विज्ञान के क्षेत्र में आपने पुरुषों के योगदान की कहानियां तो बहुत सुनी होंगी, लेकिन महिलाओं के योगदान की कहानियां गिनी-चुनी ही हैं। महिलाओं की कहानियां जैसे हर क्षेत्र में छिपी हुई हैं। विज्ञान का क्षेत्र हो या खेल का महिलाओं का बराबर दिखना जैसे इस पितृसत्तात्मक समाज को गंवारा नहीं। सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों के चलते महिलाओं का पढ़ना और एक पहचान हासिल करना विशेष रूप से कठिन है। वहीं, इतिहास में महिलाओं का इस समाज के निर्माण में एक महत्वपूर्ण योगदान होने के बावजूद भी आज उन्हें विज्ञान के क्षेत्र में जाने के लिए उत्साहित नहीं किया जाता है। वहीं, इस क्षेत्र को पुरुष-प्रधान क्षेत्र कहकर इसे महिलाओं की पहुंच से दूर रखना भी एक वजह है। उनके ज्ञान और उपलब्धियों को जानबूझकर किताबों, मीडिया और हमारे रोजमर्रा के जीवन से छिपाया जाता है, जिसके चलते वे उचित पहचान मिलने से हमेशा वंचित रहती हैं। इन्हीं बातों को मद्देनजर रखते हुए, आज हम बात करेंगे भारत की एक ऐसी भौतिक वैज्ञानिक की जिन्होंने देश और विदेश में विज्ञान के क्षेत्र में योगदान तो बहुत दिया लेकिन उनका जिक्र इतिहास के पन्नों में कहीं खो गया है।
बिभा चौधरी एक भौतिक वैज्ञानिक थीं जिन्होंने बहुत से कई मेधावी वैज्ञानिकों के मार्गदर्शन में का किया। इसमें डीएम बोस, होमी जहांगीर भाभा और विक्रम साराभाई जैसे नाम शामिल हैं। उन्होंने मुंबई में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (TIFR) और अहमदाबाद में फिजिकल रिसर्च लेबोरेटरी (PRL) में भी रिसर्च किया। उन्होंने भारत में ही नहीं बल्कि विदेश में भी अपनी रिसर्च के काम को एक नई दिशा देने की कोशिश की। उन्होंने नोबेल प्राइज़ विजेता पी.एम.एस. ब्लैकेट के मार्गदर्शन में भी काम किया। वह TIFR की पहली महिला वैज्ञानिक थीं जिन्होंने मैनचेस्टर यूनिवर्सिटी से पीएचडी हासिल की थी। साथ ही वह पहली भारतीय महिला थी जिसने उच्च ऊर्जा भौतिकी के क्षेत्र में काम किया था।
उनकी शुरुआती ज़िंदगी की बात करें तो, उनका जन्म साल 1913 में हुगली जिले के भंडारहाटी के एक जमींदार परिवार में हुआ था। उनके पिता बांकू बिहारी चौधरी पेशे से डॉक्टर थे।वहीं, उनका परिवार काफी हद तक ब्रह्म सिद्धांत से प्रभावित था। उस समय ब्रह्म समाज अपने आंदोलनों के लिए जाना जाता था। इस समाज ने सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक सुधार की वकालत की और महिलाओं की शिक्षा को प्रोत्साहित किया। वहीं, ब्रह्म समाज से ताल्लुक के चलते उनके परिवार की महिलाओं को शिक्षा ग्रहण करने का मौका प्राप्त हुआ और उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा कोलकाता के बेथ्यून स्कूल से पूरी की। बेथ्यून स्कूल भारत के सबसे पुराने महिला स्कूलों में से एक था। स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने स्कॉटिश चर्च कॉलेज से भौतिकी में बीएससी की डिग्री और कलकत्ता विश्वविद्यालय से भौतिकी में ही एमएससी की डिग्री हासिल की।
बिभा ने ऐसे समय में अपनी डिग्री हासिल की जब विज्ञान के क्षेत्र में बहुत कम महिलाओं ही कदम रखती थीं।
हमें बिभा चौधरी के साहस और दृढ़ विश्वास की भी दाद देनी होगी। उन्होंने ऐसे समय में अपनी डिग्री हासिल की जब विज्ञान के क्षेत्र में बहुत कम महिलाओं ही कदम रखती थीं। बिभा चौधरी कलकत्ता विश्वविद्यालय के भौतिकी विभाग में एमएससी कर रही इकलौती छात्रा थीं। विशेष रूप से पुरुषों के आधिपत्य वाले विषय में डिग्री हासिल करना उस समय एक बड़ी बात थी और उन्होंने वह कर दिखाया। उन्होंने साल 1938 से साल 1942 तक डीएम बोस के साथ एक रिसर्चर के रूप में बोस संस्थान में काम किया। इसके बाद उन्होंने कॉस्मिक वेव्स पर मैनचेस्टर यूनिवर्सिटी में काम किया। यहां उन्होंने नोबेल पुरस्कार विजेता पैट्रिक ब्लैकेट के साथ काम किया।
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साल 1949 की शुरुआत में अपनी थीसिस जमा करने के बाद उन्होंने पीएचडी की डिग्री साल 1952 में हासिल हुई। वह कोलार गोल्ड फील्ड्स (केजीएफ) में किए गए प्रयोग का भी हिस्सा थीं। वह बॉम्बे में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (TIFR) में काम करने वाली पहली महिला शोधकर्ता भी थीं। मिशिगन विश्वविद्यालय के भौतिकी विभाग में एक अतिथि व्याख्याता के रूप में उनका संक्षिप्त कार्यकाल भी था। फिर उसके बाद उन्होंने टीआईएफआर छोड़ दिया और अहमदाबाद में भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला से जुड़ गईं। विभा चौधरी ने अपने लंबे करियर के दौरान अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में कई शोध पत्र प्रकाशित किए।
इंडिया साइंस वायर के मुताबिक अनुसंधान में उनके जीवन भर के योगदान के बावजूद, उन्हें किसी भी प्रमुख फेलोशिप या पुरस्कार के लिए नहीं चुना गया था। इसे आप सीधे शब्दों में लैंगिक भेदभाव का एक उत्कृष्ट उदाहरण समझ सकते हैं। उनके जीवन का विवरण उन पर प्रकाशित हुई किताब ‘A Jewel Unearthed: Bibha Chowdhry‘ में मिलता है। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च के अनुसार इंटरनैशनल ऐस्ट्रोनॉमिकल यूनियन ने साल 2019 में एक तारे को उनका नाम दिया-बिभा। अपने आखिरी समय तक वह लगातार लिखती रही थीं। 2 जून, 1991 को को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
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