इंटरसेक्शनलजेंडर महिलाएं क्यों नहीं उड़ाती पतंग और इसकी पितृसत्तात्मक कमान की पहचान| नारीवादी चश्मा

महिलाएं क्यों नहीं उड़ाती पतंग और इसकी पितृसत्तात्मक कमान की पहचान| नारीवादी चश्मा

स्त्रीलिंग में ‘पतंग उड़ती तो है’ पर पतंग स्त्री नहीं उड़ाती। स्त्रीलिंग ‘पतंग’ की स्थिति से महिला-स्थिति को देखे तो पितृसत्तात्मक व्यवहार साफ़ दिखते है, जहां महिला के सारे निर्णय पुरुष लेते है।

जनवरी-फ़रवरी का मौसम उत्तर भारत में पतंगों का मौसम भी माना जाता है, जब सर्दी की गुनगुनी धूप के चमकते आसमान में रंगीन पतंगे उड़ती दिखायी देती है। बचपन में जब भी मेरा भाई पतंग उड़ाता तो मैं पंतग को ऊँची उड़ान भरने के लिए पतंग को छुट्टी देना करती, जिससे भाई की पतंग जल्दी ऊँची उड़ान भर सके और इससे मैं बहुत खुश होती कि मेरी दी हुई छुट्टी से भाई की पतंग ऊँची उड़ान भर रही है। ठीक उसी तरह जैसे बाक़ी लड़कियाँ किया करती थी। इसके साथ ही, पतंग के धागे समेटना और कटी पतंगों को समेटकर सहेजने जैसी वो सारी ज़िम्मेदारी अपने हिस्से आती जिससे भाई को पतंग उड़ाने में कोई दिक़्क़त न हो। ये सब बहुत सामान्य और सहज होता, क्योंकि आसपास की लड़कियाँ भी ऐसा ही करती या ये कहूँ कि हम लड़कियाँ ऐसा व्यवहार करने के लिए ही तैयार की जाती है। ‘पतंग उड़ाने’ के अलावा लड़कियाँ वो सभी काम करती जिससे भाई, चाचा या मामा, यानी कि किसी भी पुरुष को पतंग उड़ाने में मदद मिले।

‘पतंग उड़ाने’, ‘मछली मारने’ या हर वो गेम या शौक़ हमेशा पुरुषों के ही हिस्से होते है जो फुर्सत में किए जाते है। जैसे, पतंग उड़ाने के दौरान हमें समय का ध्यान न भी तो चलता है, जगह की बिना किसी पाबंदी के फ़ोकस सिर्फ़ अपनी पतंग ऊँची उड़ाने पर होता है और अपने पितृसत्तात्मक समाज में ऐसा करने का विशेषाधिकार बचपन से ही पुरुषों को दिया जाता है, क्योंकि उनपर न तो घर का काम करने की ज़िम्मेदारी होती है और न सुरक्षा के नियम वाली पाबंदियाँ। यही वजह है कि पतंग उड़ाने और अकेले तलाब के पास बैठकर मछली मारने जैसे शौक़ में अधिकतर पुरुष ही दिखाई पड़ते है। अपने समाज में जेंडर के आधार पर हमारी कंडिशनिंग की जाती है, जिसमें हमारी जीवन-शैली को इस ढाँचे में ढालने के लिए परिवार, समाज और आसपास की हर छोटी-बड़ी चीजों में जेंडर का फ़र्क़ साफ़ होता है और ये बहुत बारीक व प्रभावी ढंग से जेंडर भेदभाव के बीज बोने का काम करता है। इस बात को हम पतंग उड़ाने के काम और इसकी भाषा में साफ़तौर पर देख और समझ सकते है।

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पितृसत्ता की भाषा : स्त्रीलिंग ‘पतंग’ की कमांड ‘पुरुषों’ के हाथ

किसी भी विचार को व्यवहार में लाने के लिए उस विचार से जुड़ी भाषा अहम भूमिका अदा करती है। इसका एक अच्छा उदाहरण है ‘पतंग उड़ाना’। हिंदी में ‘पतंग’ स्त्रीलिंग शब्द है, जिसके आधार पर हम कहते है – ‘पतंग उड़ती है।‘ पर नीले आसमान में इस पतंग की ऊँचाई कितनी होगी, कितनी देर तक ये आसमान में रहेगी, आसमान में ये शांत उड़ेगी या दूसरी पतंग को काटने का काम करेगी, इसकी पूरी कमान पुरुष के हाथ में होती है और जैसे ही पुरुष के हाथ से कमान छूट जाती है उस पतंग को हारा या कटा हुआ घोषित कर दिया जाता है, क्योंकि कटी पतंग की कोई दिशा नहीं होती या ये कहें कि वो समाज की तय की गयी दिशा में नहीं चलती इसलिए उसे हारा बताकर समाज से निकाल दिया जाता है। मतलब स्त्रीलिंग में ‘पतंग उड़ती तो है’ पर पतंग स्त्री नहीं उड़ाती।

स्त्रीलिंग में ‘पतंग उड़ती तो है’ पर पतंग स्त्री नहीं उड़ाती।अब जब हम स्त्रीलिंग वाली ‘पतंग’ की स्थिति से महिला-स्थिति को देखे तो इसके व्यवहार को साफ़ देख सकते है, महिला क्या करेगी, क्या नहीं करेगी, वो कहाँ जाएगी, कब तक जाएगी ये सारे निर्णय पुरुष लेते है।

अब जब हम स्त्रीलिंग वाली ‘पतंग’ की स्थिति से महिला-स्थिति को देखे तो इसके व्यवहार को साफ़ देख सकते है, महिला क्या करेगी, क्या नहीं करेगी, वो कहाँ जाएगी, कब तक जाएगी ये सारे निर्णय पुरुष लेते है। अब आप ये भी कह सकते है कि कई बार पाबंदियाँ महिलाएँ ही लगाती है, बेशक महिलाएँ ‘माँ’, ‘सास’ जैसी अलग-अलग भूमिकाओं से दूसरी महिलाओं पर पाबंदियाँ लगाती है, पर ये ख़ुद नहीं करती बल्कि ये सदियों के बनाए पुरुषों के नियमों को आगे बढ़ाती है, क्योंकि पितृसत्ता ने अलग-अलग भूमिकाओं के नामपर महिलाओं को ही पितृसत्ता को आगे बढ़ाने का काम बक़ायदा कंडिशनिंग से दिया हुआ है। इतना ही नहीं, जिस तरह पतंग की कमान पुरुष के हाथ से छूटने के बाद पतंग का महत्व ख़त्म माना जाता है, ठीक उसी तरह अपनी मर्ज़ी से ज़िंदगी जीने वाली, अपने निर्णय ख़ुद लेने वाली महिलाओं को भी समाज महत्वपूर्ण नहीं मानता, वो उन्हें अस्वीकार करता है, क्योंकि वो अपनी कमान पुरुषों के हाथों देने के लिए तैयार नहीं होती।

‘पतंग से दूर’ : घरेलू काम और सुरक्षा नियम के बोझ में दबी नेतृत्व से दूर लड़कियाँ

पतंग के साथ भाषा से जुड़ी वैचारिकी के बाद। अब बात करते है कि पतंग उड़ाने की। अपने पितृसत्तात्मक समाज में बचपन से ही लड़कियों को घरेलू काम के प्रति अभ्यस्त होने और सुरक्षा के नियम को ध्यान में रखकर ज़िंदगी जीने  की कंडिशनिंग की जाती है इसलिए जब बात ‘पतंग उड़ाने’ की आती है तो उसमें भी लड़कियों को मदद करने की भूमिका में रखा जाता है न की नेतृत्व में। पतंग उड़ाते पुरुषों को महिलाएँ मदद करती है, पतंग को छुट्टी देने से लेकर परेता संभालने, धागे समेटने जैसे हर छोटे-बड़े व्यवस्था के काम वो करती है, लेकिन जब बात आती है नेतृत्व की तो उसकी आज़ादी उन्हें नहीं दी जाती है। इतना ही नहीं, महिलाओं को नेतृत्व और इसके विचार से दूर रखने के लिए पूरी सामाजिक व्यवस्था काम करती है, कभी उनपर घरेलू काम का बोझ देकर, जिससे महिलाएँ ख़ुद इतना थक जाती है कि वो फुर्सत के पलों में आराम करना चाहती है या फिर उनपर पतंग उड़ाने के समय नाश्ता-खाना बनाने जैसी ज़िम्मेदारी दी जाती है, जिसके चलते वो पतंग उड़ाने के बारे में सोच भी नहीं पाती। इन तमाम व्यवस्थाओं के चलते पतंग उड़ाने में अधिकतर संख्या पुरुषों की हो जाती है, ऐसे में जब कोई महिला पतंग उड़ाने में बारे में सोचती है या इसकी पहल करती है तो समाज अपने सुरक्षा नियम लेकर उनके सामने खड़ा हो जाता है। उन्हें ये कहा जाता है कि पतंग उड़ाने वाले ज़्यादा लड़के है इसलिए उनके बीच में किसी लड़की का पतंग उड़ाना सुरक्षित नहीं है। पतंग उड़ाते समय लड़कियाँ अपने दुपट्टे पर ध्यान नहीं देंगी और ऐसे में अगर उनके शरीर पर किसी पुरुष की नज़र जाएगी तो ये महिलाओं को असुरक्षित करेगा। ऐसे अलग-अलग बहानों से हमारी पूरी सामाजिक व्यवस्था महिलाओं को हर उस खेल से दूर रखती है जो उन्हें आज़ाद, अपने अधिकारों के जागरूक या नेतृत्व की दिशा में आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है।

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‘पतंग उड़ाना’ एक बेहद साधारण उदाहरण है, पर ऐसे ढ़ेरों खेल है जो जेंडर आधारित भेदभाव को बढ़ावा देने का काम करती है और महिलाओं को आज़ादी, समानता, अधिकारों के प्रति जागरूकता और नेतृत्व की दिशा में आगे बढ़ने जैसे विचारों से भी दूर रखती है। इसलिए ज़रूरी है कि अगर हम वास्तव में जेंडर समानता की बात करते है तो अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में छोटे-छोटे व्यवहार  में इन्हें लागू करने का प्रयास करें। इस हफ़्ते मकर संक्रांति आने वाली है, जिसे लोहड़ी या पतंग के त्योहार के नाम से भी जाना जाता है, तो इस नए साल भेदभाव को दूर करने की ओर एक कदम बढ़ाइए। क्योंकि विचार तब तक सरोकार से नहीं जुड़ सकता जब तक विचार को व्यवहार में लागू न किया जाए।

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तस्वीर साभार : thebetterindia

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