स्वास्थ्यशारीरिक स्वास्थ्य महिला का आठ बार ज़बरन अबॉर्शन लैंगिक समानता का खोखला सच है|नारीवादी चश्मा

महिला का आठ बार ज़बरन अबॉर्शन लैंगिक समानता का खोखला सच है|नारीवादी चश्मा

क़ानून बनने मात्र से अपने समाज में कोई बदलाव नहीं आएगा, क्योंकि आज भी लोगों की सोच में पितृसत्ता की पैठ बेहद गहरी है।

बेटा-बेटी एकसमान।

अब लड़का-लड़की में कोई भेदभाव नहीं होता।’

‘बेटी पैदा हो या बेटा लोग अब दोनों पर समान ध्यान देते है।’

लड़का-लड़की से जुड़ी लैंगिक समानता की ऐसी कई बातें आपने भी सुनी होगी। बदलती सरकारें हो या आधुनिक परिवार हर वैचारिकी में लैंगिक भेदभाव न होने का संदेश दिया जाता है। पितृसत्तात्मक सोच वाले अपने समाज का मूल हमेशा से पुरुष की सत्ता क़ायम करना रहा है। सारे विशेषाधिकारों से लैस पुरुष के सामने महिलाओं को दास की स्थिति में रखा गया, उनकी भूमिकाएँ और अधिकारों को भी इस वैचारिकी के अंतर्गत मालिक और दास के समीकरण के अनुसार की डिज़ाइन किया गया है। समय के साथ हुए बदलाव में शिक्षा और आधुनिकीकरण के इस दौर में बेशक महिलाओं को पुराने जमाने की दासता से कुछ हद तक मुक्ति मिली है। लेकिन सच्चाई ये है कि अभी भी ये सारी हदें बेहद सीमित है। भले ही अब महिलाओं ने समाज के अलग-अलग क्षेत्रों में अपनी सक्रिय भागीदारी करना शुरू कर दी है, लेकिन अभी भी वंश बढ़ाने और उत्तराधिकार को लेकर समाज की सोच जस की तस। बेटों की चाह में कई बार महिलाओं के साथ होने वाली ऐसी वीभत्स घटनाएँ सामने आती है, जो फिर से समाज में महिलाओं की दासता भरी स्थिति की ओर इशारा करती हैं।

हाल ही में, मुंबई के दादर इलाक़े की एक घटना सामने आयी, जिसमें चालीस वर्षीय एक महिला ने पुलिस में अपने पति के ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज कराई। महिला ने अपने पति पर आरोप लगाया कि ‘पति ने बेटे की चाह में जबरदस्ती महिला का आठ बार अबॉर्शन करवाया। इतना ही नहीं, महिला को 1500 से ज्यादा हार्मोनल और स्टेस्टेरॉयड के इंजेक्शन भी लगवाए।

क़ानून बनने मात्र से अपने समाज में कोई बदलाव नहीं आएगा, क्योंकि आज भी लोगों की सोच मेंपितृसत्ता की पैठ बेहद गहरी है।

शी द पीपल में प्रकाशित खबर के अनुसार, महिला के पिता रिटायर्ड जज थे। माता-पिता ने पेशे से वकील लड़के के साथ अपनी बेटी की धूमधाम से शादी की। लड़के की बहन पेशे से डॉक्टर है। महिला ने आरोप लगाया कि शादी के कुछ साल बीतते ही पति ने उसके साथ बुरी तरह मारपीट शुरू कर दी। पति हमेशा महिला पर ये दबाव बनाता रहा कि उसे बेटा चाहिए, जो आगे चलकर उसकी प्रॉपर्टी सँभालेगा। इसलिए लड़के की चाहत में महिला का जबरदस्ती आठ बार अबॉर्शन करवाया गया।‘

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महिला ने बताया कि साल 2009 में उसने एक बेटी को जन्म दिया। साल 2011 में वो दोबारा प्रेगनेंट हुई, तब उसका पति उसे डॉक्टर के पास ले गया और ज़बरन उसका अबॉर्शन करवा दिया। आरोप है कि पति हर बार महिला पर ये दबाव बनाता था कि वह कहे कि ‘उसे ये बच्चा नहीं चाहिए।‘ इसके बाद से महिला पर उत्पीड़न बढ़ता चला गया और उसके पति ने मुंबई में महिला का ट्रीटमेंट शुरू करवा दिया। महिला ने ये भी आरोप लगाया कि उसका पति उसे ‘प्री-इम्प्लांटेशन जेनेटिक डायग्नोसिस’ के लिए ज़बरन बैंकॉक भी लेकर गया। बिना सहमति के उसका ‘ट्रीटमेंट’ भी शुरू कर दिया। एम्ब्रियो को महिला के यूट्रस में इम्प्लांट करने से पहले उसका लिंग पता किया गया। इस तथाकथित ट्रीटमेंट के दौरान रानी को 1500 से ज़्यादा हार्मोनल और स्टेरॉयड के इंजेक्शन भी लगाए गए।

मुंबई देश के सबसे आधुनिक शहरों में से एक है। दिन-रात भागती-दौड़ती मुंबई को इसकी रफ़्तार और आधुनिकता के लिए जाना जाता है। पर दुर्भाग्यवश भले ही इस शहर को आधुनिकता का जामा पहनाया गया है लेकिनपितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था की सोच को अभी दूर नहीं किया जा सका है। ये सिर्फ़ एक शहर की बात नहीं है, बल्कि ये अपने पूरे समाज की बात है। वो समाज जो आज भी लड़के को अपने उत्तराधिकार और वंश आगे बढ़ाने के लिए ज़रूरी मानता है। ऐसा नहीं है कि अपने समाज की इस संकीर्ण सोच को बदलने के लिए कोई उपाय नहीं किया गया। देश के सर्वोच्च न्यायालय ने सम्पत्ति में बेटा-बेटी दोनों को बराबर का अधिकार दिया है, लेकिन इसके बावजूद बेटे की चाह में महिलाओं के साथ होने वाली ये हिंसाएँ बताती है कि क़ानून बनने मात्र से अपने समाज में कोई बदलाव नहीं आएगा, क्योंकि आज भी लोगों की सोच मेंपितृसत्ता की पैठ बेहद गहरी है।

ग़ौरतलब है कि मुंबई की ये घटना एक पढ़े-लिखे परिवार की है और वो भी एक वकील की। ये पूरी घटना सीधेतौर पर हमारी शिक्षा और सामाजिक व्यवस्था पर सवाल खड़े करती है। वो लोग जिनपर क़ानून को आमजन तक पहुँचाने का दायित्व है जब वे खुद उन अधिकारों को नज़रंदाज़ कर महिला हिंसा करने लगे तो ये समाज के लिए अलार्मिंग स्थिति बन जाती है, जिसपर रोक लगाना बेहद ज़रूरी है। अब हमें अच्छे से समझ लेना चाहिए कि बेटा-बेटी एकसमान वाले नारे लगाने या फिर लैंगिक-समानता की बड़ी-बड़ी बातें करने से कभी कोई बदलाव नहीं आएगा। इसके लिए हमें लैंगिक-समानता के मूल्यों और हर इंसान के मौलिक अधिकारों को सुरक्षित करना बेहद ज़रूरी है।

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तस्वीर साभार: US News

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