अच्छी ख़बर मणिपुर की फैशन डिज़ाइनर दादी मां : पद्मश्री हंजबम राधे देवी

मणिपुर की फैशन डिज़ाइनर दादी मां : पद्मश्री हंजबम राधे देवी

एडिटर्स नोट : यह लेख हमारी नई सीरीज़ ‘बदलाव की कहानियां’ के अंतर्गत लिखा गया आठवां लेख है। इस सीरीज़ के तहत हम अलग-अलग राज्यों और समुदायों से आनेवाली उन 10 महिलाओं की अनकही कहानियां आपके सामने लाएंगे जिन्हें साल 2021 में पद्म पुरस्कारों से नवाज़ा गया है। सीरीज़ की अगली कड़ी में पेश है पद्मश्री हंजबम राधे देवी की कहानी।

शादी पर दुल्हन और उसके जोड़े की बात खूब होती है लेकिन, आज कहानी थोड़ा बदलते हैं और शिफ्ट करते हैं, एक अंडररेटेड और साइडलाइन कैरेक्टर पर। हम जोड़े को पहनने वाली की बात नहीं करेंगे, इसमें बात होगी इसे बनाने वाली की। एक ऐसी बुनकर की, जो पद्मश्री है। इनका नाम है, हंजबम राधे देवी। भारत के पूर्वोत्तर भाग में मणिपुर राज्य है। राधे देवी यहीं से आती हैं। 88 साल की हैं और वह अब तक 1000 से ज्यादा दुल्हनों के लिए शादी की पारंपरिक पोशाक पोलोई तैयार कर चुकी हैं। यह बात खास इसलिए है क्योंकि वह इस पारंपरिक परिधान में आधुनिकता का समावेश करती हैं। यह प्रक्रिया जिस खूबसूरती के साथ होती है, वह राधे देवी को खास बना देती है। 

साल 1933 में राधे देवी का जन्म हुआ। एक आम भारतीय घर में। वह सबकी चहेती थीं। इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक वह छोटी उम्र में अपने दोस्तों के साथ खूब खेलतीं। कभी छुपन-छुपाई तो कभी कुछ। ऐसे ही एक खेल में उन्होंने दोस्तों से कहा, “मैं तुम सबको तैयार करूंगी। मैं बनूंगी फैशन डिज़ाइनर।” ये खेल-खेल में कही गई उनके मन की बात थी। किसी चीज़ में बदलाव करना उन्हें हमेशा से ही बहुत पसंद था और जब बात कपड़ों की हो, तो राधे हमेशा तैयार रहती थीं। कपड़े, उसके डिज़ाइन और बनावट हमेशा ही उन्हें रोमांचित करते थे। 

15 साल की उम्र में उनकी शादी हंजाबम मणि शर्मा से कर दी गई। तब बाल विवाह होना कोई बड़ी या अनोखी बात नहीं थी। शादी हुई तो राधे घर-गृहस्थी में लग गई। पति- घर का काम ही अब उनके लिए सबसे ज़रूरी हो गया। फैशन डिज़ाइनिंग का सपना कहीं गुम हो गया था। इंडियन एक्सप्रेस के ही मुताबिक, राधे पति ज्योतिषी थे। इस क्षेत्र में बहुत ज़्यादा कमाई का मौका नहीं होता है। नुकसान भी यहीं हुआ। उनकी कमाई इतनी नहीं होती थी कि घर का खर्च पूरा निकल पाए। कई बार तो चावल खरीदने तक के पैसे नहीं होते थे। लिहाज़ा राधे को सड़क किनारे पकौड़ों की दुकान लगानी पड़ी। उनके हिस्से सिर्फ दुकान ही नहीं आई, वह घर का पूरा काम भी करती थीं। सुबह उठतीं, घर का काम करतीं, स्टॉल की तैयारी करतीं फिर स्टॉल लगातीं। शाम को घर वापस आतीं और घर का काम करतीं। उनकी इस पूरी भाग-दौड़ को उनकी पड़ोसी, जिसे वह प्यार से ‘ईचे’ थाऊनाओजम प्रियोसखी कहतीं, देख रही थी। मणिपुरी में ईचे का मतलब बड़ी बहन होता है। प्रियोसखी ने उन्हें पोलोई में हाथ आजमाने को कहा। राधे के लिए यह बात अतीत के ख्वाब को जीने जैसी थी। पोलोई शादी पर दुल्हन द्वारा पहनी जाने वाली मणिपुर का परंपरागत परिधान है। इसे वहां के शास्त्रीय नृत्य ‘रासलीला’ में गोपियों के द्वारा भी पहना जाता है। यह घाघरा, बेल्ट, दुपट्टे और ब्लाउज़ से मिलकर बनती है। राधे पोलोई सीखने के लिए अभी ‘हां’ नहीं कर सकती थीं। उन्हें पति की इजाज़त लेनी थी। आखिरकार, उनके पति मान गए। 

मणिपुर का परंपरागत परिधान पोलोई, तस्वीर साभार: Wikipedia

और पढ़ें : अनाथों की मां : पद्मश्री सिंधुताई सपकाल

25 साल की उम्र में राधे देवी ने पोलोई सीखना शुरू किया। इसमें भी मेहनत थी लेकिन उन्हें मज़ा आ रहा था। यह उनके मन का काम था। उनकी ईचे ने उन्हें इसकी शुरुआती मूल बातें बताईं। उन्होंने कुछ दिन प्रियोसखी के साथ काम भी किया। फिर, उन्होंने नृतक और पोलोई बनाने वाली खुरैलाकपम इबोटन शर्मा से इस पोशाक की अन्य बारीकियां सीखीं। 30 साल की उम्र में राधे देवी खुद इस व्यवसाय में उतर आईं। राधे देवी पिछले करीब 60 साल से पोलोई बना रहीं हैं। पोलोई में घाघरा सबसे मुख्य है और इसे बनाने में मेहनत भी सबसे ज़्यादा लगती है। यह बेलन के आकार का होता है। पुराने दौर में, घाघरे के लिए 9 कपड़ों की परत बनाई जाती थीं फिर इसे चावल की मांड में डालकर कड़ी धूप में सूखने के लिए रखा जाता था। उसके बाद इसे घाघरे का आकार दिया जाता था। इस पूरी प्रक्रिया में दो दिक्कतें खूब आती थीं। पहला, कई बार तेज धूप न निकलने के कारण वे सड़कर खराब हो जाता था। दूसरा, सूखने के बाद कपड़े की 9 परत इतनी कड़ी हो जाती थी कि उसमें सुई तक नहीं घुसती थी। घुस भी जाए तो बहुत टूटती थी। इनसे बचने के लिए राधे देवी ने नया तरीका खोजा। इस पारंपरिक पोशाक में उन्होंने नया तड़का लगाया। वह घाघरे को फाइबर से बनाती हैं।

पद्मश्री हंजबम राधे देवी, तस्वीर साभार: Imphal Free Press Twitter

और पढ़ें : पद्मश्री मंजम्मा जोगती : एक ट्रांस कलाकार जो बनीं कई लोगों की प्रेरणा

बीबीसी से बात करते हुए राधे देवी कहती हैं, “यहां लोग फाइबर को रबर भी कहते हैं लेकिन ऐसा नहीं है। हम लंबा-चौड़ा फाइबर खरीद कर रख लेते हैं। घाघरा बनाते समय इसे नाप काटकर निकाल लेते हैं। ये सड़ता नहीं है। साथ ही, इसमें सुई से काम करने में भी आसानी रहती है। पहले तो मोती- मूंगा का इस्तेमाल नहीं होता था पर अब ऐसा होने लगा है। सिर्फ घाघरा ही नहीं, पूरी ड्रेस में ही अब काफी बदलाव हो रहे हैं।” वह पोलोई को किराये पर देती हैं। शुरुआती दिनों में एक पोलोई के 500 रुपये मिलते थे। अब एक पोलोई से वे 10 से 50 हज़ार तक कमाती हैं। 

इतना ही नहीं, वह त्योहारों के कपड़े भी बनाती हैं। देवी- देवताओं के वस्त्र और गुड्डे-गुड्डियों के कपड़े भी। इसमें उनकी मदद उनकी बड़ी बेटी करती है। राधे देवी खंबा-थोबी नृत्य के लिए भी पोशाकें तैयार करती हैं। इसमें प्रिंटेड कपड़े और हथकरघे से स्कर्ट बनती है। मखमल की चोली और कमर के चारों ओर मलमल का पतला कपड़ा बांधते हैं। सिर पर मोरपंख भी लगाया जाता है। राधे देवी की सामाजिक सक्रियता भी बहुत ज़्यादा है। वह लगातार महिला सशक्तिकरण के लिए काम कर रही हैं और कई स्थानीय संगठनों से भी जुड़ी हुई हैं। उन्होंने नशे की लत छुड़ाने और महिलाओं के रोजगार से जुड़े मुद्दों पर जागरूकता फैलाई है। राधे देवी को मणिपुर के लोग प्यार से ‘अबोक राधे’ कहते हैं। अबोक राधे मतलब दादी मां। उनकी उम्र अब ढल रही है। वह काम करने पर जल्दी थक जाती हैं। राधे देवी एक स्कूल खोलना चाहती हैं ताकि पोलोई बनाने की कला वह आने वाली पीढ़ी को सिखा सकें।

और पढ़ें : पद्मश्री पूर्णमासी जानी : बिना पढ़ाई किए जिन्होंने की हज़ारों कविताओं और गीतों की रचना


Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content