इंटरसेक्शनलजेंडर स्त्री हिंसा: हमारे घरों में क्यों कोई प्रतिकार या प्रतिरोध नज़र नहीं आता

स्त्री हिंसा: हमारे घरों में क्यों कोई प्रतिकार या प्रतिरोध नज़र नहीं आता

औरतें आर्थिक और सामाजिक रूप से इतनी पराधीन हैं कि मुक्ति की कोई राह नहीं दिखती लेकिन पुरुषों की तरह सब जानने का दंभ नहीं दिखता। वे न्याय और करुणा के संदर्भ में पुरुषों से कहीं ज्यादा उदार हैं और उसकी बात करते हुए ठहर कर सुनती हैं और समझने की कोशिश करती हैं।

इन दिनों सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हुआ था जिसमें बच्चे का जन्मदिन है, केक काटने की तैयारी है और पति अपनी पत्नी को पीट रहा है। आप अगर सही में संवेदनशील हैं तो इस वीडियो को देखकर मन दुख और संताप से भर जाएगा। बात पत्नी को मारने भर की नहीं है। बात है कि हम इतनी हिंसा और अन्याय सहने के कैसे आदी हो गए हैं। वहां पत्नी खुद पर हो रही हिंसा को लेकर कैसे सहज है यह बात हमें बेचैन कर देगी। अंग्रेज़ी में गाली देता हुआ पति लगातार मारता चला जा रहा है, पत्नी नीचे गिर पड़ती है लेकिन तुरंत उठकर बच्चे को सहज कर रही है कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। 

एकबारगी वीडियो देखकर मन विचलित होगा ही लेकिन जब आप उस दृश्य की गंभीरता में उतरेंगे तो मन पीड़ा के साथ अवाक भी होता है कि कैसे वह स्त्री मार खाए जा रही है। कोई प्रतिरोध नहीं, कोई प्रतिक्रिया नहीं जैसे उसके पति का उसे मारना दैनिक जीवन की एक सामान्य हो रही क्रिया है। मैं जिस परिवेश में हूं वहां खूब देखा है इस तरह की तमाम हिंसक गतिविधियां जिनमें बेहद अश्लील गालियां प्रमुख हथियार होतीं हैं पुरुषों का और वे अपने इस घिनौने पुरुषार्थ पर शर्मिंदा होने की जगह अहम से भरे होते हैं।

सोशल मीडिया पर दिखा एक घर का यह वीडियो किसी भी भारतीय समाज की स्त्री हिंसा को करीब से जानने वाले को सामान्य लग सकता है लेकिन वह विडम्बना की तरह मन में छूट सा जाता है पुरुष मारता है और स्त्री गिर पड़ती है। वह उठकर एकदम सामान्य सी होकर अपने बच्चे को केक काटने को कह रही है। बच्चे के लिए वातावरण को सामान्य बनाने की उसकी वह कोशिश दर्द से हमें अंदर तक बेध देती है। इस मर्दवादी समाज को उनकी क्रूरता का आईना दिखाती है बताती है कि देखो तुम्हारी हिंसा और क्रूरता इतनी दीर्घ हो गई है कि हमारी आदत बन गई है। रमाशंकर विद्रोही ने लिखा है:

औरतें रोती जाती हैं, मरद मारते जाते हैं
औरतें रोती हैं, मरद और मारते हैं
औरतें ख़ूब ज़ोर से रोती हैं
मरद इतनी जोर से मारते हैं कि वे मर जाती हैं

आए दिन घट रहे इन दृश्यों को देखकर कहा जा सकता है कि रमाशंकर विद्रोही ने जिस हिंसा को नापकर लिखी होगी यह कविता, वह मर्दवादी समाज अपनी हिंसा की माप को कब का तोड़कर आगे बढ़ता जा रहा है। वह डर और यातना की और ताकतवर दुनिया बनाता जा रहा है स्त्री के लिए, जिसमें स्त्री प्रतिकार करना भी भूल गई है। अब इसमें यह कहना कि क्यों कोई स्त्री प्रतिकार नहीं करती तो यह जल्दबाज़ी में किया गया प्रश्न होगा। ऐसा नहीं है कि कहीं कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। प्रतिक्रियाएं या प्रतिरोध हुए हैं लेकिन बेहद कम। वह स्त्री मुक्ति के लिए पर्याप्त नहीं है और मुक्ति अकेले की नहीं होती है यह जगजाहिर बात है। उसमें यह भी देखना होगा कि मुक्ति की ठीक-ठीक दिशा की तरफ चलना होगा क्योंकि संपूर्ण मुक्ति का रास्ता जानना सबसे आवश्यक है।

विदर्भ में मेरे घर के आसपास घरेलू कामगार औरतों के घर थे। वे उच्च वर्ग या मध्यवर्ग के घरों में काम करने जाती थीं। मैं अक्सर उनसे स्त्रियों को लेकर विचार, उनकी समस्याएं उनके काम और वेतन, रहन-सहन आदि पर बातचीत करती रहती थी। ये बातचीत बताती थी कि कैसे स्त्री हर जगह घर, बाहर, रास्ते में कार्यस्थल पर कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में शोषित है। मैं हमेशा गाँव में रही इसलिए गंवई समाज और गंवई औरतें मेरे जानने और अध्ययन के केंद्र रहे। इसके पहले मैं शहरी स्त्रियों के जीवन को खासकर सर्वहारा स्त्रियों के संघर्ष को करीब से नहीं देखा था। यहां रहकर शहरी स्त्रियों शहरी कामगार स्त्रियों, निमार्ण मजदूर स्त्रियों आदि की समस्याएं, उनके संघर्ष उनसे लगातार बातचीत से जाना और समझने की कोशिश की। 

यही हमारा समाज है स्त्रियों के लिए। अन्याय से भरा हुआ जहां कूट-कूटकर लड़कियों में हिंसा और अन्याय को सहना है, इस विचार को भरा जाता है और साफ कहा जाता है कि निभाओ पति से, जान भले ही तुम्हारी चली जाए।

एक महत्वपूर्ण और मजेदार बात मुझे अक्सर याद आती है। वे औरतें अक्सर कुछ सम्मोहन में भरकर मुझसे अक्सर कहती, “भाभी उधर पूरब के मर्द आप सबके की तरफ के लोग बड़े अच्छे होते हैं अपनी स्त्रियों का बड़ा मान-दुलार करते हैं, उनको मारते-पीटते नहीं। मैंने हंसते हुए उस पल यही कहा था कि मर्द हर जगह के लगभग एक जैसे ही होते हैं। हमारे यहां भी ऐसे ही मर्द हैं बल्कि मुझे तो वे स्त्रियों के लिए ज्यादा ही धूर्त लगते हैं अपनी तमाम हिंसाओं को छिपाने की चालाकी आती है। हां एक फर्क यह है कि कि जब आपके यहां के पुरुष स्त्रियों के साथ हिंसा करते हैं तो स्त्रियां उस हिंसा का कुछ न कुछ जवाब ज़रूर दे देती हैं। हमारे यहां जब पुरुष कमरे में मारते हैं तो कमरे से बाहर आते हुए औरतें अक्सर हंसते हुए आती हैं। वे जितना हो सकता है अपने साथ हुई हिंसा को छिपाती रहती हैं।

महाराष्ट्र में मैंने जितना देखा मुझे वो समाज स्त्री स्वतंत्रता के संदर्भ में पूरब से बेहतर लगा। पूरब की अपेक्षा वहां औरतें झूठी मान-मर्यादा के बोझ तले इस तरह नहीं दबी हैं और घर से बाहर निकल कर काम कर रही हैं। इसका कारण मैं वहां हुए तमाम सांस्कृतिक आंदोलनों को भी माना जाना चाहिए जिनके कारण स्त्रियों की दशा में कुछ बेहतर बदलाव हुए हैं। उनके साथ हो रही तमाम हिंसाओं पर उनकी प्रतिक्रिया करने की शक्ति को बल मिला। जिस समाज में आंदोलनों को सम्मान से देखा जाता है वहां उनसे उठे सवाल पर भी सोचा जाता है।

यह स्त्री हिंसा का सच इतना व्यापक और जटिल है कि बहुत सी आंखों देखी घटनाओं को याद करके आत्मा कांप जाती है। घराने में ही एक चाचा थे। उन्हें जब गुस्सा आता तो चाची को जलते हुए चूल्हे से कोई लकड़ी उठाकर उसी से मारते। देह जगह-जगह चोटिल होने के साथ जल भी जाती और घर-परिवार के लोग थोड़ा सा बीच-बचाव करके उसे सामान्य घटना की तरह लेते। इस तरह की तो इस छोटे से गाँव में पचास घटनाएं मिलेंगी। परिवार में ही एक बच्ची की शादी सूरत शहर के लड़के से हुई है। आए दिन वह जब रात में शराब पीकर आता है तो लड़की को मार- पीटकर घर से बाहर कर देता है और वह लड़की सारी रात कमरे के दरवाज़े पर बैठी रहती है बच्चों को लेकर।

यह कहना कि क्यों कोई स्त्री प्रतिकार नहीं करती तो यह जल्दबाज़ी में किया गया प्रश्न होगा। ऐसा नहीं है कि कहीं कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। प्रतिक्रियाएं या प्रतिरोध हुए हैं लेकिन बेहद कम। वह स्त्री मुक्ति के लिए पर्याप्त नहीं है और मुक्ति अकेले की नहीं होती है यह जगजाहिर बात है। उसमें यह भी देखना होगा कि मुक्ति की ठीक-ठीक दिशा की तरफ चलना होगा क्योंकि संपूर्ण मुक्ति का रास्ता जानना सबसे आवश्यक है।

आसपास गाँव-घर के लोग हैं लेकिन कोई भी बड़ा कदम नहीं उठाता। बस यह कहने के सिवाय कि चलो चलकर आज मेरे कमरे में रह लो। अब तो लड़की संघर्ष करके कुछ -कुछ बाहर काम कर रही है लेकिन उससे पति और बच्चे पाल रही है पर उस हिंसक पति से अलग नहीं हो पाई तो इसका यही अर्थ है कि यही हमारा समाज है स्त्रियों के लिए। अन्याय से भरा हुआ जहां कूट-कूटकर लड़कियों में हिंसा और अन्याय को सहना है, इस विचार को भरा जाता है और साफ कहा जाता है कि निभाओ पति से, जान भले ही तुम्हारी चली जाए।

मैं अपने आसपास हो रही स्त्री हिंसा की अलग-अलग तस्वीरों को जब एक फ्रेम में रखकर देखती हूं तो एक समानता हर घटना में देखती हूं स्त्री की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं बल्कि कुछ औरतें इस मार-पिटाई और गालीबाज समाज पर लहालोट भी होती हैं। हाल की ही एक स्त्री-हिंसा कि एक भयावह घटना याद आई। हमारी एक रिश्ते की बहन हैं। उनके यहां कोई रिश्तेदार आया था तो उनके पति से और उस रिश्तेदार से पांडित्य को लेकर बहस होने लगी कि कौन ज्यादा जानता है। बहस विवाद में बदल गयी, फिर मार -पीट में। हमारी रिश्ते की बहन इस झगड़े और हो रही मार-पीट को छुड़ाने गई तो उनके पति ने उन्हें इतनी क्रूरता से पीटा कि वह बेहोश हो गईं बाद में डॉक्टर को बुलाया गया।

कुछ दिनों के बाद में उन्होंने खुद मुझसे इस घटना का ज़िक्र किया और तब मैंने ध्यान से देखा पति की हिंसा पर उनके मन में कोई विद्रोह या आक्रोश का भाव नहीं था बल्कि आया हुआ रिश्तेदार जिससे झगड़ा हुआ उससे ज्यादा मार-पीट नहीं हुई इस बात को लेकर वह आश्वस्त दिखीं। इस पर लगातार बात करने से न्याय-अन्याय के सभी पक्षों को समझते हुए बात करते हुए आप पाएंगे कि वह समझ सकती हैं इस अन्याय और इस तरह के तमाम अन्यायों को, बस कंडीशनिंग से निकलना मुश्किल है। दूसरा यहां औरतें आर्थिक और सामाजिक रूप से इतनी पराधीन हैं कि मुक्ति की कोई राह नहीं दिखती लेकिन पुरुषों की तरह सब जानने का दंभ नहीं दिखता। वे न्याय और करुणा के संदर्भ में पुरुषों से कहीं ज्यादा उदार हैं और उसकी बात करते हुए ठहर कर सुनती हैं और समझने की कोशिश करती हैं।


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