रोज़ा (काल्पनिक नाम) की नई-नई शादी हुई थी। शादी के शुरुआती दिनों में तो सब ठीक चल रहा था लेकिन धीरे-धीरे उसे अपने पति के सच्चाई के बारे में पता चला। वह रोज़ रात को शराब पीकर आता और रोज़ा के साथ लड़ाई-झगड़ा करता। कई बार तो उसने उस पर हाथ भी उठाया। रोज़ा को यह सब बर्दाश्त नहीं हो पा रहा था और आखिरकार एक दिन वह किसी को बिना बताए अपने मायके चली गई। जब उसकी सास को उसके जाने का पता चला तो उन्होंने रोज़ा को ही खूब खरी-खोटी सुनाई, अपने बेटे के हिंसक व्यवहार के लिए उसे ही ज़िम्मेदार ठहराया। रोज़ा की मां ने भी उसे समझाया कि शादी में ऐसी छोटी-छोटी बातें होती रहती हैं। इस बात के लिए उसे घर नहीं छोड़ना चाहिए। साथ ही उसे सलाह दी गई कि वह अपनी सहनशीलता बढ़ाए। आपको पता है यहां रोज़ा के साथ क्या हो रहा था? घरेलू हिंसा के साथ-साथ विक्टिम ब्लेमिंग, जहां उसके साथ हुई हिंसा के लिए उसे ही दोषी ठहराया गया।
विक्टिम ब्लेमिंग यानि उसी व्यक्ति/इंसान का दोष निकालना या उसे ही दोषी करार दे देना जिसके साथ कोई अपराध हुआ हो। यहां दोषी की जगह पीड़ित/सर्वाइवर से ही सवाल किए जाते हैं। अगर हम बात करें अपने देश की तो हमारे देश में विक्टिम ब्लेमिंग कई आधार पर होता है। उदाहरण के तौर पर धर्म के आधार पर, जाति के आधार पर और लिंग के आधार पर। आज से लगभग 71 वर्ष पूर्व लिखा जा चुका था कि इस देश में सभी समुदाय, वर्ग, जाति और लिंग के लोग एकसमान हैं। हालांकि, आज लगभग 71 साल बाद भी उस किताब में लिखी गई यह बात हकीकत में नहीं बदल पाई है। आज भी देश में कई तरह के भेदभाव मौजूद हैं और उसी का नतीजा है विक्टिम ब्लेमिंग क्योंकि इसी असमानता के कारण उच्च जाति, वर्ग के लोग दलित, बहुजन,आदिवासी, अल्पसंख्यक समुदाय पर दबाव बनाते है। ये विक्टिम ब्लेमिंग का मामला तब और ज्यादा गंभीर हो जाता है जब अपराध किसी औरत के साथ हुआ हो। यह समाज अपराध पर बाद में पहले सर्वाइवर पर विमर्श करना ज्यादा सही समझता है। उनके अनुसार सर्वाइवर के साथ हुआ अपराध, अपराधी के अपराध से ज्यादा गंभीर होता है।
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हमारे समाज का परिवेश हमेशा से ही पितृसत्तात्मक रहा है और पितृसत्ता के अंतर्गत महिला और पुरुष दोनों की अपनी अलग भूमिका होती है। महिलाओं को अपनी हर छोटी ज़रूरत से लेकर आकांक्षा तक के लिए पुरुष पर आश्रित रहना होता है। इसलिए इस समाज की धारणा और सोच दोनों वहीं तक सीमित हो गई है और यह समाज चाहता है कि औरतें हमेशा ही इस पितृसत्तात्मक समाज पर आश्रित रहें। लेकिन अब आधुनिक समय की मांग कुछ और है। औरतें वह सारी बेड़िया तोड़ना चाहती हैं जिसमें इतने सदियों से उन्हें बांधकर रखा गया था। वह अपने पिता और पति के नाम से नहीं बल्कि खुद के नाम से जानी जाना चाहती हैं। इसलिए धीरे-धीरे वे खुद के खिलाफ़ होनेवाले अपराध के विरुद्ध और अधिक मुखर होती जा रही हैं। लेकिन इस पुरुष-प्रधान समाज को तो औरतों को एक दायरे में देखने की आदत हो गई है। औरतों को सहनशीलता की मूर्ति के रूप में देखने की आदत हो गई है। जब कोई औरत इन सब के विरुद्ध जाकर अपने अधिकारों और हक की लड़ाई लड़ती है तब यह पुरुष प्रधान समाज उसमें ही दोष निकालता है। उसे संस्कारविहीन, मतलबी औरत इत्यादि का तमगा दे देता है और तो और उन्हें अपने साथ हो रहे अपराध को उजागर करने के लिए भी कोसा जाता है। कहा जाता है कि क्या ज़रूरत थी सबके सामने यह सब कहकर खुद की ‘इज्ज़त’ दाव पर लगाने की जो हुआ था उसे भूल भी तो सकती थी।
इसे हम इस तरीके से समझते हैं कि यदि कोई किसी की गोली मारकर हत्या कर दे तो क्या हम जिसकी हत्या हुई उसे दोष देते हैं कि क्यों वह उक्त व्यक्ति गोली मारने वाले के सामने आया? नहीं न? लेकिन यदि कोई पुरुष किसी स्त्री का बलात्कार करे तो हम सर्वाइवर को ज़रूर दोष देते हैं। उसके कपड़ों से लेकर उसके चरित्र तक का आंकलन कर देते हैं। वह कहां जा रही थी, कितने बजे रात तक बाहर थी ऐसा हज़ारों सवाल उसके ऊपर लाद देते हैं। पीड़ित को दोष देना आम बात है। लैंगिक हिंसा, जातिगत हिंसा के मामले में तो यह मुख्य रूप से अपराधियों से ध्यान हटाने का एक बहुत अच्छा तरीका है। यह पितृसत्तात्मक समाज स्त्रीद्वेष के कारण इन तरह की स्थितियां पैदा करता है जिसकी वजह से एक स्त्री को भी खुद में ही दोष नजर आने लगता है। वह यह सोचने पर मजबूर हो जाती है कि क्या वाकई में उसके कपड़े कुछ ज्यादा छोटे थे, क्या सच में उसे लड़कों से कोई दोस्ती नहीं रखनी चाहिए थी, क्या उसे कभी नाइट शिफ्ट में नौकरी नहीं करना चाहिए था, क्या उसके साथ जो भी हुआ उसके लिए वही जिम्मेदार है?
विक्टिम ब्लेमिंग एक बड़ी वजह है जिसके कारण महिलाएं अक्सर अपने साथ होनेवाले अपराध के ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठाती, उसके खिलाफ़ शिकायत नहीं दर्ज करवाती। उदाहरण के तौर पर #MeToo आंदोलन को देख लीजिए, जहां महिलाएं जब अपने साथ हुई यौन हिंसा को लेकर जब सोशल मीडिया पर अपनी कहानी शेयर कर रही थीं, तो उन पर भरोसा करने की जगह उनसे ही सवाल पूछे गए। उदाहरण के तौर पर इतने साल बाद क्यों वे ये साझा कर रही हैं, उनके पास अब सबूत क्या है, आदि। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो एनसीआरबी के अनुसार साल 2017 में देश में लगभग 32,559 बलात्कार के मामले दर्ज किए गए थे जिनमें 93.1% आरोपी पीड़ित को जानते थे। रिपोर्ट के अनुसार लगभग 3,155 मामले में आरोपी सर्वाइवर के परिवार से ही थे जबकि 16,599 मामले में बलात्कार पड़ोसी, दोस्त या किसी कर्मचारी द्वारा द्वेष की भावना से किया गया था। 10,523 ऐसे मामले थे जिनमें सर्वाइवर का बलात्कार ऑनलाइन दोस्त, लिव इन पार्टनर, या अलग हो चुके पति द्वारा किया गया था।
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मीडिया और विक्टिम ब्लेमिंग
वैसे विक्टिम ब्लेमिंग सिर्फ समाज के द्वारा ही नहीं बल्कि देश के तथाकथि चौथे स्तंभ मीडिया द्वारा भी खूब किया जाता है, पर इनका तरीका थोड़ा अलग होता है। आइए समझते हैं कैसे। अक्सर अपने अखबारों में ऐसी ख़बरें पढ़ी होंगी, उदाहरण के तौर पर दैनिक भास्कर में छपी यह खबर की हेडलाइन देखिए, “निर्भया का सारा सामान और कपड़े तक ले गए थे दुष्कर्मी।” इस हेडलाइन में आप देख सकते हैं कि कैसे सारा ध्यान सर्वाइवर पर ही और शब्द ‘निर्भया’ पर ही केंद्रित किया गया है जबकि आकर्षण का केंद्र दोषी होने चाहिए थे। मीडिया विक्टिम -परपेट्रेटर वाला नियम अपनाता है जिसमें विक्टिम के नाम से वह अपनी खबर चलाती है और ऐसा करने से पढ़ने वालों और देखने वालों की दिमाग में विक्टिम का नाम घर कर जाता है और लोग उसी पर अपनी टिप्पणी बनाने लगते हैं, जबकि टिप्पणी दोषी पर बनने चाहिए।
विक्टिम ब्लेमिंग की वजह से ही कई अपराध सामने तक नहीं आते। इसकी वजह से सर्वाइवर को काफी हद तक मानसिक यातना का भी सामना करना पड़ता है। हमें हर संभव प्रयास करना चाहिए कि विक्टिम की आवाज़ को कभी दबाया ना जाए और सर्वाइवर को विश्वास दिलाया कि जो भी हुआ उसमें उनकी, उसके विचार या व्यवहार की बिल्कुल भी गलती नहीं है। कोई भी स्थिति अपराध या अपराधी को सही साबित नहीं कर सकता है। विक्टिम ब्लेमिंग भी मानहानि के अंतर्गत ही आता है और इसके खिलाफ पीड़ित कानूनी कार्रवाई भी कर सकते हैं। इसके साथ-साथ हमें उस विचारधारा से भी लड़ना होगा जो विक्टिम ब्लेमिंग की जड़ में है और वह है पितृसत्ता।
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तस्वीर : श्रेया टिंगल फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए