‘एक सफ़ल पुरुष के पीछे एक महिला का हाथ का होता है।‘ ये बात आपने कभी न कभी ज़रूर सुनी होगी। अक्सर विशेषाधिकारों से लैस और सभी सत्ता पर अपना वर्चस्व क़ायम कर आगे बढ़ते समाज के बनाए सफलता के मानक को पूरा करते पुरुष की वाहवाही के दौरान महिलाओं को ऐसी बातें कहकर संतुष्ट किया जाता है और अप्रत्यक्ष रूप से आदर्श महिला और आदर्श पुरुष के मानक तैयार किए जाते है। महिला सशक्तिकरण के नामपर अब बदलते समय के साथ इस कहावत में भी बदलाव आया है और अब सफ़ल महिलाओं के लिए अक्सर ये कहा जाता है कि, ‘एक सफ़ल महिला के पीछे एक पुरुष का हाथ होता है।‘
ज़ाहिर है किसी भी तरह की सफलता हर किसी को दिखाई पड़ती है पर उसके पीछे की मेहनत हमेशा पर्दे में ही रह जाती है। इसलिए ज़रूरी है कि जब भी सफलता के श्रेय की बात हो तो उसमें सभी को बराबर का सम्मान मिले। ये बात व्यवहारिक और नैतिकता की है, लेकिन जब हम इस बात को महिला और पुरुष के संदर्भ में देखने की कोशिश करते है तो इसमें एक तरफ़ जहां महिलाओं के हिस्से समाज की बनायी गयी जेंडर आधारित भूमिकाओं की जड़ता दिखाई पड़ती है, वहीं पुरुषों के हिस्से, उनका विशेषाधिकार साफ़ दिखाई पड़ता है।
इसबात को हम इस उदाहरण से समझ सकते है कि – जब भी ये कहा जाता है कि किसी भी सफ़ल आदमी के पीछे किसी औरत का हाथ होता है। तो उस सफ़ल आदमी को सफ़ल बनाने के लिए महिलाओं की भूमिकाओं के आकलन में ये सामने आता है कि वो महिला नि:स्वार्थ रूप से पुरुष के साथ होती है। अपने सपनों और महत्वकांक्षाओं का त्यागकर पुरुष के सहयोग में तत्पर होती है, उसका मनोबल बढ़ाती है, उसे किसी भी चीज़ की दिक़्क़त नहीं होने देती है, वो अपने बारे में नहीं बल्कि पुरुष के बारे सोचती है, उसका ध्यान रखती है और उसपर समर्पित होती है। सरल भाषा में कहें तो ‘वो समाज के आदर्श महिला होती है, जैसा हमारा समाज महिलाओं से अपेक्षा करता है।‘
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वहीं जब बात पुरुषों की आती है और ये कहा जाता है कि – सफ़ल महिला के पीछे पुरुष का हाथ होता है तो वहाँ पुरुषों की भूमिकाओं का आकलन करने पर यह सामने आता है कि वो पुरुष महिलाओं को अपने काम करने की छूट देता है। अपने सपनों को जीने की छूट देता है, उसके मनोबल को बढ़ाता है, उसपर कोई पाबंदी नहीं लगाता है। इस तरह वो महिला का सहयोग करता है।
‘नारीवादी नज़रिया न तो किसी के आगे चलने की बात करता है और न किसी के पीछे। ये साथ चलने की बात करता है, वो साथ जहां हर साथी के पास समान अधिकार हो और किसी का भी किसी के अधिकार पर कोई विशेषाधिकार न हो, जिससे कभी किसी भी साथी के साथ दमन की स्थिति न बने।‘
अब जब हम सफलता के पीछे के हक़दार बताए जाने वाले महिलाओं और पुरुषों की भूमिकाओं को समझे तो साफ़ है, महिलाएँ जहां अपने सपनों और बुनियादी अधिकारों को त्यागकर अपना सबकुछ पुरुष पर समर्पित करती है तो वो सफलता का श्रेय पाती है। लेकिन वहीं पुरुष सिर्फ़ महिलाओं को उनका अधिकार देकर (जो कि वास्तव में एक विशेषाधिकार ही है) महान हो जाता है। यहाँ हमें ये अच्छे से समझना होगा कि अपने सपनों को जीना, अपने लिए सोचना या अपने विकास के लिए कदम बढ़ाना और अपने फ़ैसले लेना ये सब किसी भी इंसान का बुनियादी अधिकार है, जिसके लिए हमें किसी से भी इजाज़त लेने की ज़रूरत नहीं है। पर इसके बावजूद अगर हमें अपने इन अधिकारों के इस्तेमाल के लिए किसी से परमिशन लेने की ज़रूरत पड़ती है तो उस इंसान का विशेषाधिकार होता है, न की उनकी महानता।
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समाज में प्रचलित सफलता के श्रेय को लेकर फैली इन कहावतों की बीच जब बात आती है नारीवाद की तो आइए अब समझने की कोशिश करते है कि इन मुद्दों पर नारीवादी नज़रिया क्या कहता है। नारीवाद हमेशा समानता की बात करता है। समानता, जाति, धर्म, वर्ग, जेंडर, लिंग या किसी भी तरह के वर्गीकरण के बीच। अगर कोई महिला है, कोई पुरुष है या कोई ट्रांस है तो यहाँ ‘नारीवादी नज़रिया न तो किसी के आगे चलने की बात करता है और न किसी के पीछे। ये साथ चलने की बात करता है, वो साथ जहां हर साथी के पास समान अधिकार हो और किसी का भी किसी के अधिकार पर कोई विशेषाधिकार न हो, जिससे कभी किसी भी साथी के साथ दमन की स्थिति न बने।‘ इसलिए जब हम सफलता के श्रेय से लेकर नारीवादी दुनिया की बात करते है तो वहाँ ‘साथी’ होने की बात करते है।
कई बार नारीवाद को लेकर ये भ्रम फैलाया जाता है कि नारीवाद का मतलब पुरुषों से बराबरी करने का है। पर वास्तव में ये सिर्फ़ एक भ्रम है, जिसमें बिल्कुल भी सच्चाई नहीं है। नारीवाद किसी के बराबरी की बात नहीं, बल्कि नारीवाद समानता की बात करता है। समानता अधिकारों की। लेकिन हमारे पितृसत्तात्मक समाज में अधिकारों से पुरुषों को लैस किया गया है, इसलिए जब भी महिला अधिकारों की बात आती है तो पुरुषों को मिले अधिकारों से तुलना की जाती है और ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि हम महिला-पुरुष के बीच सत्ता और अधिकार का समान बँटवारा करने की बात करते है, न किसी से कम न किसी से ज़्यादा। इसके लिए संघर्ष के कई रूप रहे जो आज भी मौजूद है, पर इसका ये क़तई मतलब नहीं कि नारीवाद का संघर्ष पुरुष से है। बल्कि नारीवाद का संघर्ष पितृसत्ता से है जो जेंडर के आधार पर समाज में अधिकारों, संसाधनों और सत्ता में ग़ैर-बराबरी कर सदियों से भेदभाव को पोसती आयी है, जिससे समाज का एक तबका विशेषाधिकारों से लैस होता गया और दूसरा वंचित। इसलिए ज़रूरी है कि हम नारीवाद के मूल को समझे और इसे अपनी ज़िंदगी से जोड़े।
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तस्वीर साभार : Economic and Political Weekly