भारत की संविधान सभा के 299 लोगों में 15 महिलाएं भी शामिल थीं। कम संख्या होने के बावजदू इन महिलाओं ने भारतीय संविधान के निर्माण और प्रारूपण पर एक अतुलनीय प्रभाव छोड़ा। उनके द्वारा प्रस्तावित भाषणों और संशोधनों से पता चलता है कि कैसे उन्होंने पुरुष सांसदों के साथ-साथ राष्ट्र के हित को आगे बढ़ाने के लिए मिलकर काम किया। इन्हीं 15 महिला सदस्यों में से एक थीं बेग़म कुदसिया एजाज़ रसूल। वह भारत की संविधान सभा में एकमात्र मुस्लिम महिला सदस्य थीं, जिन्होंने भारत के संविधान का मसौदा तैयार करने में अहम भूमिका निभाई थी।
बेग़म कुदसिया एजाज़ रसूल का जन्म अविभाजित पंजाब में एक मुस्लिम रिसायत मलेरकोटला के एक शासक परिवार में 4 अप्रैल 1908 को हुआ था। उनके पिता का नाम नवाब जुल्फिकार अली ख़ान था। उनकी शादी कम उम्र में उत्तर प्रदेश के एक तालुकदार नवाब एजाज़ रसूल से कर दी गई थी।
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भारत सरकार अधिनियम 1935 के तहत वह अपने पति के साथ 1930 के दशक में मुस्लिम लीग में शामिल हो गईं। इस तरह राजनीति में उनके सफर की शुरुआत हुई थी। उत्तर प्रदेश के मुस्लिम परिवारों में उस समय औरतों के लिए सख्त पर्दा प्रथा होती थी, लेकिन कुदसिया यूपी विधान परिषद के चुनाव के लिए इससे बाहर निकलीं।
बेग़म कुदसिया एजाज़ रसूल भारत की संविधान सभा में एकमात्र मुस्लिम महिला सदस्य थीं, जिन्होंने भारत के संविधान का मसौदा तैयार करने में अहम भूमिका निभाई थी।
आज़ादी से पहले साल 1937 के चुनावों में वह उन कुछ चुनिंदा महिलाओं में से एक थीं, जिन्होंने एक गैर-आरक्षित सीट से सफलतापूर्वक चुनाव लड़ा और यूपी विधानसभा के लिए चुनी गईं। बेगम एजाज़ रसूल 1952 तक इस सीट पर बनी रहीं। उन्होंने 1937 से 1940 तक परिषद के उपाध्यक्ष का पद संभाला और 1950 से 1952-54 तक परिषद में विपक्ष के नेता के रूप में काम किया।
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अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमिक के बावजूद भी, वह जमींदारी प्रथा उन्मूलन के मुद्दे पर अपने मजबूत समर्थन के लिए जानी जाती थीं। साल 1946 में, भारत की संविधान सभा के लिए वह 28 मुस्लिम लीग के सदस्यों में से अकेले चुनी गई थीं। वह विधानसभा में एकमात्र मुस्लिम महिला थीं जो कि मुस्लिम समुदाय से आई थी। 1950 में भारत में मुस्लिम लीग भंग हो गई और बेगम एजाज़ रसूल कांग्रेस में शामिल हो गईं। कांग्रेस की सदस्य बनने के बाद साल 1952 से लेकर 1956 तक वह राज्य सभा की सदस्य रहीं। इसके बाद साल 1969 से 1989 तक वह उत्तर प्रदेश विधानसभा की सदस्य भी रहीं।
अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमिक के बावजूद भी, वह जमींदारी प्रथा उन्मूलन के मुद्दे पर अपने मजबूत समर्थन के लिए जानी जाती थीं। साल 1946 में, भारत की संविधान सभा के लिए वह 28 मुस्लिम लीग के सदस्यों में से अकेले चुनी गई थीं।
भारत पाकिस्तान विभाजन के बाद कुदसिया ने विधानसभा में विभाजन के दौरान हुई घटनाओं पर कहा था, “विभाजन के परिणामस्वरूप देश में रहनेवाले मुसलमान उस प्रक्रिया में सबसे ज्यादा पीड़ित थे। हमारे लिए यह बेहतर होगा कि हम अतीत को पूरी तरह से तोड़ दें और सभी प्रकार के डर को दूर करके एक ऐसे देश का निर्माण करें जिसमें सभी समुदाय सुरक्षित महसूस कर सकें। बहुसंख्यकों को भी अपने कर्तव्य का एहसास करना होगा कि वह किसी भी अल्पसंख्यक के साथ भेदभाव न करें और उनके साथ निष्पक्ष व्यवहार करें।”
जब सरदार पटेल ने अल्पसंख्यकों के लिए अलग निर्वाचक मंडल और आरक्षण को हटाने का प्रस्ताव पेश किया, उन्होंने कई साथी मुस्लिम सदस्यों की इच्छा के खिलाफ जाकर इस प्रस्ताव का समर्थन किया। डेक्कन हेराल्ड में छपे लेख के मुताबिक उन्होंने कहा था, मेरे विचार से अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण एक आत्म-विनाशकारी हथियार है, यह अलगाववाद और सांप्रदायिकता की भावना को जीवित रखता है जिसे हमेशा के लिए समाप्त कर देना चाहिए।” उनका मानना था कि मुसलमानों को भारत की राजनीतिक विचार की मुख्यधारा के अनुसार होना चाहिए क्योंकि एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में अलग निर्वाचक मंडल या धर्म आधारित आरक्षण का कोई स्थान नहीं होता है।
राजनीति के साथ-साथ उन्हें खेल-कूद में भी काफी रुचि थी। उन्होंने लगभग 20 सालों तक भारतीय महिला हॉकी महासंघ के अध्यक्ष का पद संभाला। साथ ही साथ वह एशियाई महिला हॉकी महासंघ की अध्यक्ष भी रहीं। भारतीय महिला हॉकी कप का नाम उन्हीं के नाम पर रखा गया है। उन्हें यात्राएं करने में भी काफी आनंद आता था। साल 2000 में उन्हें पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया था। उनकी आत्मकथा का शीर्षक ‘फ्रॉम परदाह टू पार्लियामेंट: ए मुस्लिम वुमन इन इंडियन पॉलिटिक्स’के नाम से प्रकाशित हुई है।
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Babu Ram Kanaujia