किसी लड़ाई को लड़ते हुए उसकी स्थानीयता का बहुत बड़ा असर होता है क्योंकि वह ज़मीन, वहां के लोगों के विचार, उनके रीति-रिवाज, परंपरा और मान्यताएं बहुत हद तक लड़ाई की परिस्थितियों को तय करते हैं। हमारे भारतीय समाज में, खासकर यहां के जड़ सामन्ती परिवेश का जो ग्रामीण क्षेत्र है जहां जाति- व्यवस्था की जड़ें अब भी बहुत नहीं टूट पाई हैं वहां उस सामन्ती समाज से लड़ते हुए लड़ाई कितनी जटिल और भयावह होती है इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। आज के अठ्ठाइस साल पहले राजस्थान के एक बेहद सामंती गाँव भटेरी में आजीवन रहकर जो लड़ाई भंवरी देवी ने लड़ी वह बेहद कठिन थी जिसका अनुमान आप उस समाज को समझकर लगा सकते हैं क्योंकि एक सवर्णों के गाँव में कुम्हार जाति की एक गरीब स्त्री की लड़ाई नगरीय जीवन को जीते किसी मनुष्य से कहीं ज्यादा कठिन थी।
भंवरी देवी महिला विकास परियोजना के तहत अपने गाँव की साथिन थीं। उन्होंने गाँव में हो रहे बाल-विवाह का विरोध किया, उच्च जाति का एक परिवार अपनी एक साल की बच्ची का विवाह कर रहा था। भंवरी देवी ने एक साथिन होने की अपनी जिम्मेदारी के तहत अपना काम किया जिसके कारण गाँव के सामंती सवर्ण नाराज़ हो गए। वह भंवरी देवी को सजा देने के लिए कई तरह से प्रताड़ित करते रहे उन्होंने अपने रसूख से उनका सामाजिक बहिष्कार किया। आखिरकार जब वह अपने खेत में अपने पति के साथ काम कर रही थीं तो जाकर उन्होंने उनके पति को बुरी तरह पीटा और जब वह बचाने के लिए आगे आई तो उनका सामूहिक बलात्कार किया गया।
जब वह एफआईआर दर्ज करवाने जब वह थाने गई तो थानेदार ने पहले डांटकर भगा दिया लेकिन महिला विकास परियोजना के लिए कार्य करती सामाजिक कार्यकर्ता का दबाव पड़ा तो थानेदार ने एफआईआर तो लिखी लेकिन भंवरी देवी से अश्लील संवाद करते हुए उनसे उनका घाघरा जांच के लिए उतरवा लेता है और तब तन ढंकने के लिए साथ आए भंवरी देवी के पति ने अपनी पगड़ी खोलकर उन्हें दी जिसको उन्होंने कमर में बांधकर घाघरा उतार कर थानेदार को दिया। एक लोकतांत्रिक और समतामूलक समाज की आकांक्षा लिए कुछ समूह और संगठन आपके साथ खड़े भी हो लेकिन सत्ता और पूंजी के अपने गठजोड़ पूरे तंत्र को प्रभावित ही करते हैं। अब इस लड़ाई की कठिनाई और भयावहता का अंदाजा आप यहीं से लगा सकते हैं जिन्होंने उन्हें गाँव में साथिन बनाया था वह स्त्रियों के लिए संघर्ष करती सामाजिक कार्यकर्ता थीं और भंवरी देवी के साथ हुए अन्याय के विरुद्ध वे लगातार साथ रहीं। बाद में और भी महिला संगठन साथ आए लेकिन समाज का उच्च वर्ग जिनके सत्ता के साथ गठजोड़ थे उनके साथ लड़ाई लड़ना बहुत कठिन रहा।
कितनी बड़ी विडंबना थी यह थी कि कोर्ट ने फैसले में ये कहा, “कोई उच्च जाति का पुरुष, निम्न जाति की स्त्री का बलात्कार नहीं कर सकता।” अगर वह न्यायधीश किसी ग्रह से उतर कर नहीं आया हो तो बखूबी जानता होगा कि तथाकथित उच्च जातियों के पुरुषों द्वारा दलित-बहुजन जाति की स्त्रियों के साथ इस तरह की हिंसा व बर्बरता हमेशा से की गई है।
ऐसी लड़ाइयां लड़ना समाज में हमेशा से दुष्कर होता है। लेकिन जब पूरा परिवेश ही उस अन्याय के साथ खड़ा हो तो लड़ाई की राह कई गुना कठिन हो जाती है जब हम इस तरह की लड़ाइयों का अध्ययन करेंगे तो देखेंगे कि किसी जड़ सामंती परिवेश और जाति के गर्व में डूबे समाज खासकर गंवई जमीन पर रहते हुए इस तरह की लड़ाई कम मिलेगी या नहीं मिलेगी। स्थानीयता को जीते हुए जीवन में उससे जद्दोजहद करना, अपनी लड़ाई के साथ, पूरे परिवेश की लड़ाई भी लड़ना इस संघर्ष का ये बहुत महत्वपूर्ण बिंदु है। इस पूरे संघर्ष में महिला संगठनों के साथ भवरी देवी के पति की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है जिन्होंने संघर्ष की इस राह पर सामाजिक और पारिवारिक दबाव में न आकर अपनी पत्नी का साथ दिया उनके हर कदम में कदम मिलाकर साथ चलते रहे और एक न्याय की लड़ाई लड़ते हुए कदम कदम पर निराशा को झेलते हुए भी लड़ाई से कभी हताश नहीं हुए ।
किसी देश में स्त्री के साथ हुए अत्याचार के खिलाफ लड़ना जब इतना कठिन हो जाता है कि तमाम महिला संगठनों के साथ खड़े होने के बावजूद निचली अदालत का फ़ैसला इतना अन्यायपूर्ण आता है कि उससे सिर्फ़ शर्मिंदा हो जाया जा सकता है। कितनी बड़ी विडंबना थी यह थी कि कोर्ट ने फैसले में ये कहा, “कोई उच्च जाति का पुरुष, निम्न जाति की स्त्री का बलात्कार नहीं कर सकता।” अगर वह न्यायधीश किसी ग्रह से उतर कर नहीं आया हो तो बखूबी जानता होगा कि तथाकथित उच्च जातियों के पुरुषों द्वारा दलित-बहुजन जाति की स्त्रियों के साथ इस तरह की हिंसा व बर्बरता हमेशा से की गई है।
इसका गहरा भारतीय ख़ासकर सामंती समाजिक जमीन का अध्ययन न भी हो तब भी इस तरह की घटनाएं, खासकर गाँवों में जो घटती आ रही हैं उनके विषय में हम सब जानते-सुनते रहते हैं। इसी तरह की दलीलें न्यायधीश ने दी जो एकदम अवैज्ञानिक थीं, जिनका कोई आधार नहीं था। जैसे कि चाचा-भतीजा एक-दूसरे के सामने किसी स्त्री का बलात्कार नहीं कर सकते। भंवरी देवी के पति पर सवाल उठाते हुए कहा कि कोई पति किसी भी हालत में अपनी पत्नी का बलात्कार नहीं देख सकता क्यों कि भारतीय संस्कृति में यह संभव नहीं है कि एक व्यक्ति जिसने पवित्र अग्नि के सामने अपनी पत्नी की रक्षा करने का व्रत लिया हो, वह बस खड़ा हो और अपनी पत्नी के साथ बलात्कार होते हुए देखता रह जाए। न्यायधीश की ये सारी दलीलें एकदम से आधारहीन और पक्षपात पूर्ण हैं।
एक लोकतांत्रिक और समतामूलक समाज की आकांक्षा लिए कुछ समूह और संगठन आपके साथ खड़े भी हो लेकिन सत्ता और पूंजी के अपने गठजोड़ पूरे तंत्र को प्रभावित ही करते हैं। अब इस लड़ाई की कठिनाई और भयावहता का अंदाजा आप यहीं से लगा सकते हैं जिन्होंने उन्हें गाँव में साथिन बनाया था वह स्त्रियों के लिए संघर्ष करती सामाजिक कार्यकर्ता थीं और भंवरी देवी के साथ हुए अन्याय के विरुद्ध वे लगातार साथ रहीं। बाद में और भी महिला संगठन साथ आए लेकिन समाज का उच्च वर्ग जिनके सत्ता के साथ गठजोड़ थे उनके साथ लड़ाई लड़ना बहुत कठिन रहा।
भंवरी देवी ने जो लड़ाई लड़ी उनको उसके साथ ही और लड़ाइयों को लड़ना पड़ा, अपनी पूरी रहनवारी, घर-परिवार बिरादरी, समाज व परिवेश की लड़ाई थी। अगर उनके पास कोई जीविका का ठोस आधार होता, अगर वह गाँव छोड़कर किसी नगर में रहकर अपनी लड़ाई लड़ती तो एक सामाजिक तिरस्कार जो वह आजीवन झेलती रहीं घृणा की दृष्टि से हमेशा बेधी जाती रहीं उससे शायद कुछ निजात होती। लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि वह गाँव छोड़कर कहीं और कुछ करके अपना और अपने परिवार का गुजारा करती। उनको जो पैसे तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव से मिली थी उसी से भोज देकर वो अपनी बिरादरी में शामिल हुईं। यहां हम ऐसा सोच सकते हैं कि ऐसी बिरादरी में शामिल ही क्यों होना जो एक रेप सर्वाइवर स्त्री का तिरस्कार करे लेकिन जो आजीवन गाँव में रह रहा हो, उस गाँव के सिवा उसके पास जीवनयापन का कोई आधार न हो और गाँव का तथाकथित उच्च तबका उसका दुश्मन हो तो सामान्य मनुष्य होने के नाते एक साथ एक समूह की उसे जरूरत होती है।
इस घटना के बाद अपने ही परिवार यहां तक पिता-भाई सबने उनका बहिष्कार कर दिया जब पिता की मृत्य हुई तो अंत्येष्टि में भाई उन्हें शामिल नहीं होने दे रहे थे तब उन्होंने जो पैसे उन्हें मिले वही पिता के श्राद्ध आदि के लिए दिए तो उन्हें पिता की अंत्येष्टि में शामिल किया गया। कितनी बड़ी विडंबना है ये हमारे समाज की किसी के साथ अन्याय हो तो कौन कहे साथ खड़ा हो जाए वह विभिन्न प्रकार से सर्वाइवर को प्रताड़ित ही करता है। आप आज भी यहां के गाँवों में इस तरह के अन्याय को देख सकते हैं
जब आप किसी घटना को अखबार या चैलन पर देखकर समझते हैं कि हम भी परिचित हैं उस घटना से लेकिन जहां वह घटना घटी उस जमीन की सतहें जानना ही उसकी सही पीड़ा से पहचान होती है। गाँव में अरहर और ईख के खेत इस तरह के जघन्य अपराधों के लिए कुख्यात रहे हैं जो कि क्रूरता और पीड़ा की इंतहा जानने का स्रोत हैं। लेकिन ग्रामीण लोक में उसे हास्य के विद्रूप शब्दावली में बरता जाता है जहां पितृसत्तात्मक समाज और जाति की सत्ता इतनी हावी है कि हाशिये के मनुष्य को मनुष्य मानती ही नहीं।
जब आप इस लड़ाई का गहराई से अध्ययन करेगे तो देखेगें कि ऐसे लंबे संघर्षों में निराशा और उदासीनता भी खूब दिखती है। एक लंबी लड़ाई लड़ते हुए मनुष्य को साथ आए लोग भी भूलने लगते हैं, आर्थिक और सामाजिक दिक्कतें बढ़ती जाती हैं। बाद में भंवरी देवी को नीरजा भनोट अवार्ड भी मिला लेकिन उनके जीवन के संघर्ष बढ़ते ही गए। एक मनुष्य खासकर जिस वर्ग, जातिगत पहचान और ज़मीन से भंवरी देवी आती हैं उनके खुद के जीवन जीने के अन्य बड़े संघर्ष भी होते हैं। सर्वहारा समाज की स्त्री का जीवन एक पुरुष जीवन से कहीं त्रासद होता है। वह बहुत कुछ झेलती है जो शायद समाज में कोई वर्ग झेलता हो। उनकी पीड़ाएं अभी बहुत अकथ हैं। जब हम इस तरह की किसी परिघटना की विडम्बना को सोचते हैं तो सौ घटनाएं सामने आकर खड़ी हो जाती हैं जिनकी पीड़ा पर कभी कोई बात नहीं हो पाती
लेकिन कितनी बदली ये दुनिया, लगभग तीन दशक बाद जब हम आज इसी संघर्ष की परिणीति पर जाएं तो देखेगें कि न्याय इतना घिसटकर भंवरी देवी तक पहुंचा कि उनकी लड़ाई में हर कदम पर साथ खड़े रहे उनके जीवन साथी का निधन हो गया है। वह नहीं देख सके आए हुए न्याय की शक्ल और दुष्कर्म करने वाले भी कुछ लोग अपना जीवन जीकर मर गए तो इतनी देर में मिले न्याय का ही कितना अर्थ बचता है अगर बचता है अर्थ तो लड़ाई का, लड़ रहे मनुष्यों की जीवटता का, उनके जुझारूपन का, इस लड़ाई ने एक नज़ीर पेश की औऱ सुप्रीम कोर्ट ने महिला सुरक्षा को लेकर विशाखा गाइडलाइंस बनाई।
जब हम इस परिघटना को ध्यान से देखते हैं तो कई मिथक भी टूटते हैं जैसे अक्सर तमाम संगठनों को लेकर बहस उठती है कि अपने आदर्श रूप में नहीं हैं या महिला संगठनों को लेकर भी ये बहसें उठती हैं। ये आंतरिक कमियां जो कि काफी हद तक सच भी होती हैं लेकिन इन सबके बावजूद भी हाशिये के समाज की लड़ाई को वे सामने लाते हैं चाहे वह अपने प्रोपेगैंडा के तहत ही लेकिन कुछ न कुछ अर्थ निकल ही आता है उनसे। हम इसी लड़ाई को देखें तो कई संगठनों के सहयोग से ये लड़ाई दिल्ली तक पहुंची, नहीं तो सूदूर गाँवों, कस्बों में तो ऐसे अपराध हो जाते हैं किसी अखबार में आरोप के रूप में छपे नहीं तो वह भी न हुआ।
स्थायी रोजगार की व्यवस्था हो बलात्कार पीडिताओ के लिए। इसके लिए गाइडलाइंस बने व पालन हो एफआईआर दर्ज होने के साथ । क्षतिपूर्ति में मिला पैसा लोग ठग ही लेते है पीड़िता से।