बारहवीं कक्षा में राजनीतिक विज्ञान पढ़ रही सुधा (बदला हुआ नाम) अभी दुनिया को जानने-समझने की कोशिश में जुटी थी। अलग-अलग विचारधाराओं को पढ़कर उन्हें व्यावहारिक रूप से आस-पास के परिवेश में, दुनियाभर में ढलते देख रही थी। बचपन से मां-बाप उसे एक होनहार बच्ची के रूप में पाल रहे थे और ‘आदर्श बेटी’ बनने की राह में वह सफ़ल भी हो रही थी। बारहवीं के बाद जब वह दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रसिद्ध कॉलेज में पढ़ने गई तो स्थिति बदलने लगी। उसने महसूस किया कि अभी तक जो कुछ उसे सिखाया जा रहा था वास्तविकता उससे कुछ अलग ही थी। उसने धारणाओं को अपने अंदर समाहित कर लेने के बजाए, उन पर सवाल करना शुरू किया तो फिर शुरू हुआ मां-बाप और सुधा के बीच तनाव।
छुट्टियों में जब वह घर आई तो किसी राजनीतिक मुद्दे पर अपने पिता से सवाल करने लगी। उनके तर्कों को काटते हुए जब उसने अपने तर्क दिए तो उसके पिता ने उस पर पानी का गिलास फेंककर मारा। तब से लेकर आज तक पांच वर्ष बीत गए हैं लेकिन सुधा अभी भी इस घटना को भूल नहीं पाई है और अब घर में चल रही सभी राजनीतिक बहसों से ख़ुद को अलग रखने की कोशिश करती है।
यह कहानी सिर्फ़ सुधा की नहीं है बल्कि हर घर में किसी न किसी मुद्दे पर बच्चों और माता-पिता में विचारधाराओं के भेद के कारण बहस होती होगी। यह सामान्य है। हम सब सीखने और सीखे हुए को भुलाने की प्रक्रिया में जीते हैं। बात करना, विचार-विमर्श करने में कुछ गलत नहीं है, लेकिन बात यहां पर आकर रुकती है कि यह बहसें क्या कुछ जानने-समझने की इच्छा से की जाती हैं या अपने विचारों को थोपने की? मां-बाप और बच्चों का रिश्ता दुनिया का सबसे पवित्र और कोमल रिश्ता माना जाता है पर एक परिवार में रहकर हर समय हर बात पर सहमति तो नहीं दर्ज की जा सकती न? विचारधाराओं की इसी असहमति के चलते मां-बाप और बच्चों के बीच तनाव के बादल घिर जाते हैं। यह तनाव कभी-कभी छोटी-मोटी बातों पर चिढ़ से लेकर बड़े राजनीतिक, सामाजिक मुद्दों पर भेद के रहते लंबे समय तक बढ़ता रहता है।
जेनरेशन गैप
मां-बाप और बच्चों के बीच तनावों के कारणों का उल्लेख करना शुरू करें तो उसका सबसे बड़ा कारण जेनरेशन गैप है। हर नई पीढ़ी अपनी पुरानी पीढ़ी से ज़्यादा आधुनिक और सजग होती है। दोनों का परिवेश और पालन-पोषण अलग-अलग तरीके से किया जाता है इसलिए दोनों के बीच सामाजिक मुद्दों पर मतभेद होना आम है। कुछ बच्चे विरोध करना सीख लेते हैं और कुछ चुप-चाप सब सहते जाते हैं। इससे माता-पिता और बच्चों, दोनों के मानसिक स्वास्थ्य पर भी प्रभाव पड़ता है।
रूढ़िवादी और पितृसत्तात्मक कंडीशनिंग के पीछे शक्ति संरचना को समझ लेने वाले बच्चे जब रूढ़ मानसिकताओं पर सवाल करते हैं तो अकसर माँ-बाप ‘ज़्यादा पढ़ने-लिखने’ को इसका कारण बता देते हैं।
रूढ़िवादी और पितृसत्तात्मक कंडीशनिंग के पीछे शक्ति संरचना को समझ लेने वाले बच्चे जब रूढ़ मानसिकताओं पर सवाल करते हैं तो अकसर मां-बाप ‘ज़्यादा पढ़ने-लिखने’ को इसका कारण बता देते हैं। सुधा को भी यही कहा गया। उस जैसे सैंकड़ों बच्चों को यही कहा जाता है पर अपनी विचारधाराओं और मान्यताओं के कम्फर्ट ज़ोन में बैठे हमारे मां-बाप के लिए इस बात को मान पाना मुश्किल होता है कि उनका बच्चा उनसे सवाल कर रहा है। अपनी परंपराओं और धार्मिक मान्यताओं को मानने से इनकार कर रहा है/रही है। मेरी मां प्रोग्रेसिव मां होने का दावा करती हैं और कहती हैं कि लड़कियों को आज़ाद घूमना चाहिए पर खुद मुझ पर शाम सात बजे के बाद बाहर रहने से, अकेले कहीं घूमने जाने पर, अपनी पसंद के कपड़े पहनने पर रोक लगाती हैं। ऐसे में सवाल यह खड़ा होता है कि दुनिया के आगे आधुनिक बनते हम, क्या अपनी निजी जिंदगियों में उन प्रगतिशील विचारों का पालन करते हैं या प्रगतिशीलता मात्र ट्रेंड में है इसलिए कह दिया जाता है?
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अपनी विचारधाराओं और मान्यताओं के कम्फर्ट ज़ोन में बैठे हमारे मां-बाप के लिए इस बात को मान पाना मुश्किल होता है कि उनका बच्चा उनसे सवाल कर रहा है। अपनी परंपराओं और धार्मिक मान्यताओं को मानने से इनकार कर रहा है/रही है।
‘जो मैं बोलूं, वही सही है’
अपने विचारों में विश्वास बनाए रखना और उन पर दृढ़ रहने में कुछ ग़लत नहीं है लेकिन दृढ़ता के साथ यदि अन्य विचारों को सुनने की इच्छा, उन्हें समझने के यदि आप में लचीलापन न हो तो वह दृढ़ता नकारात्मक रूप ले लेगी और आपको कभी विकसित नहीं होने देगी। मां-बाप और बच्चों के बीच तनाव का दूसरा सबसे बड़ा कारण यह जड़ता है। वे बस टिके रहना चाहते हैं, अपने विचारों पर अपनी बात पर। दोनों ही दूसरे का पक्ष सुनने को तैयार नहीं होते लेकिन तनाव के बादल तब बढ़ते हैं जब यह विचार एक पीढ़ी, दूसरी पर थोपने लग जाती है। क्या अपने विचार दूसरों पर थोपने से वह उसका पालन करने लग जाएंगे? नहीं, इससे बच्चे और विद्रोही बनते हैं और इसके लक्षण मां-बाप और बच्चों के बीच बिखरते रिश्तों में दिखने लगते हैं।
व्यक्तिगत ज़िंदगियां, समय की कमी
मेरे मां-बाप दोंनो नौकरी करते हैं। नौकरी करके उन्होंने मुझे अच्छे स्कूल में पढ़ाया है। मैंने अपनी ज़िंदगी की ज़्यादातर चीज़ें ख़ुद से ही सीखी हैं। यहां तक कि जब पहली बार मेरे पीरियड्स आए थे, मैं अनजान थी कि अब मुझे करना क्या है? मुझे याद है एक बार जब मैं साईकल से गिर गई थी और मुझे बहुत चोट लगी थी, खून आ रहा था पर मेरे मां और पिता जी अपने फ़ोन पर व्यस्त थे। एक घंटे तक मेरे ज़ख्म को किसी ने साफ़ नहीं किया था। ऐसे छोटी-छोटी बातों के कारण मेरे मन में उनके लिए कुछ खटपट उपजने लगी जो धीरे-धीरे हमारे बीच तनाव को बढ़ाती रही। आजतक यही सवाल मैं बार-बार उनसे करती हूं कि यदि मेरी ज़रूरत के समय मुझे समय नहीं दिया तो अब मुझ पर बात-बात पर रोक क्यों लगाई जाती है? कभी-कभी मां-बाप काम के चलते बच्चों पर ध्यान नहीं देते। उनकी ज़रूरतों पर भी नहीं, जिससे छोटी उम्र में, खासकर किशोरावस्था में तनाव की स्थिति पैदा होती है।
ऐसे कितने ही कारण हैं इन दो वर्गों के बीच तनाव के। सभी कारणों में मुख्य बिंदु मुझे यही लगता है कि सब अपने तरीके से सोचते हैं और वैसे ही जीना चाहते हैं। कोई भी किसी के जूतों में घुसकर देखना नहीं चाहता कि उसे उस जूते में कैसे लगता है। अगर दोनों तरफ़ से थोड़ा धैर्य और समझने की कोशिश की जाए, तो रिश्तों में सुधार की असीम सम्भावनाएं हैं।
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तस्वीर साभार : youngisthan