“पुरुष की बड़ी से बड़ी कमज़ोरी समाज पचा लेता है लेकिन औरत को उसकी थोड़ी सी चूक के लिए भी पुरुष समाज उसे कठोर दंड देता है जबकि इसमें उसकी लिप्सा का अंश कहीं अधिक होता है। वास्तव में औरत अपने मूल अधिकारों से तो वंचित है, लेकिन सारे कर्तव्य और दायित्व उसके हिस्से मढ़ दिए गए हैं।”
आशापूर्णा देवी की ये पंक्तियां समाज का असली रूप हमारे सामने पेश करती हैं। आशापूर्णा देवी का मानना था कि औरत का जीवन अवरोधों और वंचना में ही कट जाता है, जिसे उसकी ‘तपस्या’ कहकर हमारा समाज गौरवांवित होता है। इस विडम्बना आवाज़ मिली है बांग्ला कथाकार आशापूर्णा देवी के अनुपम उपन्यास ‘प्रारब्ध’ में।
प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित आशापूर्णा देवी बांग्ला साहित्य की उन मुट्ठी भर रचनाकारों में से एक हैं जिनकी कलम हर पल समाज के इर्द-गिर्द घूमती रहती थी। आशापूर्णा देवी आधुनिक बांग्ला साहित्य की केंद्र बिंदु रही हैं। इनका बांग्ला साहित्य में वही प्रतिष्ठित स्थान है जो कि बंकिमचन्द्र, रवीन्द्रनाथ और शरतचन्द्र का है। उनकी कलम जीवन की उपेक्षित-सी घटना के माध्यम से बड़ी-बड़ी बात कह जाती है। इनकी लेखनी औरतों के मन की परतों में दबी संवेदनाओं को बड़ी मार्मिकता से कागज़ पर प्रकट कर देती है।
परंपरागत रूढ़िवादी कुरीतियों के साये में बीता बचपन
प्रसिद्ध बांग्ला कवियत्री एवं उपन्यासकार आशापूर्णा देवी का जन्म 8 जानवरी 1909 को औपनिवेशिक बंगाल राज्य के उत्तरी कलकत्ता के एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम हरिनाथ गुप्त और मां का नाम सरोला सुंदरी था। उनके पिता एक कुशल चित्रकार थे। उनकी माँ को बांग्ला साहित्य से बहुत लगाव था। आशापूर्णा देवी का बचपन परंपरागत रूढ़िवादी कुरीतियों के कट्टर समर्थकों के साये में बीता। उनकी दादी विशेष रूप से पुराने विचारों एवं पितृसत्तात्मक व्यवस्था की पक्षधर थीं। इस कारण आशापूर्णा देवी को पढ़ने-लिखने का अवसर ही नहीं मिला। उनकी दादी घर की लड़कियों को पढ़ाने-लिखाने के सख्त खिलाफ थीं। आशापूर्णा देवी को बचपन से हीं पढ़ने-लिखने का बहुत शौक था।
आशापूर्णा देवी का मानना था कि औरत का जीवन अवरोधों और वंचना में ही कट जाता है, जिसे उसकी ‘तपस्या’ कहकर हमारा समाज गौरवांवित होता है।
जीवन में आगे बढ़ने, कुछ अच्छा करने और पढ़ने-लिखने की मन में दृढ़ इच्छा लिए आशापूर्णा जीवन की तमाम चुनौतियों से लड़ते हुए आगे बढ़ीं। बचपन में जब कभी उनके भाई पढ़ने बैठते तो उनके साथ-साथ वह भी चुपके-चुपके अभ्यास करती थीं और इस तरह वह थोड़ा-बहुत पढ़ना-लिखना सीख गईं। उन्हें शुरू से ही किताबें पढ़ने का बहुत शौक था। उन्हें किताबों से बहुत लगाव था, लेकिन घर के बाहर जाकर पढ़ने पर उनके घर की लड़कियों पर सख्त पाबंदी थी। इसलिए आशापूर्णा देवी ने घर के भीतर ही किताबों एवं पत्र-पत्रिकाओं से बाहरी जगत का ज्ञान बटोरना शुरू कर दिया। उनका पालन-पोषण एक ऐसे समय में हुआ हुआ, जो सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से अस्त-व्यस्त और जन-जागरण का समय था।
महज़ 13 साल की आयु में छपी थी पहली कविता
महज़ 13 साल की उम्र में उन्होंने एक कविता लिख डाली जो उस समय ‘शिशु साथी’ में छपी। पत्रिका के संपादक राजकुमार चक्रवर्ती को उनकी कविता इतनी पसंद आई कि उन्होंने आशापूर्णा देवी से और कविताएं और कहानियां लिखने का आग्रह किया। यहीं से आशापूर्णा देवी के साहित्यिक सफर की शुरुआत हुई। मात्र 15 वर्ष की आयु में ही उनका विवाह कालिदास गुप्ता से हो गया था। लेकिन पति ने उनके परिवार वालों की तरह उनके पढ़ने-लिखने का विरोध नहीं किया बल्कि अपना पूरा समर्थन दिया।
आशापूर्णा देवी को शुरू से ही किताबें पढ़ने का बहुत शौक था। उन्हें किताबों से बहुत लगाव था, लेकिन घर के बाहर जाकर पढ़ने पर उनके घर की लड़कियों पर सख्त पाबंदी थी। इसलिए आशापूर्णा देवी ने घर के भीतर ही किताबों एवं पत्र-पत्रिकाओं से बाहरी जगत का ज्ञान बटोरना शुरू कर दिया।
साहित्यिक सफर
आशापूर्णा देवी ने शुरुआत में जितनी भी पुस्तकें लिखी वह सारी बच्चों से ही संबंधित थीं। साल 1936 में करीब 27 वर्ष की उम्र में उन्होंने व्यस्कों के लिए पहली कहानी लिखी जिसका शीर्षक था- ‘पत्नी ओ प्रेयोशी’ जो कि आनंद बाज़ार पत्रिका में छपी। इसके बाद 1944 में उनका पहला उपन्यास ‘प्रेम ओ प्रोयोजन’ भी प्रकाशित हुआ। उनकी सबसे चर्चित पुस्तक श्रृंखला, तीन भागों में विभाजित- प्रथम प्रतिश्रुति, स्वर्णलता व बकुल कथा, महिलाओं के अनंत संघर्ष की कहानी है।
साथ ही उनका पहला कहानी संकलन ‘जल और जामुन’ 1940 में प्रकाशित हुआ था। इसके अलावा उन्होंने करीब तीस से अधिक उपन्यास, अनेक कविताएं और कहानियां लिखीं जो प्रासंगिकता की दृष्टि से आज भी महत्वपूर्ण स्थान बनाए हुए हैं। आशापूर्णा देवी की कहानियां पितृसत्तात्मक व्यवस्था का विरोध करती हुई एक नई सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करने का आग्रह करती हैं।
उपलब्धियां
कलकत्ता विश्वविद्यालय के ‘भुवन मोहिनी’ स्वर्ण पदक से अलंकृत आशापूर्णा जी को 1976 में पद्मश्री से विभूषित किया गया। सन् 1977 में साहित्य जगत में अपना अलग स्थान बनाने वाले उपन्यास ‘प्रथम प्रतिश्रुति’ को टैगोर तथा भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी सम्मानित की गयी।
महज़ 13 साल की उम्र में उन्होंने एक कविता लिख डाली जो उस समय ‘शिशु साथी’ में छपी। पत्रिका के संपादक राजकुमार चक्रवर्ती को उनकी कविता इतनी पसंद आई कि उन्होंने आशापूर्णा देवी से और कविताएं और कहानियां लिखने का आग्रह किया। यहीं से आशापूर्णा देवी के साहित्यिक सफर की शुरुआत हुई।
आशापूर्णा देवी ने करीब 86 वर्ष की आयु में 1995 में इस दुनिया को अलविदा कहा लेकिन उनका लिखा एक-एक शब्द आज भी उनके साहसिक और क्रांतिकारी लेखन का सशक्त हस्ताक्षर है। उनकी कविताओं, कहानियों एवं उपन्यासों में भारतीय समाज की स्त्री के मन की पीड़ा, कुंठा एवं मानसिक द्वन्द की अभिव्यक्ति बड़े ही मार्मिक ढंग से हुई है। इनका साहित्य मूलतः स्त्री केंद्रित है। आशापूर्णा देवी का साहित्य समाज में व्याप्त नारी समस्या का विस्तारमात्र है। उनके उपन्यासों में आज के पारिवारिक जीवन की समस्यायों की झलक मिलती है। नारी मन की पीड़ा का सूक्ष्म अंकन लेखिका की सूक्ष्म दृष्टि एवं विचारों की गंभीरता का परिचायक है। उनका वैचारिक दृष्टिकोण समाज में नारी के अस्तित्व का स्वरूप उद्धाटित करने में समर्थ है। आशापूर्णा देवी एक यथार्थवादी लेखिका हैं। सच को बेझिझक होकर ब्यान कर देना उनका एकमात्र उद्देश्य है।
उन्होंने करीब तीस से अधिक उपन्यास, अनेक कविताएं और कहानियां लिखीं जो प्रासंगिकता की दृष्टि से आज भी महत्वपूर्ण स्थान बनाए हुए हैं। आशापूर्णा देवी की कहानियां पितृसत्तात्मक व्यवस्था का विरोध करती हुई एक नई सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करने का आग्रह करती हैं।
स्त्री पर कसी जाने वाली फब्तियों पर व्यंग्य करते हुए लेखिका कहती हैं “आज नारियां घर-बाहर दोनों क्षेत्रों को संभाल रही हैं। जरूरत पड़ने पर सिनेमा-थियेटर कर सकती हैं और जरूरत पड़े तो गृहस्थी का काम भी कर सकती है।” अपनी लेखनी के माध्यम से समाज में व्याप्त कड़वे झूठ और मीठे सच को इस प्रकार से प्रस्तुत करती हैं कि लगता ही नहीं कि वह किसी कहानी का भाग है। उनकी कहानियां समाज की रूढ़िवादी धारणा पर अनेकानेक प्रश्न चिन्ह लगाती हैं, जो हमारे जहन को ही नहीं बल्कि हमारे समाज के प्रत्येक वर्ग के हृदय को आंदोलित करती है। उनकी कथा का एकमात्र लक्ष्य सामाजिक पात्रों के आत्मसंघर्ष का सजीव चित्रण है। एक स्त्री होने के नाते उन्होंने स्त्री मन की गहराईयों का सूक्ष्मता से अध्ययन किया है।