ष्मीबाई के झांसी से सुरक्षित निकलने का श्रेय झलकारी बाई को देने की तस्दीक नहीं करते। त्रिभुवननाथ त्रिवेदी भी अपनी कविता में केवल लक्ष्मीबाई का गुणगान कर झलकारी की उपेक्षा करते यूं दिखाई देते हैं, ‘‘ह्यूरोज और डलहौजी भी जिसके नाम से कांपते थे, वह लक्ष्मीबाई, वह लक्ष्मीबाई थी।’’ तथ्य तो यह कहते हैं कि ग्वालियर पहुंचने के बाद जनरल ह्यूरोज भी लक्ष्मीबाई का पीछा करते हुए वहां पहुंच गया था। यहीं पर जनरल ह्यूरोज तथा डलहौजी से रानी लक्ष्मीबाई का सामना हुआ और वह अंग्रेजों द्वारा गोली मारे जाने के बाद वीरगती को प्राप्त हुईं। लेकिन जातिवादी लेखक, जनरल ह्यूरोज द्वारा झलकारी के लिए कहे गए स्तुती वाक्य को भी लक्ष्मीबाई के लिए कहा, ऐसा लिखकर ऐतिहासिक तथ्यों की चोरी कर झूठ भी बोलते हैं।
और पढ़ें : रज़िया सुल्तान : भारत की पहली महिला मुस्लिम शासिका
इस देश में वीरता और विद्वत्ता की मिसाल जाति और धर्म देखकर दी जाती है। यह बात झलकारी की जीवनगाथा में कदम-कदम पर झलकती है। दरअसल झलकारी बाई का सम्पूर्ण जीवन ही साहसपूर्ण घटनाओं से भरा था जिसकी जानकारी इतिहासकारों ने नहीं ली। दस साल की उम्र में जंगल में बाघ का अकेले सामना करते हुए कुल्हाड़ी के एक ही वार में बाघ को मार गिराना, भारतीय समाज की नजरों में कोई महत्व नहीं रखता था क्योंकि भारत में स्थापित ब्राह्मणवादी व्यवस्था में झलकारी तथाकथित निम्न कही जानेवाली कोरी समाज में पैदा हुई थीं। छोटी जाति की लड़की इतना बड़ा कारनामा करें उन्हें हजम ही नहीं होता। उनके हिसाब से तो वीरता और बहादुरी के सारे गुण सवर्ण समाज के क्षत्रियों के लिए सुरक्षित कर रखे हैं। वहीं दलितों और पिछड़ों के हिस्से में अवगुणों के साथ अयोग्यता और असभ्यता का ठप्पा लगा है। ऐसी मानसिकता में वे कैसे स्वीकार करते कि कोरी जाति की एक छोटी सी लड़की ने बाघ को पछाड़ दिया।
झलकारी बाई की निष्ठा-समर्पण और क्रांतिकारी कार्यों को भारत के इतिहास में स्थान नहीं मिला ‘क्योंकि वह कोरी थी।’
इसके बावजूद यह वाकया आग की तरह गांव में फैला था। जो भी सुनता दंग रह जाता। कई लोग झलकारी को देखने गांव आते थे। तो कुछ शास्त्रों के मारे इसे झलकारी के पूर्व जन्म से जोड़ने लगे थे। गांव के पंडित ने कहा, ’’यह पूर्व जन्म का फल है। अवश्य ही झलकारी क्षत्रिय परिवार में पैदा हुई होगी।’’ झलकारी के इस बहादुरी भरे कारनामे से भोजला गांव का दूर-दूर तक नाम हो गया था। एक गांव से किसी दूसरे गांव कोई मुसाफिर, सैनिक, डाकिया, हरकारा गुज़रता तो वह अन्य व्यक्ति से मिलने पर झलकारी के शौर्य की इस रोचक घटना का जिक्र किए बिना नहीं रहता था। लोग यह भी पूछना नहीं भूलते थे कि वह किसकी बेटी है, तब माता-पिता के नाम से पहले जवाब आता, ’’कोरिन की।’’ नाम से अधिक जाति ही पहचान थी। लेकिन झलकारी को जात-पात से क्या? वह अपने स्वभाव से मजबूर थी और आए दिन वह कोई ऐसा कारनामा करती कि लोग दांतों तले उंगली दबा लेते। ऐसा ही एक दिन गांव में आए में डकैतों का सामना कर झलकारी ने उन्हें भाग जाने पर मजबूर कर दिया था।
‘पूत के पांव पालने में’ यह कहावत झलकारी पर एकदम सही बैठती है। बचपन में खेल-खेल में अपने लिए मिट्टी का किला बनानेवाली झलकारी नहीं जानती थी कि एक दिन उसे झांसी के किले में जाने का अवसर मिलेगा। इतना ही नहीं रानी बनकर उस किले की हिफाज़त करने की उस पर जिम्मेदारी भी आएगी। रानी लक्ष्मीबाई, राजा गंगाधर राव की मृत्यु के बाद झांसी में होनेवाले राजनीतिक परिवर्तन को देखते हुए झांसी में अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए न केवल सेना को मजबूत बनाना चाहती थी बल्कि वह महिलाओं की भी सेना तैयार करना चाहती थी। उन्होंने झलकारी के बहादुरी के किस्से सुने थे इसलिए रानी ने झलकारी को अपने महल में निमंत्रित किया था। पहली भेंट में परिचय पूछने पर झलकारी ने रानी से कहा था, ‘‘सरकार! है तो कोरिन।’’ दलित चाहे जितना कर्तबगार हो उसका नाम पूछने का मतलब ही था जाति पूछना। दोबारा नाम पूछने पर ‘झलकारी दुलैया’ नाम बताया। आज भी इस संदर्भ में कोई विशेष अंतर नहीं आया है। अब दलित, दलित दिखाई नहीं देता तो सवर्णों को अब बड़ी परेशानी होती है कि कैसे इसकी जाति पूछे। फिर प्रश्न शुरू हो जाते हैं, ‘‘कौन हो, कहाॅं से हो?’’ आदि आदि।
और पढ़ें : रानी अहिल्याबाई होलकर : मध्यकालीन भारत की महान महिला शासिका
समाज की इस निम्न मानसिकता के विपरीत अनेक विरोधों के बावजूद रानी ने अपनी सेना में दलितों को जगह दी थी। समाज में सबसे अधिक इस बात से खलबली मची थी कि दलित समाज की एक महिला को महिला सेना का कमांडर बना दिया गया था। झलकारी ने रानी से पूरन को भी मिलवाया था। इससे दलितों में उत्साह जगा था।घर-गृहस्थी के कामों के अलावा वे तलवार चलाना, भाला फेंकना, बंदूक चलाना, घुड़सवारी करना आदि का प्रशिक्षण लेने लगे। यह वह कौम थी जिसे देश रक्षा के लिए कभी भी हथियार उठाने नहीं दिया गया था लेकिन अब दलित पुरूष ही नहीं स्त्रियां भी इसमें शरीक हुई थी। यदि भारत के हर सत्ताधिशों ने इन्हें हीन न मानकर देश रक्षा के लिए हथियार दिए होते तो यह देश कभी आज़ाद नहीं होता।
झांसी के इस गांव में बदलाव की बयार चल रही थी लेकिन समाज के रूढ़ीवादी लोगों को झलकारी का इस तरह सैनिकी काम करना फूटी आंख नहीं सुहाता था। वे आते-जाते उस पर फब्तियां कसते थे। वे किसी भी तरह झलकारी को सबक सिखाना चाहते थे और एक दिन उन्हें यह मौका मिल गया। गांव के उत्तर में ही एक अंजनीटोरिया नाम का टीला था। जहां झलकारी निशानेबाजी का अभ्यास करने जाती थी। पास ही जंगल भी था जहां से कई बार भेड़िये ने आकर भेड़-बकरियों को मारा था। झलकारी को लगता था उसका उस भेड़िये से सामना हो जाए और वह उसे मारकर गांववालों को उसके दुख से निजात दिलाए। एक दिन अंजनीटोरिया पर निशाना लगाने का अभ्यास करते समय अचानक उसने देखा भेड़िया सामने से निकलकर आगे आ रहा है। उसने तुरंत अपनी बंदूक संभाली और निशाना लगाया, गोली चली। धांय! झलकारी की बंदूक से गोली छूट चुकी थी पर गोली कहां लगी, किसे लगी, उसे पता न चला। वह संदेह से घिर गई, कहीं गोली भेड़िए को न लगकर किसी और को तो नहीं लगी? किसी भेड़-बकरी या गाय की बछिया को, वह घबराकर तेज कदमों से घर लौटी। इस घटना ने उसके जीवन में उथल-पुथल मचा दी। जिसका डर था वहीं हुआ, दरअसल गोली एक गाय की बछिया के पैर में लगी थी। दुर्भाग्य से बछिया एक ब्राम्हण की थीं। ब्राम्हण एक अछूत जाति की स्त्री का स्वाभिमान कैसे सह सकता था। आनन-फानन में साजिश रची गई। उसने बछिया को चुपके से दतिया रवाना कर दिया और कह दिया कि झलकारी ने बछिया को मार दिया। फिर क्या था! सारे लोग उसे तानें मारने लगें। उस पर गौ हत्या का आरोप लगाया गया, जो ब्राम्हणी व्यवस्था में सबसे बड़ा सामाजिक अपराध माना जाता है। यह ऐसी विचारधारा है जिसमें इन्सान से उपर जानवरों को माना जाता है।
इस मामले में पंचायत बुलाई गई। पंचायत में पूरन की किसी ने नहीं सुनी, उसने माफी मांगते हुए कहा, ‘‘रानी ने उसे महल बुलाया था, रानी ने देश की खातिर बंदूक और तलवार चलाने की बात कही थी, इसी अभ्यास के कारण वह टोरियों पर गई थी।’’ तभी दूसरे बुजुर्ग ने गोली की तरह अपना उपदेश दाग दिया, ‘‘लेकिन तुम्हें मालूम है कि बहुओं का घूंघट खोलकर गांव में फिरना, बंदूक चलाना हमारे जातीय धर्म के खिलाफ है।’’ सारा धर्म जैसे स्त्रियों के घूंघट पर ही टिका है, झुठे गवाह दिए गए। किसी ने कहा मुंह काला करों, किसी ने कहा बहिष्कृत करो, किसी ने गधे पर बिठाकर जुलूस निकालने की सलाह दी। कुछ नहीं बदला है, आज भी किसी दलित स्त्री के गरदन उपर उठाकर चलने पर यह धर्म के ठेकेदार उनके साथ यही सलूक करते हैं।
और पढ़ें : बेगम हज़रत महल : 1857 की वह योद्धा जिन्हें भूला दिया गया| #IndianWomenInHistory
बचाव का कोई रास्ता न देख पूरन ने रानी को अपनी व्यथा बताई। उन्हें विश्वास दिलाया कि बछिया मरी नहीं है। रानी ने तत्काल ब्राह्मण को बुलावा भेजा। कठोरता से पुछताछ करने पर ब्राह्मण ने सच उगल दिया कि बछिया मरी नहीं थी उसे दतिया भेजा गया है। रानी लक्ष्मीबाई समझ रही थी कि यह एक दलित महिला के खिलाफ साजिश थी। लेकिन धर्मशास्त्र के अनुसार ब्राह्मण के लिए कोई दंड का प्रावधान नहीं हैं ब्राह्मण ने रानी से केवल माफी मांगी। रानी भी स्वयं ब्राह्मण को दंड देकर आफत मोल लेना नहीं चाहती थी। इससे केवल इतना लाभ हुआ कि सच सबके सामने आ गया। इसके बाद भी एक दलित परिवार को उत्पीड़ित किए बिना इन धर्म के ठेकेदारों को चैन कैसे आता। उन्होंने रानी पर दबाब बनाया और पूरन के परिवार को सजा देने की बात हुई। उसे गाय के बछड़े को जख्मी करने के अपराध में प्रायश्चित का आदेश दिया गया। उन्हें ब्राह्मणों और अन्य जातियों के सरपंच को भोज देना पड़ा। भोजन ब्राह्मण ही बनाता था। यह दंड उनके लिए बहुत अधिक महंगा था। झलकारी के इसमें सारे गहने बिक गए।
दलितों के बढ़ते हौसलों को ऐसे ही तोड़ा जाता रहा है। झलकारी और पूरन इस घटना से पूरी तरह निराशा के गर्त में चले गए थे। यदि वह कोरिन नहीं होती तो क्या उसके साथ ऐसा होता? झलकारी के कोरिन होने के कारण लोग उसे उठते नहीं देख सकते थे लेकिन रानी को झांसी की सुरक्षा के लिए झलकारी जैसे बहादूर साथी की जरूरत थी। एक विधवा स्त्री होने के कारण उसे भी कई अंदरूनी मामलों में विरोध झेलना पड़ रहा था। रानी ने एक दिन उसे बुलावा भेजा। उसे दोबारा उत्साहित किया। रानी की बातों से झलकारी में उत्साह का संचार हुआ था, उसके स्वर में तेजी आई, उसने कहा, ‘‘जहां तुमारा पसीना गिरे वहां हम लहू बहा देंगे।’’ उसके साथ कोरी, काछी, चमार, बखोर, कडेरे, कुर्मी, खटीक, पासी आदि बहादूर जातियों की महिलाएं झांसी की रक्षा के लिए हथियार चलाने का प्रशिक्षण लेने लगी थी। नगर की कई वेश्याओं ने भी अपना व्यवसाय छोड़कर सैनिकी प्रशिक्षण लेना आरंभ कर दिया था।
जिस समय पूरी झांसी में विद्रोह की आग लगी थी। कोरियों की बस्ती में भी आग लगी थी। सभी अपने आप को बचाने की कोशिश कर रहे थे। औरतें चुड़ियां छोड़कर तलवार पकड़ रही थी। अब तक वे जौहर करती आई थी पर अब उन्होंने परंपराओं को तोड़ दिया था और यह सब झलकारी बाई की प्रेरणा से हुआ था। उनमें अब लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त होने की ललक और जुनून पैदा हो गया था। समाज में देशप्रेम का जज्बा नारियों में जगाने का काम झलकारी बाई ने समाज परंपराओं की बेड़ियों को तोड़ते हुए किया। युद्ध क्षेत्र में सैनिकों का नेतृत्व करने से भी अधिक कठिन कार्य था समाज में सभी जाति-धर्म की महिलाओं में देश के लिए लड़ने की प्रेरणा जगाना। साधारण गृहस्थ महिला से लेकर वेश्याओं तक परिवर्तन की अलख जगानेवाली झलकारी को आज की नारी ने समझना चाहिए। इस कार्य ने झलकारी को आधुनिक भारत की एक महानायिका बना दिया।
इस विवेचन से यह प्रमाणित होता है कि प्राचीन ही नहीं आधुनिक भारत के इतिहासकारों ने भी जाति-धर्म के आधार पर कई विशेष नायक-नायिकाओं के व्यक्तित्व की उपेक्षा की है। आधुनिक भारत के स्वतंत्रता संग्राम के समय में अनेक वीरों की कहानियों को सिर्फ इसलिए दरकिनार कर दिया गया क्योंकि वे तथाकथित निम्न जाति के थे। उन्हीं में विशेष शख्सियत तथा बहुमुखी प्रतिभा से युक्त नाम आता है, झांसी की वीरांगना झलकारी बाई का। झांसी, जितनी रानी लक्ष्मीबाई की थी, उतनी ही वह वहां के प्रजा की भी थी। झलकारी बाई की निष्ठा-समर्पण और क्रांतिकारी कार्यों को भारत के इतिहास में स्थान नहीं मिला ‘क्योंकि वह कोरी थी।’ लेकिन इस स्वतंत्रता संग्राम में झलकारी की वीरता साहस और गौरव गाथा को उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड में लोकगाथाओं तथा लोकगीतों के रूप में गाया जाने लगा था, जो वीर रस से ओतप्रोत थे। इसलिए आज यह कहा जाता है-
बुंदेली हरबोलो के मुंह से हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी की झलकारी थी।
यह लेख भिक्खुनी विजया मैत्रीय (Bhikkhuni Vijaya Maitriya) ने लिखा है जो एक लेखक और बौद्ध नन हैं जिनकी अब तक 6 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं