पढ़ें, उन आठ महिलाओं की बातें जो बता रही हैं पितृसत्ता का विरोध क्यों ज़रूरी है।
1- फूलन देवी (पूर्व सांसद)
‘जब मेरी शादी नहीं हुई थी तो मैं सोचती थी कि मेरे हाथों पर चूड़ियों की खनक आनंदमयी होगी। मैं पैरों में पायल और गले में चांदी का हार पहनने के लिए तैयार रहती थी। पर अब नहीं। जबसे मैंने यह सीखा कि ये सारी चीज़ें उस आदमी का प्रतिनिधित्व करती हैं जो इन्हे देता है। एक हार उस रस्सी से कम नहीं था जो एक बकरी को पेड़ से बांधती है और उसे आज़ादी से वंचित करती है।’
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2- रजनी तिलक (दलित अधिकार कार्यकर्ता)
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‘इन पचास सालों के बाद हमने (दलित महिलाएं ) खुद अपनी जगह बनाई है। वो हम हैं जिसने भारतीय समाज में कठिनाइयों और उत्पीड़न का सामना किया है। हम जानते हैं कि महिलाओं की बुनियादी ज़रूरतें और मांगें क्या हैं। मैं दलित नारीवादी आंदोलन के लिए बहुत आशावादी हूँ और आशा करती हूँ कि एक दिन ऐसा आएगा, जब इस देश की हर एक लड़की को अपनी क्षमता का एहसास होगा।’
3- करुणा नंदी (अधिवक्ता, सुप्रीम कोर्ट)
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‘लोगों को ज़रूरत है कि वे महिलाओं को पूर्ण नागरिक, पूर्ण व्यक्ति की तरह देखें, जिसका अधिकार है संगीत पसंद करना, जिसका अधिकार है काम पर जाना, जिसका अधिकार है अपनी यौनिकता अपने हिसाब से व्यक्त करना।’
4- मीना कंदासामी (वकील, शोधकर्ता और मानव अधिकार कार्यकर्ता)
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‘हिंसा कोई ऐसी चीज़ नहीं जो अपना प्रचार करे। यह मेरे चेहरे पर नहीं लिखा है, ज़ाहिर है कि अपने मुक्कों को मेरे शरीर पर मारते हुए वह इस बात को लेकर बहुत सावधान था। जब तक एक औरत बोल नहीं सकती, जब तक कि वे लोग, जिनसे वह कहती है, उसे सुनते नहीं, तब तक हिंसा का कोई अंत नहीं है।’
5- शरण्या मणिवन्नन (लेखिका, कवियित्री)
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‘शादी एक पितृसत्तात्मक संस्थान है जिसकी वजह से मर्दों से ज़्यादा औरतें इसकी आलोचना करतीं हैं, पर प्यार ऐसा नहीं है। प्यार बगावत है। प्यार क्रांति है।’
6- कमला दास (नारीवादी लेखिका)
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‘एक महिला को खुद को पहले एक अच्छी पत्नी, एक अच्छी मां बनकर साबित करना होगा, इससे पहले कि वह कुछ और बन सके। इसका मतलब था, साल दर साल इंतजार करना। मेरे पास प्रतीक्षा करने का समय नहीं है, मैं अधीर हूं। इसीलिए, मैंने अपने जीवन में काफी पहले लिखना शुरू कर दिया।’
7- उर्वशी बुटालिया (नारीवादी लेखिका)
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‘अभी भी हमारे देश में महिलाएं दूसरी श्रेणी की नागारिक बनी हुई हैं, लेकिन अब वह दरवाजे के बाहर खड़ी होने के बजाय दरवाजे के अंदर आने और अपनी बात सुनने की मांग कर रही हैं।’
8- इंदिरा जयसिंग (भारतीय सुप्रीम कोर्ट की वकील)
‘अगर मेरे साथ कोई पुरुष वकील होता है तो न्यायधीश पहले उसे बोलने को कहते हैं। अगर मेरी दूसरी तरफ पुरुष वकील होता है तो पहले उसे बोलने को कहा जाता है। मैं अपनी बात रखने के शुरुआती कीमती मिनट खो देती हूँ। यह विचारधारा ऊपर से नीचे तक बहती है। न्यायधीश भी हमारे समाज से आते हैं और वे न्यायालय में कैसा व्यवहार करते हैं ये उनकी परवरिश से पता चलता है। यह उनकी महिलाओं को बराबर स्वीकार ना कर पाने की क्षमता को दिखाता है।’
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