क्या वाकई में आज़ाद भारत में महिलाओं के पास वह आज़ादी और अधिकार हैं जिसकी वे हकदार हैं? आइए, इस स्वतंत्रता दिवस के मौके पर एक नज़र डालते हैं आज़ाद भारत में महिलाओं की स्थिति पर।
महिलाएं और जातिगत हिंसा
1 अगस्त को दक्षिण-पश्चिम दिल्ली के ओल्ड नांगल गांव में एक नौ साल की दलित बच्ची का ब्लात्कार किया गया। इस घटना के कुछ दिनों बाद ही दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाके में एक छह साल की दलित बच्चा का रेप किया गया। ये कोई पहली घटना नहीं है। बीते साल 14 सिंतबर को उत्तर प्रदेश के हाथरस जि़ले में एक दलित युवती का उच्च जाति के पुरुषों ने गैंगरेप किया था। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक हर दिन भारत में 10 दलित महिलाओं का बलात्कार होता है। इतना ही नहीं, भारतीय महिला हॉकी टीम की खिलाड़ी वंदना कटारिया के परिवार को ओलंपिक के दौरान जातिगत गालियों का सामना करना पड़ा।
महिलाएं और रोज़गार
भारत में समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976 के तहत समान काम के लिए समान वेतन का कानून मौजूद है। यानि एक जैसे काम के लिए महिलाओं और पुरुषों को समान वेतन दिया जाना चाहिए। फिर भी महिलाओं को उनके जेंडर के आधार पर ही वेतन दिया जाता है। महिलाओं के साथ यह स्थिति संगठित और असंगठित दोंनो ही क्षेत्रों में है। मसलन, द क्विंन्ट की साल 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारतीय क्रिकेट खिलाड़ियों की सर्वोच्च श्रेणी ए+ के अनुसार महिला क्रिकेट टीम की कप्तान मिताली राज 50 लाख प्रति वर्ष कमा रही थीं जबकि उसी श्रेणी में पुरुष क्रिकेट टीम के कप्तान विराट कोहली की वार्षिक आय 7 करोड़ रुपए थी। ऑक्सफैम इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2011-12 में महिलाओं को औसतन समान काम करने के लिए पुरुष श्रमिकों के जैसी योग्यता होने के बावजूद उनकी तुलना में 34 प्रतिशत कम भुगतान किया गया।
भारतीय राजनीति में महिलाओं की भागीदारी
आज भी संसद में सिर्फ 14.4% ही महिलाओं की भागीदारी है। संसद में महिलाओं के लिए 33% सीटों के आरक्षण बिल को पेश किए हुए 25 साल हो गए हैं, लेकिन इसे अभी भी पारित किया जाना बाकी है। बात भारत की राजनीतिक परिदृश्य की करें तो, साल 1963 से देश में केवल 16 महिलाएं मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। देश आजतक केवल एक महिला प्रधानमंत्री के शासन अधीन रहा है। लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में अधिकार होने, भाग लेने और अपनी क्षमताओं के बावजूद महिलाओं को राजनीतिक भागीदारी से वंचित रखा जाता है।
महिलाएं और सोशल मीडिया
हाल ही में Github ऐप जो कि एक ओपन सोर्स प्लैटफॉर्म है, वहां ‘सुल्ली डील्स’ नाम से मुस्लिम लड़कियों की बोली लगाई जा रही थी। इसमें मुस्लिम लड़कियों की बिना इजाज़त तस्वीरें और ट्विटर अकाउंट साझा किए गए थे। इस लिस्ट में पत्रकार और एक्विस्ट भी शामिल थीं। महिलाएं, उसमें भी दलित, बहुजन, आदिवासी महिलाओं की पहुंच इंटरनेट तक बेहद सीमित है। अगर वे सोशल मीडिया पर मौजूद भी हैं तो उन्हें कई गुना अधिक ट्रोलिंग का सामना करना पड़ता है।
एमनेस्टी की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में महिला नेताओं को न केवल उनकी राय के लिए बल्कि जेंडर, धर्म-जाति, और उनके वैवाहिक स्टेट्स तक को भी निशाना बनाया गया है। रिपोर्ट बताती है कि 55.5% मुस्लिम महिलाएं अन्य धर्म की महिला नेताओं से ज्यादा ट्विटर पर नस्लभेद और धार्मिक कट्टरता का सामना करती हैं। सवर्ण जाति के मुकाबले दलित, बहुजन महिला नेताओं को 59% ज्यादा हिंसक जातिसूचक ट्रोलिंग का सामना करना पड़ता है।
महिलाएं और शिक्षा
राइट टू एजुकेशन फोरम पॉलिसी के मुताबिक, वर्तमान में 11 से 14 साल के उम्र की 16 लाख लड़कियां स्कूल पढ़ ही नहीं रही है। इस रिपोर्ट ने महिला साक्षरता दर में भारी असमानताओं को भी इंगित किया गया है। इसी के साथ इंफ्रस्ट्रक्चर के मुद्दे और दूर इलाकों में स्थित स्कूल ही लड़कियों की उच्च शिक्षा प्राप्त ना कर पाने के कारण हैं। शिक्षा का अधिकार अधिनियम के लागू होने के लगभग एक दशक बाद भी आंकड़ों से पता चला है कि 15-18 वर्ष की आयु की लगभग 40% लड़कियां स्कूल नहीं जा रही हैं। इसी के साथ आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों की 30% लड़कियों ने कभी क्लास में पैर तक नहीं रखा है। इसी के साथ कोविड-19 के दौर में एससी/एसटी और मुस्लिम लड़कियों के नामांकन में भारी गिरावट आई है।
महिलाएं और घरेलू हिंसा
भारत में घरेलू हिंसा की जड़े व्यापक और गहरी हैं। राष्ट्रीय महिला आयोग के आंकड़ों के अनुसार, घरेलू हिंसा की शिकायतों की संख्या साल 2019 में 2,960 से बढ़कर साल 2020 में 5,297 हो गई है। लॉकडाउन के एक साल के बाद भी, एनसीडब्ल्यू को महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा की हर महाने 2000 से अधिक शिकायतें मिलती हैं, जिनमें से एक-चौथाई शिकायतें घरेलू हिंसा से जुड़ी होती हैं। एनसीडब्ल्यू के आंकड़ों के मुताबिक, जनवरी 2021 से 25 मार्च 2021 तक महिलाओं के होने वाली घरेलू हिंसा की 1,463 शिकायतें मिली है।