आंदोलन के बारे में तो हम लोग अक्सर सुनते हैं, कभी वर्तमान के परिदृश्य में तो कभी इतिहास की किताबों में। हमें आंदोलन के बारे पढ़ने-सुनने को ज़रूर मिलता है। पर क्या लोगों के एकजुट होने और नारे लगाने को हम आंदोलन कहेंगें या फिर धरना-प्रदर्शन करने को? आंदोलन होता क्या है, किस गतिविधि को हम आंदोलन कहेंगें, ऐसे कई सवाल अक्सर हमलोगों के मन में आते है तो आइए आज हम समझने की कोशिश करते है कि क्या होता है आंदोलन और इसकी वो ख़ासियत जो इसे आंदोलन बनाती है।
परिभाषा के स्वरूप में अगर हम आंदोलन को समझें तो – ‘आंदोलन किसी अन्याय का एक-जैसा अनुभव रखने वाले लोगों का समूह होता है, जो एकजुट होकर, सामूहिक शक्ति और नेतृत्व का निर्माण कर, परिवर्तन का साझा अजेंडा बनाकर, उसे सामूहिक रूप से अपनाते है और क़ायम रखते है।‘ आंदोलन कुछ लोगों का ग्रुप होता है जिनका किसी अन्याय का एक-जैसा अनुभव होता है, जो खुद को एकजुट करके अपनी सामूहिक शक्ति और नेतृत्व का निर्माण करते हैं, परिवर्तन का साझा अजेंडा बनाते हैं, जिसे वे सामूहिक कार्यवाही के माध्यम से अपनाते हैं, जिसमें समय के साथ निरंतरता बनी रहती है।
ग़ौरतलब है कि किसी भी आंदोलन को आंदोलन बनाने के लिए इन ख़ास बातों के बिना हम आंदोलन नहीं कह सकते है –
जब समूह में हो ‘अन्याय का साझा अनुभव’
‘साझा अनुभव’ मतलब – एक जैसा या एक समान अनुभव, जिससे समूह से जुड़े लोग जुड़ाव महसूस करें। इसका मतलब ये है कि आंदोलन उन लोगों को एकजुट करता है जो किसी अन्याय से प्रभावित होते हैं और यह लोग आंदोलन की जान होते हैं – वे किसी ग़ैर-सरकारी संस्था के कार्यक्रम या परियोजना के लाभार्थी या लक्षित समूह, या पीड़ित, या किसी कल्याणकारी सेवा को पाने के लालसा नहीं रखते। यही लोग बदलाव के लिए संघर्ष करते हैं, क्योंकि उन्हें ही अपनी स्थिति में बदलाव लाने से सबसे ज़्यादा लाभ मिलेगा, क्योंकि इनमें अन्याय का साझा अनुभव होता है।
जब समूह से हो ‘सामूहिक शक्ति का निर्माण’
लोगों के लिए व्यक्तिगत रूप से या छोटे समूहों में काम करके अपनी स्थिति में बदलाव लाना या सत्ता के ढाँचों को चुनौती देना बहुत मुश्किल होता है। उन्हें अपनी सामूहिक शक्ति बढ़ानी ज़रूरी है, जिससे वे बदलाव लाने का एक प्रभावकारी ज़रिया बन जाएँ, एक ऐसी ताक़त जिसे आसानी से नज़रंदाज़ या दबाया न जा सके। इसलिए आंदोलन ऐसे लोगों और समुदायों को एकजुट करते हैं जो किसी ढाँचागत तरीक़े से बदलाव लाना चाहते हैं – अनौपचारिक या औपचारिक संस्थाओं के माध्यम से (जैसे कि नेट्वर्क, यूनियन, संघ, समूह, आदि)। यह जगहें आंदोलन के सदस्यों के लिए ख़ास जगह होती है जहां वे मिलते हैं, अपने मुद्दों पर चर्चा करते है, उनके साथ हो रहे अन्याय के मूल कारणों का विश्लेषण करते हैं, बदलाव का अजेंडा तैयार करते हैं, नेतृत्व बनाते हैं और अपनी रणनीतियाँ बनाते हैं।
जब आंदोलन का हो अलग-अलग स्तर पर नेतृत्व
आंदोलन का नेतृत्व एक नहीं होता, बल्कि अलग-अलग स्तर पर इसमें अलग-अलग नेतृत्व होते है। एकजुट होने की प्रक्रिया, अपने मुद्दों पर मिलकर चर्चा और विश्लेषण करना और बदलाव का अजेंडा तैयार करना, इस प्रक्रिया से ही आंदोलन का नेतृत्व तैयार होता है। मज़बूत आंदोलन विभिन्न स्तरों पर नेतृत्व तैयार करते हैं, ख़ासकर अगर उनकी सदस्यता काफ़ी ज़्यादा हो और वे अक्सर नेतृत्व के सामूहिक स्वरूपों का प्रयोग करते हैं जिससे कि कुछ गिने-चुने लोग आंदोलन पर हावी न हो जाएँ। हालाँकि ख़ास बात यह है कि आंतरिक नेतृत्व आंदोलन मज़बूत बनाते हैं और बाहरी नेताओं पर निर्भर नहीं होते, हालाँकि बाहरी नेता शुरुआत के चरणों में आंदोलन निर्माण में भूमिका रख सकते हैं।
आंदोलन किसी अन्याय का एक-जैसा अनुभव रखने वाले लोगों का समूह होता है, जो एकजुट होकर, सामूहिक शक्ति और नेतृत्व का निर्माण कर, परिवर्तन का साझा अजेंडा बनाकर, उसे सामूहिक रूप से अपनाते है और क़ायम रखते है।
जब आंदोलन से बदलाव के लिए हो साझा अजेंडा
आंदोलन जिस अन्याय के ख़िलाफ़ संघर्ष करता है उनके मूल कारणों, उद्देश्य और प्राथमिकताओं, किस बदलाव के लिए काम करना है और इसके लिय क्या रणनीतियाँ अपनाई जाएँगीं – इन सबका हमेशा सामूहिक विश्लेषण करता है। वह पहचान करते हैं कि इस प्रक्रिया में उनके साथी कौन होंगें, विरोधी कौन हैं और बदलाव लाने के लिए लक्ष्य कौन हैं – सरकारी संस्थान या नीतियाँ, अन्य सामाजिक समूह, निजी संस्थान या व्यापक समाज। यह सब मिलकर आंदोलन का ‘राजनीतिक अजेंडा’ बनाता है। इसे हम राजनीतिक अजेंडा इसलिए नहीं कहते कि यह राजनीतिक दलों या चुनावों के लिए बनाया जाता है, बल्कि इसलिए क्योंकि यह राजनीतिक शब्द के सही अर्थ से संबंधित है : सत्ता के ढाँचों में बदलाव लाना। आंदोलन ऐसी सत्ता व्यवस्थाओं में बदलाव के लिए काम करते हैं जो अन्याय पैदा करती हैं, वे आंदोलन के सदस्यों के लिए संसाधन जुटाने या सेवाएँ देने के लिए काम नहीं करते। यह अजेंडा स्थिर नहीं होता है। आंदोलन का राजनीतिक अजेंडा समय के साथ उभरता है, उनकी कार्यवाही और गहरे विश्लेषण के साथ और जैसे-जैसे उनकी सत्ता ढाँचों की समझ और बदलाव की रणनीतियाँ अनुभव के साथ पैनी होती जाती हैं।
जब आंदोलन में हो सामूहिक कार्यवाही
यह आंदोलन का प्रमुख पहलू होता है – आंदोलन के सदस्यों द्वारा, अपने उद्देश्यों की दिशा में और अपने राजनीतिक अजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए की जाने वाली कार्यवाही। हम अक्सर आंदोलन की कर्यवाहि को टकरावपूर्ण मानते हैं – ‘आंदोलन’ शब्द सुनते ही हमारे मन में जुलूस, विरोध, रैली की ही तस्वीरें सामने आती हैं। लेकिन वास्तव में, आंदोलन अन्य तरीक़ों से भी काम करते हैं, जैसे कि ज़न वकालत, सोशल मीडिया अभियान, सार्वजनिक जागरूकता आदि। कभी-कभी तो आंदोलन अपने खुद के समुदायों को ही बदलाव की प्रक्रिया का लक्ष्य बनाते हैं। जैसे – कई महिला आंदोलन अपने ही परिवारों या समुदायों में पुरुषों और लड़कों के नज़रिए को बदलने के लिए काम करते हैं और कई बार ये उनकी सामूहिक कार्यवाही की शुरुआत भी होती है।
जब आंदोलन में हो समय के साथ निरंतरता
चूँकि आंदोलन गहरी जड़ों वाले अन्यायों को संबोधित करते हैं, उन्हें पता होता है कि बदलाव आने में समय लगेगा और आंदोलन को अपने उद्देश्य प्राप्त करने के लिए लंबे समय तक लगातार काम करना होगा। इसलिए, आंदोलन स्वाभाविक विद्रोह या अल्प-क़ालीन अभियान नहीं होगा, जैसे कि महिला दिवस का जुलूस या सोलह दिवसीय अभियान का कार्यक्रम। ऐसे कार्यक्रम साल-दर-साल चलते है और हर साल मौजूदा समय की चुनौतियों को अपने इस अभियान में शामिल करते है जो इसे एक मज़बूत आंदोलन का रूप देने में अहम भूमिका अदा करता है।
ये सभी आंदोलन की जो ख़ासियत है जो किसी भी सामूहिक गतिविधि को आंदोलन का स्वरूप देती है। इनके बिना आंदोलन का निर्माण संभव नहीं होता है और कई बार कुछ आंदोलन में हम इनमें से कुछ गुण तो देख पाते है लेकिन कुछ ग़ायब होते है, जिसकी वजह से कई बार आंदोलन बीच में ही बिना लक्ष्य की पूर्ति किए ख़त्म हो जाते है।
(संदर्भ : आंदोलन का महत्व – श्रीलता बाटलीवाला)