“वर्तमान युग के पुरुष ने स्त्री के वास्तविक रूप को न कभी देखा था, न वह उसकी कल्पना कर सका उसके विचार में स्त्री के परिचय का आदि अंत इससे अधिक और क्या हो सकता था कि वह किसी की पत्नी है। कहना न होगा कि इस धारणा ने ही असंतोष को जन्म देकर पाला और पालती जा रही है।”
ये शब्द हैं भारतीय साहित्य जगह की आधुनिक मीरा कही जाने वाली रचनाकार महादेवी वर्मा के। स्त्री विमर्श के मुद्दे पर जब हम अंग्रेज़ी की किताबों का रुख़ करते हैं तो हम ये भूल जाते हैं कि साल 1942 में ही, जी हां! भारत की आज़ादी से भी पहले एक लेखिका भारत में स्त्री विमर्श की पृष्ठभूमि तैयार कर चुकी थी, वह लेखिका थीं महादेवी वर्मा और स्त्री विमर्श की उनकी यह पृष्ठभूमि थी, उनके निबंधों का संकलन- श्रृंखला की कड़ियां। ज़रा याद कीजिए अपने पालतु जानवरों पर लिखी गई उनकी कहानियां तो शायद हम सबने बचपन में कभी न कभी ज़रूर पढ़ी होंगी।