आज हम बात करेंगे शर्मिला रेगे की। वह शर्मिला रेगे जो एक भारतीय समाजशास्त्री, नारीवादी स्कॉलर थीं। उनका जन्म 6 अक्टूबर 1964 को कोल्हापुर में हुआ था लेकिन वह पली-बढ़ीं, महाराष्ट्र के पुणे शहर में थीं। उन्होंने अपनी उच्च शिक्षा पुणे के फर्गुसन कॉलेज से समाजशास्त्र क्षेत्र में की थी। साल 2005 में वह पुणे यूनिवर्सिटी में ही समाजशास्त्र विभाग की प्रोफेसर बनीं। हालांकि बाद में एक लंबे समय के लिए वह आईआईटी बॉम्बे में समाजशास्त्र की प्रोफेसर के रूप में पढ़ाने चली गईं। साल 2008 में वापस पुणे यूनिवर्सिटी के क्रांतिज्योति सावित्रीबाई फूले वीमन स्टडीज़ सेंटर (जेंडर स्टडीज विभाग) में बतौर डायरेक्टर दोबारा शामिल हुईं।
शर्मिला रेगे ने भारतीय समाज के परिपेक्ष्य में जेंडर स्टडीज़ में एक अहम योगदान दिया। वह जो अभी तक सिर्फ पितृसत्ता कही जा रही थी, जिस नारीवाद में जाति को दरकिनार कर दिया जा रहा था। वहां शर्मिला ने पितृसत्ता और जाति कैसे एक दूसरे से मिलकर शोषण का रूप तैयार करते हैं, इसपर रिसर्च किया जिसने भारत के समाजशास्त्र और वीमन स्टडीज़ को नई दिशा दी। उन्होंने राइटिंग कास्ट, राइटिंग जेंडर: रीडिंग दलित वूमेन टेस्टमोनीज, अगेंस्ट द मैडनेस ऑफ मनु, बी आर अम्बेडकर राइटिंग ऑन ब्राह्मनिकल पेट्रियार्की जैसी ज़रूरी किताबें लिखीं। अपनी टीचिंग के दौरान ना उन्होंने सिर्फ एकेडमिया में अपना योगदान दिया बल्कि वह दलित बच्चों के अधिकारों की लड़ाई भी साथ-साथ लड़ीं।
भारत के नारीवाद डिस्कोर्स में शर्मिला रेगे ने जाति, वर्ग, जेंडर, धर्म, सेक्सुअलिटी को केंद्र में लाने का काम किया। वीमन स्टडीज़ में अपने दलित फेमिनिस्ट स्टैंडपॉइंट में वह अपने विचार स्पष्ट रूप से व्यक्त करते हुए एकेडमिया में नए शब्दों का उद्भव भी करती हैं। सबल्टर्न पर्सपेक्टिव को केंद्र में रखते हुए अपनी बात करती हैं। विवाह व्यवस्था में हम दहेज जैसी प्रथा से वाकिफ हैं। शर्मिला इसका मूल्यांकन करते हुए अपने दलित फेमिनिस्ट स्टैंडपॉइंट में लिखती हैं, “दहेज के खिलाफ अभियान पर भी विचार करें।जबकि वामपंथी महिला संगठनों ने दहेज को भारत में पूंजीवाद के विकास के तरीकों के रूप में देखा, स्वायत्त महिला समूहों ने परिवार के भीतर पितृसत्तात्मक शक्ति /हिंसा पर ध्यान केंद्रित किया। दहेज की वर्तमान प्रथाओं को ब्राह्मणीकरण की प्रक्रियाओं और विवाह प्रथाओं पर उनके प्रभाव के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। ब्राह्मणवादी आदर्शों ने दहेज विवाह को प्राथमिकता दी, यह अच्छी तरह से प्रलेखित है। वास्तव में यह ब्रह्म विवाह की वैधता की औपनिवेशिक स्थापना थी जिसने दहेज प्रथा को संस्थागत और विस्तारित किया। ब्राह्मणवादी जातियों ने अन्य रूपों पर विवाह के ब्रह्म रूप को अपनाया और इस तरह ‘दहेज’ को एक आवश्यक अनुष्ठान के रूप में स्थापित किया। इसके अलावा, अंतर्विवाह का सिद्धांत और अंतर्जातीय गठबंधनों के खिलाफ सामूहिक हिंसा के माध्यम से इसकी जबरदस्ती और हिंसक निरंतरता जारी रखी जो दहेज के विश्लेषण के लिए महत्वपूर्ण हैं।”
शर्मिला रेगे ने भारतीय समाज के परिपेक्ष्य में जेंडर स्टडीज में एक अहम योगदान दिया। वह जो अभी तक सिर्फ पितृसत्ता कही जा रही थी, जिस नारीवाद में जाति को दरकिनार कर दिया जा रहा था।
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हम आज भी देखते हैं कि किस तरह भारत का नारीवाद सभी वर्ग, जाति, धर्म से आती महिलाओं को एक ही खांचे में रखता है जिससे वे महिलाएं जो अपनी विशेष जाति या धर्म की वजह से शोषण का सामना करती हैं उनके शोषण को दरकिनार कर दिया जाता है। इसी पूरी स्थिति को शर्मिला रेगे लिखती हैं, “चूंकि 1970 के दशक की कई मुखर नारीवादी श्वेत, मध्यम वर्ग और विश्वविद्यालय से शिक्षित थीं, इसलिए यह उनका अनुभव था जिसे ‘महिला अनुभव’ के रूप में सार्वभौमिक बनाया गया। इस प्रकार, ‘सभी महिलाएं निगर हैं’ और ‘सभी महिलाएं दलित हैं’ जैसे व्यापक बयान दिए गए। इस प्रकार महिलाओं के मुद्दों के प्रति वामपंथियों की द्वैतता का विरोध इस दावे से किया गया कि महिलाएं अनिवार्य रूप से अन्य महिलाओं से जुड़ी हुई हैं; ‘ज्ञान के व्यक्तिपरक अनुभव’ नारीत्व के सार्वभौमिक अनुभव के सिद्धांत का आधार बन गए। इस प्रकार ‘अनुभव’ व्यक्तिगत राजनीति का आधार बन गया और साथ ही उत्पीड़न को परिभाषित करने के लिए एकमात्र विश्वसनीय पद्धति उपकरण बन गया। इस तरह की स्थिति से, दलित महिलाओं के अनुभवों की पूरी तरह से अदृश्यता थी या केवल उनका एक प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व था। इस प्रकार दलित स्त्रीत्व का पुरुषीकरण और नारीत्व का सवर्णीकरण हुआ, जिससे दलित नारीत्व का बहिष्कार हुआ।”
शर्मिला को मलकॉल्ह अदीसेशियाह पुरस्कार से साल 2006 में इंस्टिट्यूट ऑफ डेवलेपमेंट स्टडीज, मद्रास ने डेवलपमेंटल स्टडीज़ में बेहतरीन काम करने, अहम योगदान देने के लिए सम्मानित किया था। 13 जुलाई 2013 को उनका निधन महज़ 48 की उम्र में, कोलोन कैंसर की वजह से पुणे के स्थानीय अस्पताल में हो गया था। वह अपने विद्यार्थियों में एक बेहतरीन शिक्षिका के रूप में जानी जाती थीं जो अपने विद्यार्थियों को नया और बेहतर सीखने के लिए कहती थीं, जिसके लिए वे अपनी भरसक मेहनत करती थीं। उनके निधन दिवस पर उनके एक छात्र, विद्वान चित्तिबाबू पडावाला ने द हिंदू को बताया, “वह छात्रों, विद्वानों और शोध सहायकों के प्रति सबसे अधिक सहिष्णु थीं, जो अपने चरम और सटीक मानकों पर खुद को संचालित नहीं कर सकते थे। वह अगली पीढ़ियों तक ज्ञान पहुंचाने के बारे में उतनी ही चिंतित थी जितनी कि इसे सुधारने के लिए। इस अर्थ में, उनके लिए शिक्षाशास्त्र ही राजनीति थी।” उनके विद्यार्थी और अन्य साथियों ने द हिंदू को बताया था कि जब तक उन्हें अपनी बीमारी का पता तक नहीं था वह तब ही अपनी किताब ‘अगेंस्ट मैडनेस ऑफ मनु’ खत्म करने के बाद कह रही थीं कि अब क्योंकि ये किताब वो खत्म कर चुकी हैं इसीलिए शांति से मर सकती हैं। वह अपने ईमेल्स को डॉक्टर आंबेडकर के शब्दों के साथ खत्म करती थीं और वे शब्द होते थे, “आपको मेरी आखिरी सलाह है कि शिक्षित, आंदोलन और संगठित होइए, खुद पर विश्वास रखें। हमारे पक्ष में न्याय साथ है तब मैं यह नहीं देखता कि हम अपनी लड़ाई कैसे हार सकते हैं।”
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तस्वीर साभार : Hillele