महिला हिंसा, महिला अधिकार, लैंगिक समानता या अन्य सामाजिक व्यवस्थाओं के बारे में चर्चा करते हुए कभी न कभी आपने पितृसत्ता के बारे में ज़रूर सुना होगा। यह एक ऐसी विचारधारा है जो समाज में महिला-पुरुष के बीच ग़ैर-बराबरी को सदियों से बनाए हुए है। पितृसत्ता अंग्रेजी शब्द पैट्रियार्की का हिंदी अनुवाद है| अंग्रेजी में यह शब्द दो यूनानी शब्दों पैटर और आर्के को मिलाकर बना है| पैटर का मतलब है – पिता और आर्के का मतलब है – शासन| यानी कि ‘पिता का शासन|’ पीटर लेसलेट ने अपनी किताब ‘द वर्ल्ड वी लॉस्ट’ में औद्योगिकीकरण से पहले के इंग्लैण्ड के समाज की परिवार-व्यवस्था की पहली ख़ासियत उसका पितृसत्तात्मक होना बताया है| भारत में इस तरह की परिवार-व्यवस्था (संयुक्त परिवार) आज़ादी के बाद काफी सालों तक बनी रही|
पितृसत्ता जेंडर असमानता की जड़ है। पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था में पुरुष को महिला से बेहतर और ऊँचा माना जाता है। इस व्यवस्था में फ़ैसले लेने का अधिकार और संसाधनों पर पुरुषों का ज़्यादा नियंत्रण होता है। पितृसत्ता की तरफ़ से पुरुषों को दिए गए अधिकार और नियंत्रण को समझे बिना हम इस व्यवस्था से सींचे जाने वाली जेंडर आधारित ग़ैर-बराबरी को नहीं समझ सकते है, तो आइए चर्चा करते है पितृसत्ता के अंतर्गत उन तरीक़ों के बारे में जिनपर पुरुषों का नियंत्रण होता है और जिससे उनकी सत्ता को लगातार मज़बूती मिलती है।
1- ‘आमदनी पर पुरुषों का क़ब्ज़ा’ और मज़बूत होती पितृसत्ता
घर के पूरे काम की ज़िम्मेदारी महिलाओं के कंधों पर होती है, लेकिन उन कामों का उन्हें कोई पैसा नहीं मिलता। वहीं पुरुष जब इन्हीं कामों को बाहर करते है तो उसका इन्हें पैसा मिलता है। साथ ही, पुरुषों का घर का काम करना भी छोटी या शर्म की बात समझी जाती है। अगर पुरुष घर में झाड़ू लगाता है तो ये शर्म की बात कही जाती है लेकिन जैसे ही वो पुरुष सड़कों पर झाड़ू लगाता है, जिसके उसे पैसे मिलते है तो इससे कोई दिक़्क़त नहीं होती। मज़दूरी पर जाने वाली महिलाओं को भी अक्सर पुरुषों की अपेक्षा कम भुगतान किया जाता है। दूसरी तरफ़, जब कोई महिला प्रधान बनती है तो अधिकतर उनके पति ही सारा काम करते है और अगर महिला प्रधान खुद कोई काम करती है तो उसके काम को पुरुष प्रधान की अपेक्षा कम महत्व दिया जाता है। इस तरह पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था में आमदनी पर पुरुषों का नियंत्रण होता है जो उनके वर्चस्व को क़ायम रखता है।
2- ‘प्रजनन का ज़िम्मा महिलाओं पर’ और मज़बूत होती पितृसत्ता
शादी किसी भी इंसान का व्यक्तिगत फ़ैसला है। लेकिन पितृसत्ता इस फ़ैसले को स्वीकार नहीं करती ख़ासकर जब बात महिलाओं के संदर्भ में हो तो। शादी होगी, नहीं होगी, कब होगी, कैसे होगी और किसके साथ होगी – ये सारे फ़ैसले पुरुष लेते है। इसके बाद जब बात आती है तो प्रजनन की तो गर्भनिरोधकों की ज़िम्मेदारी महिलाओं की होती है। यौनिक संबंध बनाने का अधिकार पुरुषों का होता है, लेकिन बच्चा न ठहरे इसकी ज़िम्मेदारी महिलाओं की होती है और अगर बच्चा हुआ तो उसकी ज़िम्मेदारी भी महिला के हिस्से होती है। इतना ही नहीं, अगर सिर्फ़ बेटी पैदा हो तो इसके लिए भी महिलाओं को दोषी माना जाता है और अगर गर्भ ठहरने में दिक़्क़त होतो ये भी ज़िम्मा महिलाओं के हिस्से ही जाता है। इस तरह प्रजनन में पुरुषों का वर्चस्व और नियंत्रण होता है, जिसमें उनके हिस्से सुख-संतुष्टि और महिलाओं के हिस्से ज़िम्मेदारी होती है।
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3- परिवार का मुखिया ‘पुरुष’ और मज़बूत होती पितृसत्ता
किसी भी समाज में परिवार पहली इकाई होती है, जो पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था की एक प्रभावी संस्था भी है। परिवार में मुखिया हमेशा पुरुष होता है, जो परिवार की महिलाओं और अन्य छोटे-बड़े सदस्यों पर अपना नियंत्रण रखता है। पुरुषों का ये नियंत्रण परिवार में महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा नीचे का स्थान देता है, जो परिवार से ही ग़ैर-बराबरी के बीज को बढ़ावा देता है।
ग़ैर-बराबरी को दूर करने के लिए ज़रूरी है कि पितृसत्ता में नियंत्रण के इन तरीक़ों पर अपनी समझ मज़बूत की जाए तभी इन्हें ख़त्म करने की दिशा में काम कोई प्रभावी कदम संभव होगा।
4- महिलाओं की यौनिकता पर पुरुषों का वर्चस्व और मज़बूत होती पितृसत्ता
पितृसत्तात्मक समाज में महिला की जीवनशैली, यौन सुख और उनके फ़ैसलों पर पुरुषों का वर्चस्व होता है। महिला किससे मिलेंगीं, किसके साथ संबंध रखेंगीं, उनके कपड़े, रिश्ते और व्यवहार पर पुरुष अपना नियंत्रण बनाए रखते है, जो पुरुष और महिला के बीच ग़ैर-बराबरी वाले दास और मालिक के रिश्ते को क़ायम रखती है।
5- महिला गतिशीलता पर पुरुषों का शिकंजा और मज़बूत होती पितृसत्ता
रात में औरत बाहर नहीं जा सकती। उसे कहीं भी बाहर किसी पुरुष के साथ ही जाना चाहिए। उन्हें अकेले सफ़र नहीं करना चाहिए। महिलाओं को पर्दे में रखना, घर के अंदर रखना या फिर किसी भी नए लोगों के मिलने पर रोक ये सभी महिलाओं की गतिशीलता पर पुरुषों के शिकंजे को दर्शाते है। ज़ाहिर है गतिशीलता किसी भी प्रगति के लिए ज़रूरी है और जब इसे नियंत्रित किया जाता है तो महिलाओं का विकास भी सीधेतौर पर बाधित होने लगता है।
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6- शिक्षा पर पुरुष-वर्चस्व और मज़बूत होती पितृसत्ता
बचपन से ही बच्चों की किताबों में महिलाओं को घर का काम करते और पुरुषों को बाहर जाकर पैसे कमाते हुए दर्शाया जाता है, ऐसा इसलिए क्योंकि ये किताबें पुरुषों के द्वारा लिखी गयी। इसलिये ये उनके नज़रिए को दर्शाती है। चिकित्सा, विज्ञान, राजनीति, पुलिस और यहाँ तक कि मीडिया में भी पुरुषों का वर्चस्व इस तरह क़ायम है कि ये सभी पदनाम भी पुरुष को ध्यान में रखकर बनाए गए। ज़्यादातर किताबें पुरुषों द्वारा लिखी गयी गयी, इस तरह शिक्षा में पुरुष-वर्चस्व, पितृसत्ता को मज़बूत करने में अहम भूमिका निभाता है।
7- संपत्ति पर पुरुषों का एकाधिकार और मज़बूत होती पितृसत्ता
भारतीय क़ानून ने महिलाओं को पैतृक सम्पत्ति में बराबर का अधिकार दिया है, लेकिन अन्य अधिकारों की तरह ही उन्हें इस अधिकार से वंचित रखा जाता है। इसलिए क़ानून बनने के बाद भी महिलाओं को संपत्ति में अधिकार नहीं मिल पाता है क्योंकि पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था में पुरुष को ही उत्तराधिकारी माना जाता है।
ये सभी पितृसत्ता के वो तरीक़े है जो सदियों से इस व्यवस्था को आज भी मज़बूती से क़ायम किए हुए है। समय के साथ इनके रूप में बदलाव आता है लेकिन मूल जस का तस बना हुआ है। समाज में जाति, लिंग और वर्ग में ग़ैर-बराबरी को क़ायम रखने में ये सभी मज़बूती से काम करते है। इस ग़ैर-बराबरी को दूर करने के लिए ज़रूरी है कि पितृसत्ता में नियंत्रण के इन तरीक़ों पर अपनी समझ मज़बूत की जाए तभी इन्हें ख़त्म करने की दिशा में काम कोई प्रभावी कदम संभव होगा।
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तस्वीर साभार : theguardian