वर्तमान दौर में महिलाओं ने काफी हद तक अपनी ताकत को पहचाना है और अपने अधिकारों के लिए लड़ना सीख लिया है लेकिन 1887 के दौर में जब इस सबकी कल्पना भी आसान नहीं थी, तब डॉ. रखमाबाई राउत भारत में कानूनी तौर पर अपने पति से अलग होनेवाली और शादी में एक महिला की सहमति की अहमियत भारतीय समाज को बतानेवाली पहली महिला बनीं। साथ ही उन्होंने ब्रिटिश भारत में सहमति की उम्र का कानून बनाने में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने जबर्दस्ती की शादी में रहने से इनकार कर दिया और अपने पति से अलग रहने की मांग की। हालांकि पुरुषों के लिए तो उस वक्त अपनी पत्नियों को तलाक देना सामान्य बात थी लेकिन महिलाओं के पास ऐसा कोई अधिकार नहीं था। इसके साथ ही रखमाबाई राउत भारत में प्रैक्टिस करने वाली पहली महिला डॉक्टर भी बनीं।
रखमाबाई का जन्म मुंबई में 22 नवंबर 1864 को हुआ था। छोटी सी उम्र में ही रखमाबाई के पिता जनार्दनजी की मृत्यु हो गई। इसके बाद उनकी मां जयंतीबाई ने विधुर सखाराम अर्जुन से दूसरी शादी की। रखमाबाई पर अपने सौतेले पिता का काफी असर था जो कि एक मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर थे। चिकित्सा के क्षेत्र में करियर बनाने के पीछे उनके पिता की ही प्रेरणा थी। उस वक्त बाल विवाह के चलन के कारण जयंतीबाई ने रखमाबाई का विवाह 11 साल की उम्र में दादाजी भीकाजी से कर दिया लेकिन रखमाबाई ने अपने पति के घर जाने से इनकार कर दिया और उनके पिता सखाराम अर्जुन ने इसका समर्थन किया। सखाराम अर्जुन का मानना था कि उन्हें अपने पति के घर नहीं जाना चाहिए। वह महिलाओं के कम उम्र में गर्भवती होने के खिलाफ थे। उन्होंने निश्चय किया कि दादाजी घर-जमाई बनकर ससुराल में ही रहेंगे। सखाराम अर्जुन ने उस वक्त महिला स्वास्थ्य और मातृत्व के समय देखभाल पर एक किताब भी लिखी थी, जब इन विषयों पर बात करना भी एक टैबू माना जाता था।
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अपने अधिकारों के लिए जब लड़ीं रखमाबाई
साल 1885 में दादाजी भीकाजी ने अपने वैवाहिक अधिकारों के लिए रखमाबाई के खिलाफ बंबई हाईकोर्ट में रेस्टीट्यूशन ऑफ कंजुगल राइट्स (वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना) का मुकदमा दर्ज कर दिया। इस पर रखमाबाई भी चुप नहीं बैठी, कह दिया कि कोई भी उनको इस शादी में बने रहने के लिए मजबूर नहीं कर सकता। जब यह शादी हुई थी तो वह बहुत छोटी थीं और इसमें उनकी सहमति नहीं थी। उन्होंने इसका विरोध किया और रखमाबाई वह पहली भारतीय महिला विद्रोही बनीं जिसने अपनी मर्जी के विरुद्ध की गई शादी को स्वीकार नहीं किया। कोर्ट ने रखमाबाई के पक्ष में फैसला दिया और दादाजी भीकाजी को इस मुकदमे में हुए खर्च की भरपाई करने को कहा। इस फैसले ने भारत के पितृसत्तात्मक रूढ़िवादी समाज को हिलाकर रख दिया। कुछ समाज सुधारकों ने कोर्ट के इस फैसले का स्वागत किया तो वहीं कुछ ने इस फैसले की आलोचना की और इसे भारतीय समाज के नियमों पर हमला बताया।
कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ बंबई हाईकोर्ट में ही अपील दायर की गई। इस बार पहले फैसले को खारिज कर नए सिरे से सुनवाई का आदेश दिया गया। इस बार कोर्ट ने रखमाबाई को दो विकल्प दिए कि या तो वह 6 महीने के लिए जेल जाने को तैयार हो या अपने पति के पास चली जाएं। रखमाबाई ने जेल जाना स्वीकार किया और सखाराम अर्जुन के समर्थन से अपनी लड़ाई जारी रखी। शादी को खत्म करने के लिए उन्होंने रानी विक्टोरिया को भी खत लिखा। रानी ने कोर्ट के फैसले को खारिज कर दिया और जुलाई, 1888 में उनके पति दादाजी को मुकदमा वापिस लेना पड़ा।
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रखमाबाई के इस क्रांतिकारी कदम ने देश के साथ-साथ विदेश में भी खूब सुर्खियां बटोरीं। कई महिलाएं और सुधारवादी इस कदम के समर्थन में आए। ब्रिटेन में तो बमुश्किल ही कोई अखबार रहा होगा जिसने रखमाबाई के समर्थन में खबर न छापी हो। तब टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक हैनरी कर्वेन ने भी इसके पक्ष में कई लेख लिखे। रखमाबाई के इस केस ने एज ऑफ कंसेंट एक्ट, 1891 के पारित होने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस एक्ट ने तहस विवाहित या अविवाहित लड़कियों से शारीरिक संबंध बनाने की उम्र को 10 साल से बढ़ाकर 12 साल किया गया। इस अधिनियम में पहली बार 10 साल से कम उम्र की लड़की चाहे वह विवाहित ही हो, उसके साथ यौन संबंध बनानेवाले के लिए सज़ा का प्रावधान किया गया।
शादी खत्म होने के बाद रखमाबाई ने लंदन स्कूल ऑफ़ मेडिसिन फॉर वीमेन से डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी की। इसके बाद रखमाबाई ने ब्रसेल्स से अपनी एमडी पूरी की और भारत की पहली महिला एमडी और प्रैक्टिस करने वाली डॉक्टर बनीं। भारत लौटकर रखमाबाई सूरत के एक अस्पताल में काम करने लगीं जहां वह 35 सालों तक चीफ मेडिकल ऑफिसर रहीं। उन्होंने अपना पूरा जीवन महिलाओं और बाल अधिकारों के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने दोबारा कभी शादी नहीं की और 25 सिंतबर 1955 को 91 साल की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई। रखमाबाई पर मोहिनी वर्दे ने डॉ. रखमाबाई: एन ओडिसी नामक किताब लिखी। साल 2016 में अनंत नारायण महादेवन के निर्देशन में उनके जीवन पर ‘डॉक्टर रखमाबाई‘ नामक एक फिल्म भी बनाई गई थी।
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