संस्कृति मिमी : महिला अधिकार और संघर्षों पर पितृसत्ता की एक खोल | नारीवादी चश्मा

मिमी : महिला अधिकार और संघर्षों पर पितृसत्ता की एक खोल | नारीवादी चश्मा

‘मिमी’ को नारीवादी चश्मे से देखते है तो ये फ़िल्म उसी आईने की तरह दिखती है जो पितृसत्तात्मक सोच का समर्थन करने का काम करती है।

मनोरंजन और मीडिया के प्रभावी माध्यम के रूप में अपने भारतीय समाज में फ़िल्में शुरुआत से ही अहम भूमिका अदा करती आयी है। बालों की स्टाइल हो या कपड़ों की डिज़ाइन, ज़िंदगी के ढ़ेरों पहलू भारत में आज भी इन फ़िल्मों से प्रभावित होते है। फ़िल्में समाज के आईने के रूप में काम करती है। पर कई बार कुछ मुद्दों पर बनी फ़िल्में भी अपने आईने में सोच की उसी शक्ल का समर्थन करते है जो सदियों से हमारापितृसत्तात्मक समाज सोचता और लागू करता आया है। ख़ासकर महिला अधिकार के मुद्दे के संदर्भ में।

इसी क्रम में जब हम हाल ही में, लक्ष्मण उतेकर के निर्देशन में बनी फ़िल्म ‘मिमी’ को नारीवादी चश्मे से देखते है तो ये फ़िल्म उसी आईने की तरह दिखती है जो पितृसत्तात्मक सोच का समर्थन करने का काम करती है। सेरोग़ेसी के मुद्दे पर बनी ये फ़िल्म यूँ तो अभिनेत्री कृति शेनन और अभिनेता पंकज त्रिपाठी के बेहतरीन अभिनय के लिए ख़ूब वाहवाही बटोर रही है और यहाँ इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि फ़िल्म में सेरोग़ेसी से जुड़े कई ज़रूरी पहलुओं को बेहद संजीदगी से उजागर भी किया गया है। ग़रीबी की वजह से अपने सपनों को पूरा करने में असमर्थ युवा लड़की का पैसों के लिए सेरोग़ेसी मदर बनने का फ़ैसला, ग़रीबी, सेरोग़ेसी के समीकरण और आख़िर में रक्त की शुद्धता वाली वैचारिकी से निजात, ऐसे कई मुद्दों को फ़िल्म में दर्शाया गया है। लेकिन गर्भवती होते ही मातृत्व के महिमामंडन के साथ महिला अधिकार, उनके सपनों की क़ुर्बानी और सिंगल मदर के संघर्षों पर कल्पना का लेप बेहद निराश करने वाला है।

गर्भसमापन की नकारात्मक छवि दिखाती ‘मिमी’

अबोर्शन या गर्भसमापन जो की महिला अधिकार का अहम हिस्सा है, इस हिस्से को एक़बार फिर से इस फ़िल्म के माध्यम से इसकी नकारात्मक छवि और मातृत्व के महिमामंडन से नकारा गया है। फ़िल्म में जैसे ही अमेरिकी जोड़े सेरोगेट मदर को गर्भसमापन करने की बात कहते है, वहीं से मातृत्व का महिमामंडन के साथ अबोर्शन को सिरे से ख़ारिज करना शुरू हो जाता है। युवा लड़की का अबोर्शन की बजाय बच्चे को जन्म देना का निर्णय उसे सीधे अपने सपनों से दूर कर देता है। वो ‘मिमी’ जो एक अच्छी अभिनेत्री या बेहतरीन डांसर बन सकती थी, एक झटके में अपने सपने और करियर की आहुति दे देती है।

बदलते समय के साथ अपडेट होती पितृसत्तात्मक सोच को समझना बहुत ज़रूरी है।

मातृत्व का महिमामंडन पितृसत्ता का एक मज़बूत वैचारिक हथियार है। महिलाओं को उनके अधिकारों और स्वावलंबन से दूर करने के विचार और व्यवहार को जिसे बेहद बारीकी मगर पूरी मज़बूती के साथ इस फ़िल्म में प्रस्तुत किया गया है। ये हमारे देश की कड़वी सच्चाई है कि गर्भसमापन को सालों पहले ही महिला क़ानूनी अधिकार के रूप में स्वीकारने के बाद भी अधिकांश लोग इसे पाप और ग़ैर-क़ानूनी मानते है। ऐसे में मिमी जैसी फ़िल्म का एक़बार फिर से गर्भसमापन की नकारात्मक छवि प्रस्तुत करना, गर्भसमापन के अधिकार को महिलाओं तक पहुँचाने के बजाय इससे कोसों दूर करने का काम करेगा। ये महिलाओं को उनके सपने व करियर की आहुति देकर बच्चे पैदा को करने  को प्रोत्साहित करती है, जो बेहद निराशाजनक और चिंता का विषय है।

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सिंगल मदर के संघर्ष पर कल्पना का चमकीला परदा करती ‘मिमी’

शादी के बिना संबंध और बच्चे पैदा को करने के सख़्त ख़िलाफ़ अपने भारतीय समाज में बिना शादी वाली सिंगल मदर होना बेहद ज़्यादा चुनौतीपूर्ण है। जैसा मैंने शुरुआत में ही कहा कि फ़िल्में समाज का आईना होती है, लेकिन फ़िल्म बनाने वाले पितृसत्ता की नींव को मज़बूत करने के लिए इस आईने का इस्तेमाल करना बखूबी जानते है। जैसे ही महिला अधिकारों की बात होती है, उनके निर्णय, करियर या सपनों को जीने की बात होती है, ये आईने तुरंत भारतीय नारी, अच्छी-बुरी औरत, समर्पण जैसे तमाम महिमामंडन से महिलाओं को अपने बताए रास्ते पर चलने के लिए मजबूर करते है। लेकिन जब महिलाओं के संघर्षों को उजागर करने और स्वीकारने की बात आती है तो बहुत ख़ूबसूरती से मीठे गानों-म्यूज़िक वाले बैकग्राउंड के साथ अपनी कल्पना की कालिख से ये उन संघर्षों को नकार देते है। मिमी फ़िल्म में यही किया गया। जब सपनों को जीने की बात आयी तो गर्भसमापन को ग़लत बताकर ‘माँ बनने’ का चुनाव सही करार दिया गया। लेकिन जैसे ही बिना शादी की सिंगल मदर के संघर्षों को उजागर करने की बात आयी तो फ़िल्म में मीठे गानों-म्यूज़िक वाले बैकग्राउंड के साथ हैपी एंडिंग कर दी।

समय भले ही बदल रहा है लेकिन बदलते समय के साथ अपडेट होती पितृसत्तात्मक सोच को समझना बहुत ज़रूरी है। वरना अभिनेत्रियों के लीडिंग रोल वाली हर फ़िल्म को हम यूँ ही महिला अधिकार की पैरोकार समझकर खोखली प्रगतिशीलता पर पीठ थपथपाते रहेंगें। हमें ये समझना होगा कि दो-तीन घंटे की बनी फ़िल्में या चंद सेकंड के एड का प्रभाव अभी भी हमारे समाज में बेहद ज़्यादा है, ऐसे में जब महिला अधिकारों को ख़ारिज करती फ़िल्में आमज़न तक पहुँचती है तो ये न केवल महिला अधिकारों को सरोकार से जोड़ने में रोड़ा बनती है बल्कि महिला अधिकार के लंबे संघर्ष को भी ओझल करने का काम करती है।    

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तस्वीर साभार : boxofficeworldwide

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