“हम लोगों के परिवार और गाँव में गाने को अच्छा नहीं माना जाता है। जब भी हम लोग शादी-ब्याह के मौक़े पर गीत में शामिल होते हैं तो परिवार वाले इसे फ़ालतू बताकर मना कर देते हैं और इसके बाद स्कूल-कॉलेज में हम लड़कियों को ऐसा कोई सुरक्षित मौक़ा नहीं मिलता जहां हम लोग अपनी प्रतिभा को निखार सकें। मुझे हमेशा से ही ऐसे गीत पसंद थे, जिसमें हम लोग आमजन के हक़ की बात करें और महिलाओं की बातों को लाए। लेकिन हम लोगों के गीतों और विचारों को कोई मंच नहीं मिलता है। हाल ही में जब आंबेडकर जयंती के मौके पर एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया तो हम लोगों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।” तेंदुई गाँव की रहने वाली बीस वर्षीय प्रियंका अपने अनुभवों को बताती हुए ये बात कहती हैं, जब उन्हें आंबेडकर जयंती के मौक़े पर अपने गीत को प्रस्तुत करने का मौक़ा मिला।
बनारस शहर से क़रीब तीस किलोमीटर दूर स्थित देईपुर गाँव की दलित बस्ती में यह पहला अवसर जब अलग-अलग जाति और गाँव से महिलाएं किसी कार्यक्रम में शामिल होने के लिए आई थीं। मौक़ा था आंबेडकर जयंती का जब मुहीम संस्था की तरफ़ से आंबेडकर जयंती के अवसर पर ‘महिला गीतमाला’ कार्यक्रम का आयोजन किया गया। जिसमें अलग-अलग गाँव से आई महिलाओं की टीम ने हिस्सा लिया था। इसमें गाँव की महिलाओं ने आंबेडकर, महिला अधिकार और अपनी समस्याओं को लेकर गीत प्रस्तुत किए थे।
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गीत प्रतियोगिता के इस कार्यक्रम में महिलाओं की टीम ने अपने-अपने विचारों की अभिव्यक्ति इतनी मज़बूती और प्रभावी ढंग से की थी जिससे यह तो साफ़ हो गया कि महिलाएं अपनी हक़, आवाज़ और अधिकार की लंबी लड़ाई के लिए तैयार हैं, पर ज़रूरत है तो उन्हें एकजुट कर एक मंच देने की।
कार्यक्रम में अपनी प्रस्तुति देने पहुंची छतेरी गाँव की पचास वर्षीय सुगना कहती हैं, “हम लोगों की बस्ती में हर साल आंबेडकर जयंती मनाई जाती है। शाम के वक्त गाँव के युवा लड़के और पुरुष एकजुट होकर कार्यक्रम का आयोजन करते हैं, जिसमें थोड़ी-बहुत पुरुषों और बुजुर्गों की बातचीत के बाद लड़के बस डीजे बजाकर नाचते हैं पर हम महिलाओं को इसमें कहीं भी अपनी बात कहने का कोई मौक़ा नहीं मिलता। आंबेडकर ने हम लोगों के लिए लंबी लड़ाई लड़ी और उनकी लड़ाई में वह हमेशा महिलाओं की बात करते थे। लेकिन अफ़सोस उनकी ही जयंती में हम महिलाओं को जगह नहीं मिल पाती है पर जब गाँव स्तर पर महिलाओं की प्रतिभाओं और विचारों को सामने लाने के लिए ऐसे प्रयास होते हैं तो मुझे बहुत ख़ुशी होती है।” सुगना ने अपनी टीम के साथ इस गीत कार्यक्रम में हिस्सा लिया था और उन्हें इस प्रतियोगिता में दूसरा स्थान प्राप्त हुआ। सुगना की टीम ने अपने गीत में आंबेडकर में महिला केंद्रित विचारों को उजागर किया था।
जब भी महिलाओं के विचारों और उनकी अभिव्यक्ति की बात आती है तो हमारा पितृसत्तात्मक समाज उनके लिए कोई जगह नहीं देना चाहता है, चाहे उसका माध्यम जो भी हो। अगर बात करें हमारे गाँवों की तो आज़ादी के इतने सालों बाद भी हमारे गाँव जाति के आधार पर बंटी बस्तियों से ऊपर नहीं उठ पाए हैं। आज़ाद भारत के इस जातिगत आधार पर बंटी गाँव की बस्तियों की स्थिति में चूल्हा-चौका संभालने को ज़िम्मेदार महिलाएं और समाज की कंडिशनिंग उन्हें इस तरह बांधे रखती है कि वे कभी भी समाज के बनाए दायरे से बाहर निकलना न सीखें। ऐसी जटिल सामाजिक व्यवस्थाओं में जब महिलाएं जाति, धर्म और वर्ग के भेद को भुलाकर एक मंच पर आती हैं तो उसकी तस्वीर और प्रभाव भी एकदम अलग होता है।
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बाबा साहब आंबेडकर ने हमेशा महिलाओं की शिक्षा और अधिकार की पैरवी की थी और उन्हें नेतृत्व में आगे बढ़ाने का सपना देखा था, पर आज महिलाओं को इनकी ही जयंती पर अपनी बात कहने का मौक़ा नहीं मिल पाता है। बेशक आंबेडकर के नेतृत्व और प्रयासों का परिणाम रहा कि आज समाज का दलित-बहुजन वर्ग अपने हक़ और विकास के बारे में सोच या फिर बोल पाता है। अगर हम बात करें महिलाओं कि तो अभी भी उनकी लड़ाई लंबी चलने वाली है। गीत प्रतियोगिता के इस कार्यक्रम में महिलाओं की टीम ने अपने-अपने विचारों की अभिव्यक्ति इतनी मज़बूती और प्रभावी ढंग से की थी जिससे यह तो साफ़ हो गया कि महिलाएं अपने हक़, आवाज़ और अधिकार की लंबी लड़ाई के लिए तैयार हैं, पर ज़रूरत है तो उन्हें एकजुट कर एक मंच देने की। महिला अधिकारों और नेतृत्व की बातें करते महिलाओं के ये गीत सामाजिक बदलाव के सशक्त माध्यम बन सकते हैं।
सांस्कृतिक माध्यम किसी भी बड़े आंदोलन या सामाजिक बदलाव में सबसे प्रभावी साधन माने जाते हैं। ऐसे में जब तेंदुई गाँव की बीस वर्षीय प्रियंका और पचास वर्षीय सुगना अपने विचारों-अधिकारों की अभिव्यक्ति अपने गीतों के ज़रिए करती हैं तो ये सकारात्मक बदलाव का संकेत देता है। इतिहास से लेकर वर्तमान तक हर छोटे-बड़े आंदोलन में गीतों का कारवां रचनात्मक तरीक़े से आंदोलन को नयी दिशा देने का काम करता है। जब इसी क्रम में गाँव की हमेशा घूंघट और घर की दहलीज़ पर रहने वाली महिलाएं एकजुट होती हैं तो अपने आप में यह महिला नेतृत्व की एक ज़मीन तैयार करता है। आज हम चाहे जितनी भी महिला नेतृत्व और विकास की बात कर लें, पर सच्चाई यही है कि जब तक महिलाओं को संगठित कर उनके विचारों को अभिव्यक्त करने का स्पेस नहीं दिया जाएगा, तब तक महिला नेतृत्व एक सपना मात्र होगा। पितृसत्ता के बदलते रंग की वहज से कई बार महिला नेतृत्व का चेहरा तो हम देख पाएंगे पर उसके विचार और काम का कोई स्पेस नहीं होगा।
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तस्वीर साभार: सभी तस्वीरें रेणु द्वारा उपलब्ध करवाई गई हैं