नारीवाद औरतें और पितृसत्ता की रची परिभाषाएं

औरतें और पितृसत्ता की रची परिभाषाएं

पितृसत्ता की जड़ों ने स्त्रीत्व की परिकल्पना को स्त्री के मस्तिष्क में इतने अचूक तरीके से भर दिया, कि वह आज तक इस मानसिक अनुकूलन से पार न पा सकी।

‘पितृसत्ता’, शायद ही हमारी माँओं ने यह शब्द कभी सुना हो! क्या हमारी माँएं समझती हैं नारीवाद? अगर आपका इन दोंनो सवालों का जवाब न में है तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। हम सभी इस बात से भली-भांति परिचित हैं कि पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री को महज़ मां, पत्नी, बेटी, बहु आदि रूप में ही स्वीकार किया गया है। पितृसत्ता की बताई गई भूमिकाओं में ही औरतें सीमित रहना जानती हैं। इन्हीं कारणों से स्त्री न जाने कितने समय से अपने स्त्रीत्व की मर्यादा बनाए रखने के लिए पितृसत्ता के बनाए रास्ते पर चलते हुए पुरुष की निजी सम्पति बनी रही है।

पितृसत्ता द्वारा निर्धारित सीमाओं को तोड़ने के भय से या यूं कहें कि पितृसत्तात्मक मानसिक अनुकूलन के मकड़ जाल में फंसे होने के कारण, अपनी इच्छा से औरतें पुरुष-समाज द्वारा गढ़े गए तथाकथित आदर्श स्त्री के नियमों को अपने व्यक्तित्व का आवश्यक अंग मान उसका पालन करती है। वे पितृसत्तात्मक समाज द्वारा बनाए गए ‘आदर्श स्त्री’ के खांचे में खुद को हर प्रकार से ढालने का प्रयास करती हैं।

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देखा जाए तो मनुस्मृति तो सिर्फ एक उदाहरण है, पितृसत्तात्मक समाज ने स्त्री को हर तरीके से, कभी शस्त्र से तो कभी शास्त्र से मात्र दबाया और कुचला ही है।

वास्तविकता के धरातल पर विचार किए जाने पर यह पता चलता है कि ‘स्त्रीत्व’ की परिभाषा पितृसत्ता द्वारा गढ़ी गई। इसमें स्त्री के चरित्र को शालीनता, त्याग-तपस्या, सयंम, संवेदनशीलता, धैर्य, नम्रता और सौम्यता जैसी संज्ञाओं को इस तरह से जोड़ दिया गया मानो इन गुणों के बग़ैर उसका चरित्र ढेले के समान हो। पितृसत्ता की जड़ों ने स्त्रीत्व की परिकल्पना को स्त्री के मस्तिष्क में इतने अचूक तरीके से भर दिया, कि वह आज तक इस मानसिक अनुकूलन से पार न पा सकी।

मनुस्मृति को हिन्दू धर्म का अत्यंत प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता है। इसमें स्त्रियों के व्यवहार और कर्तव्य से सम्बंधित विभिन्न नियम बताए गए हैं। इसके अनुसार एक स्त्री का स्त्रीत्व अपने पति के प्रति वफादारी, कर्तव्यपरायणता और धर्मनिष्ठा इत्यादि पर निर्भर करता है। देखा जाए तो मनुस्मृति तो सिर्फ एक उदाहरण है, पितृसत्तात्मक समाज ने स्त्री को हर तरीके से, कभी शस्त्र से तो कभी शास्त्र से मात्र दबाया और कुचला ही है।

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पितृसत्ता की दृष्टि में हमारे समाज की सबसे बड़ी उपलब्धि स्त्री के स्त्रीत्व और उसके सौंदर्य का सामाजीकरण है। स्त्री का सौंदर्य ही मात्र एक ऐसा माध्यम है जिससे पुरुष अपनी दैहिक, मानसिक और सामाजिक जरूरतों को संतुष्ट करता है। ध्यान से देखा जाए तो पुरुष की दृष्टि में स्त्री मात्र एक देह है। पुरुष ने स्त्री की मानसिकता में भी इस भावना को कूट-कूट कर भर दिया है। वह खुद को भी मात्र एक शरीर से ज्यादा कुछ और समझने या अपने शरीर के अतिरिक्त अपनी किसी और पहचान को स्वीकारने से दूर भागती है।

हम अच्छे से जानते हैं कि स्त्री ने अपने स्त्रीत्व की परिभाषा खुद नहीं गढ़ी। स्त्रीत्व के सारे सिद्धांत, सारे नियम और सारे कानून पितृसत्तात्मक समाज द्वारा तय किए गए। त्याग, बलिदान, आत्मसमर्पण, सहनशीलता, और आत्मदान पितृसत्तात्मक समाज द्वारा स्त्रीत्व के कुछ ऐसे लक्षण बताए गए हैं जिसे स्त्री अपना जरूरी आभूषण मानकर खुद को कोई दैवीय शक्ति मानने के जाल से अब तक मुक्त नहीं हो पाई है।

पुरुष के लिए स्त्री सिर्फ एक वस्तु है जो उसकी सम्भोग और संतान की इच्छा को पूरा करने भर के लिए है। पितृसत्तात्मक समाज के अनुसार यही उसका स्त्रीत्व है। ऐसा लगता है मानो पितृसत्तात्मक समाज ने यह प्रण लिया हो कि वह उसे देह से आगे बढ़ने ही नहीं देगा। खुद स्त्री भी पितृसत्तात्मक मानसिकता के घेरे में फंसकर, खुद को प्रदर्शन की मात्र एक वस्तु मान बैठी। उसके देह के आगे, समाज को उसकी सारी बौद्धिकता और सारी उपलब्धियां बेकार नज़र आती है। यह पितृसत्तात्मक समाज ने ही औरतों को सिर्फ कमर, नितम्ब और छाती तक ही सीमित कर रखा है।

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हम अच्छे से जानते हैं कि स्त्री ने अपने स्त्रीत्व की परिभाषा खुद नहीं गढ़ी। स्त्रीत्व के सारे सिद्धांत, सारे नियम और सारे कानून पितृसत्तात्मक समाज द्वारा तय किए गए। त्याग, बलिदान, आत्मसमर्पण, सहनशीलता, और आत्मदान पितृसत्तात्मक समाज द्वारा स्त्रीत्व के कुछ ऐसे लक्षण बताए गए हैं जिसे स्त्री अपना जरूरी आभूषण मानकर खुद को कोई दैवीय शक्ति मानने के जाल से अब तक मुक्त नहीं हो पाई है। वह स्त्रीत्व के इन लक्षणों को अपना आभूषण समझकर उसे बिना किसी ऊब, बिना किसी निराशा और बिना किसी हिचकिचाहट के आज तक पहने हुए है। वह इन गुणों के बिना अपने व्यक्तित्व की सार्थकता पर संदेह प्रकट करती है। इन लक्षणों के बिना वह अपने स्त्रीत्व पर प्रश्नचिन्ह लगाती है और अपने नारीत्व को अधूरा मानती है।

पितृसत्ता की जड़ों ने स्त्रीत्व की परिकल्पना को स्त्री के मस्तिष्क में इतने अचूक तरीके से भर दिया, कि वह आज तक इस मानसिक अनुकूलन से पार न पा सकी।

हमें समझने की जरूरत है कि पितृसत्तात्मक समाज ने स्त्री के स्त्रीत्व का अलंकरण कुछ इस हद तक कर दिया है, कि स्त्री इस अलंकरण को अपनाए रखने में खुद को सामाजिक सम्मान का हक़दार समझती है। इस मानसिक अनुकूलन में वह खुद को इतना ढाल चुकी है कि शोषक वर्ग द्वारा किया जा रहा शोषण उसे नज़र नहीं आता।

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तस्वीर: सुश्रीता बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

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