क्या आपको मृच्छकटिक (एक संस्कृत नाटक) का बांग्ला में अनुवाद करने वाली महिला याद है ? वह महिला सुकुमारी भट्टाचार्य थीं। सुकुमारी भट्टाचार्य की धर्मनिरपेक्षता और भाषा के लगभग सभी क्षेत्रों में उनकी भागीदारी, विभिन्न शाखाओं में उनकी दार्शनिक समझ ही उन्हें अपने समय की सबसे महान हस्तियों में से एक बनाती है। सुकुमारी भट्टाचार्य का जन्म 12 जुलाई, 1921 को मिदनापुर में हुआ था। उन्हें एक इंडोलॉजिस्ट के रूप में जाना जाता है, लेकिन उनकी पहचान सिर्फ इस एक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है। प्राचीन भारत में महिला और समाज (1994), लेजेंड्स ऑफ देवी (1995) उन्हीं की लिखी किताबें हैं। उन्हें कई भाषाओं का ज्ञान था। उन्हें बांग्ला, संस्कृत, अंग्रेज़ी, जर्मन, फ्रेंच, पाली जैसी कई भाषाएं आती थीं। सुकुमारी भट्टाचार्य ने प्राचीन काल के समाज में महिलाओं की स्थिति की जांच करने के लिए शास्त्रों पर सवाल उठाने का साहस किया था। बता दें कि भारत के इतिहास, संस्कृति, भाषाओं और साहित्य का अकादमिक अध्ययन करने वाले लोग इंडोलॉजिस्ट कहलाते हैं।
सुकुमारी भट्टाचार्य का नाम सुकुमारी दत्ता था। उन्होंने धर्म परिवर्तन करके ईसाई धर्म को अपनाया था। उन्होंने सेंट मार्गरेट स्कूल से अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की थी। इसके बाद उन्होंने विक्टोरिया कॉलेज से स्नातक की पढ़ाई पूरी की थी। उस दौर में उन्हें प्रेसीडेंसी कॉलेज, कलकत्ता में दाखिला नहीं मिला था क्योंकि उन दिनों लड़कियों को वहां दाखिला लेने की इजाज़त नहीं थी। बचपन से ही, उनकी मां संताबाला दत्ता ने उन्हें मुखर होना सिखाया था। उनके पिता सरस्वती कुमार दत्ता ने इतिहास, दर्शन, साहित्य और विभिन्न भाषाओं में उनकी रुचि विकसित की थी।
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सुकुमारी भट्टाचार्य के स्कूल के दिनों की एक यादगार घटना है जब उसे ‘गर्ल गाइड प्रॉमिस’ का पालन करने के लिए कहा गया था, लेकिन उन्होंने इसे मानने से साफ इनकार कर दिया। ‘द गर्ल गाइडट प्रॉमिस’ देश के शासकों के पक्ष में लिया गया संकल्प था। यह देखते हुए कि उस समय भारत किस तरह से ब्रिटिश शासन के अधीन था, सुकुमारी भट्टाचार्य कभी भी ब्रिटिश शासकों के सामने नहीं झुक सकती थीं। उनकी देशभक्ति, नास्तिक दर्शन, आत्मसम्मान की भावना और सबसे बढ़कर, शिक्षाविदों के साथ उनके बहुआयामी जुड़ाव उनके व्यक्तित्व को औरों से अलग बनाते थे। उनका जीने का तरीका रवींद्रनाथ टैगोर से प्रेरित माना जाता है। सुकुमारी भट्टाचार्य एक मेधावी छात्रा थीं। संस्कृत ऑनर्स में प्रथम रैंक होने के बावजूद, कलकत्ता विश्वविद्यालय ने उन्हें ईशानचंद्र घोष स्मारक छात्रवृत्ति नहीं दी गई क्योंकि यह छात्रवृत्ति केवल हिंदू धर्म से संबंधित लोगों को ही दी जाती थी। तभी उन्होंने अंग्रेजी में मास्टर्स किया और वह लेडी ब्रेबोर्न कॉलेज में अंग्रेजी की प्रोफेसर बन गईं।
सुकुमारी भट्टाचार्य को एक इंडोलॉजिस्ट के रूप में जाना जाता है, लेकिन उनकी पहचान सिर्फ एक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है। प्राचीन भारत में महिला और समाज (1994), लेजेंड्स ऑफ देवी (1995) उन्हीं की लिखी किताबें हैं। उन्हें कई भाषाओं का ज्ञान था। उन्हें बंगाली, संस्कृत, अंग्रेज़ी, जर्मन, फ्रेंच, पाली जैसी कई भाषाएं आती थीं।
सुकुमारी भट्टाचार्य ने प्रोफेसर अमल भट्टाचार्य से शादी की थी, जो कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में अंग्रेज़ी पढ़ाते थे। वह अपने शुरुआती दिनों से ही वामपंथी राजनीतिक विचारधारा में विश्वास रखती थीं। वह वैदिक साहित्य का गहन अध्ययन करती थीं। उन्होंने वैदिक संहिता, आरण्यक और उपनिषदों के उदाहरणों का हवाला देते हुए यह साबित किया कि महिलाओं को पुरुषों की तरह समान दर्जा प्राप्त नहीं था।
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सुकुमारी भट्टाचार्य ने पाया कि कई शास्त्र पूर्वाग्रहों से भरे हुए थे और महिलाओं को समान अधिकारों से वंचित करते थे। शास्त्रीय साहित्य, शास्त्रों, वेदों और उपनिषदों के प्रति उनके लगाव ने उन्हें आधिकारिक तौर पर संस्कृत के क्षेत्र में वापस ला दिया। साल 1954 में उन्होंने संस्कृत में मास्टर्स किया। एक ऐसा विषय जिसके बारे में वह भावुक थीं और इस क्षेत्र में उत्कृष्ट थीं। जाने-माने बुद्धिजीलि बुद्धदेव बसु ने उन्हें जादवपुर विश्वविद्यालय, कोलकाता में तुलनात्मक साहित्य पढ़ाने के लिए आमंत्रित किया। सुकुमारी भट्टाचार्य ने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और वहां पढ़ाने लगीं। साल 1964 में, उन्हें अपनी पीएचडी की पढ़ाई की और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय ने उन्हें साल 1966-1967 तक क्लेयर हॉल फेलोशिप से नवाज़ा। जादवपुर विश्वविद्यालय के दिग्गजों में से एक, प्रोफेसर सुशील कुमार डे ने उन्हें संस्कृत विभाग में लेकर आए और इस तरह उन्होंने साल 1986। अपने रिटायरमेंट तक विश्वविद्यालय में संस्कृत पढ़ाया।
सुकुमारी भट्टाचार्य के स्कूल के दिनों की एक यादगार घटना है जब उसे ‘गर्ल गाइड प्रॉमिस’ का पालन करने के लिए कहा गया था, लेकिन उन्होंने इसे मानने से साफ इनकार कर दिया। ‘द गर्ल गाइडट प्रॉमिस’ देश के शासकों के पक्ष में लिया गया संकल्प था। यह देखते हुए कि उस समय भारत किस तरह से ब्रिटिश शासन के अधीन था, सुकुमारी भट्टाचार्य कभी भी ब्रिटिश शासकों के सामने नहीं झुक सकती थीं।
सुकुमारी भट्टाचार्य धर्म के ढोंग और विकृतियों के खिलाफ थीं। बंगाली भाषा में अपनी एक किताब, बिबाहो प्रोसॉन्ग (विवाह के मुद्दे पर) में उन्होंने अपने पति के चयन के संबंध में महिलाओं की स्वतंत्रता के बारे में स्पष्ट रूप से बात की है। उन्होंने हमेशा यह जानने की कोशिश की है कि कैसे नैतिकता और धर्म के नाम पर पितृसत्तात्मक समाज ने महिलाओं की स्वतंत्रता को छीन लिया है और उनके अधिकारों से उन्हे वंचित कर दिया गया है। उनकी राय में, सभ्यता के विकास में महिलाओं का योगदान का बहुत बड़ा है। उन्होंने बार-बार महिलाओं की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सम्मानजनक जीवन जीने के उनके अधिकार के बारे में बात की। साल 2014 में उनका निधन हो गया। प्राचीन काल से महिलाओं की स्थिति का विश्लेषण करते हुए और उन्हें स्वतंत्रता के नए रास्ते दिखाते हुए उन्होंने महिलाओं के जीवन में एक नया सवेरा पैदा किया है।
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