संस्कृतिकिताबें जुपका सुभद्राः अपनी रचनाओं के ज़रिये दलित महिलाओं के संघर्ष को बयां करती लेखिका

जुपका सुभद्राः अपनी रचनाओं के ज़रिये दलित महिलाओं के संघर्ष को बयां करती लेखिका

दलित समुदाय से ताल्लुक रखने वाली जुपका सुभद्रा का काम विशेष रूप से दलित महिलाओं के लिए रहा है। वह लगातार दलित महिलाओं के अधिकार और मुद्दों को लेकर आवाज उठाती रही हैं।

जुपका सुभद्रा एक दलित एक्टिविस्ट, कवयित्री और लेखिका हैं। जुपका अपने लेखन के ज़रिये दलित समाज के उत्थान की बात करती हैं जिनका शोषण सदियों से ब्राह्मणवादी व्यवस्था द्वारा होता रहा है और आज भी हो रहा है। दलित समुदाय हमारे समाज में एक ऐसा वर्ग रहा है जिसको शुरुआती दौर से ही जातिवादी व्यवस्था द्वारा शोषित किया गया है। दलित समुदाय से ताल्लुक रखने वाली जुपका सुभद्रा का काम विशेष रूप से दलित महिलाओं के लिए रहा है। वह लगातार दलित महिलाओं के अधिकार और मुद्दों को लेकर आवाज उठाती रही हैं। सुभद्रा मूल रूप से तेलुगू भाषी हैं और उन्होंने अपनी सारी रचनाएं तेलुगू भाषा में ही लिखी हैं। वर्तमान में वह आंध्र प्रदेश में सामाजिक काम कर रही हैं।

जुपका सुभद्रा का जन्म साल 1962 में तेलंगाना राज्य के वारंगल ज़िले में हुआ था। वह अपनी पढ़ाई के शुरुआती दौर से ही सोशल वेलफेयर हॉस्टल में रहा करती थीं। सुभद्रा को कविताएं लिखने का शौक था। वह अपने बचपन में प्रकृति, सुंदरता और दोस्ती पर कविताएं लिखा करती थीं। उन्होंने तेलुगू लिटरेचर में मास्टर ऑफ आर्ट्स एंड मास्टर ऑफ फिलॉस्फी की डिग्री ली हैं। पढ़ाई के साथ-साथ उन्होंने दलितों के सामाजिक उत्थान के बारे में सोचना शुरू कर दिया और आगे जाकर कई प्रकार के संस्थानों से जुड़कर दलितों के लिए काम करना शुरू कर दिया।

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सुभद्रा की रचना ‘रायक्का मान्यम’ में दलित जीवन के विभिन्न पहलुओं के शब्दचित्र को देखा जा सकता है। दलित जीवन और विशेष रूप से दलित महिलाओं के जीवन को जातिवादी व्यवस्था में कठोर और अमानवीय व्यवहार से गुजरना पड़ता है। इस रचना को लाडली मीडिया पुरस्कार से भी नवाज़ा गया है। ‘रायक्का मान्यम’ के रूप में लिखी गई कहानियां, दलित लोगों, विशेषकर महिलाओं के खिलाफ़, उत्पीड़क जाति के पूर्वाग्रहों पर केंद्रित हैं। अपने स्वयं के अनुभवों के आधार पर, सुभद्रा ने तेलंगाना के दलितों में सबसे अधिक उत्पीड़ित मडिगा समुदाय की दुर्दशा की ओर इशारा किया है।

जुपका सुभद्रा निडर होकर बताती हैं कि ‘तेलुगु की धरती’ में हुए ‘मुक्ति’ आंदोलनों में से किसी ने भी दलित महिलाओं को उनका हक नहीं दिया है; भले ही उन्होंने इन आंदोलनों में महत्वपूर्ण योगदान दिया हो। दलित महिलाओं के लेखन ने हमें दलित पितृसत्ता पर फिर से सोचने और सवाल करने के लिए मजबूर किया। जुपका सुभद्रा दलित महिलाओं के इतिहास और साहित्य को अपने सामाजिक काम और रचनाओं के ज़रिए सामने लाने के लिए हर दिन प्रयासरत हैं।

वह तेलंगाना में बथुकम्मा के उत्सवों के बारे में खेद व्यक्त करती हैं जहां समाज की उत्पीड़ित जातियों की महिलाओं को आज भी पीड़ा का सामना करना पड़ता है। शिक्षा और रोज़गार प्राप्त करने के बावजूद, सुभद्रा कार्यस्थल और शैक्षणिक संस्थानों में उत्पीड़न, विशेष रूप से कॉरपोरेट अस्पतालों और समाज कल्याण छात्रावासों की क्रूरता का हवाला देती हैं।

सुभद्रा का एक काव्य संग्रह ‘अय्यायो दम्मक्का’ भी प्रकाशित हुआ है। वह प्रसिद्ध नारीवादी पत्रिका ‘भूमिका‘ में कॉलम भी लिखा करती हैं। उन्होंने ‘नल्ला रेगाडी सल्लू’ (मडिगा महिलाओं की कहानियों का एक संग्रह) और ‘कैतुनाकला दंडेम’ (मडिगा कविताओं) का सह-संपादन किया है, दोनों का तेलगू साहित्यिक परिदृश्य पर प्रभाव पड़ा है। उन्होंने प्रसिद्ध तमिल दलित महिला लेखिका बामा की ‘संगती’ का तेलुगू में अनुवाद किया है।

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सुभद्रा की लघु कथाओं का अंग्रेजी में अनुवाद ‘हाउ आर यू वेज‘ भोजन की राजनीति के इर्द-गिर्द घूमता हुआ एक बहुत ही ज़रूरी दस्तावेज़ है जो भारतीय समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव की परतों को सामने रखता है। दूसरे शब्दों में, यह केवल भोजन के बारे में नहीं है, बल्कि इस संग्रह का दिलचस्प शीर्षक ‘हाउ आर यू वेज?’ कहानी का एक ऐसा प्रश्न है जो पाठकों को उनके विशेषाधिकारों और पूर्वाग्रहों के बारे में प्रश्न करता है जो भोजन के अलावा और भी बहुत कुछ है। 23 लघु कथाएं बीफ़ खाने वाले लोगों पर होने वाले अत्याचारों को उजागर करने से लेकर महिलाओं के इतिहास की कमी या अनुपस्थिति तक को दर्ज करती है। सुभद्रा की कहानियां ‘मडिगा’ महिलाओं के जीवन को उजागर करती है, जो तेलंगाना के दलितों में सबसे अधिक उत्पीड़ित है।

जुपका सुभद्रा की रचनाएं सिर्फ ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को चुनौती देने तक सीमित नहीं हैं, बल्कि ये वैचारिक आधारों और कम्युनिस्ट आंदोलनों जैसे ‘मुक्ति’ आंदोलनों की अभिव्यक्तियों तक को हिला देती हैं। वह निडर होकर बताती हैं कि ‘तेलुगू की धरती’ में हुए ‘मुक्ति’ आंदोलनों में से किसी ने भी दलित महिलाओं को उनका हक नहीं दिया है; भले ही उन्होंने इन आंदोलनों में महत्वपूर्ण योगदान दिया हो। दलित महिलाओं के लेखन ने हमें दलित पितृसत्ता पर फिर से सोचने और सवाल करने के लिए मजबूर किया। जुपका सुभद्रा दलित महिलाओं के इतिहास और साहित्य को अपने सामाजिक काम और रचनाओं के ज़रिए सामने लाने के लिए हर दिन प्रयासरत हैं।

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तस्वीर साभार: YouTube Screengrab

Comments:

  1. ANKIT GUPTA says:

    It’s very inspirational story which is written by my batchmate. When I see that someone who was my colleague is working for marginal section of society, It inspires me to do something good.
    You’re work is really inspiring to a lot of people who has faith in the Indian Constitution that is totally care about vulnerable sections.
    At last I humble request to you that always work and write more and more. We’ll always wait to read you. Thank you🙏

  2. ANKIT GUPTA says:

    It’s really a inspiring story that is written by @ Supriya Tripathi.
    When I read these type of articles that is focused on vulnerable section of society, it gives inspiration to alot of peoples who has really good wishes to marginalized people. At lot I want to say that after reading this article I’m overwhelmed because It’s written by my batchmate @Supriya Tripathi. It’s really a proud moment for us. I humble request to you that please keep on writing such type of inspiring stories that is inspiration of innumerable peoples. 👍

  3. Supriya Tripathi says:

    Thanks🙏

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