बस्ती में अचानक से आती आवाज़ को सुनकर सभी बच्चे-महिलाएं इकट्ठा होने लगे थे। ये एक नया शोर था जो बस्ती में पहली बार था क्योंकि इस शोर में जो आवाज़ें थीं वे लड़कियों की थीं, जो बस्ती के लोगों को ज़्यादा आकर्षित कर रही थीं। राह में आने-जाने वाले लोग भी रुक-रुककर आवाज़ के रुख़ को समझ रहे थे। फिर धीरे-धीरे वे आवाज़ें साफ़ होती हुई गई और ‘नाटक, नाटक, नाटक’ के सुर और महिला हिंसा के ख़िलाफ़ नारे सुनाई देने लगे। इस बस्ती ने इससे पहले न तो कभी लड़कियों की ऐसी आवाज़ें सुनी थीं और न लड़कियों का ऐसा समूह देखा था, जो हाथ में ढफ़ली लिए नारे लगा रही थी और बस्ती के लोगों को इकट्ठा कर रही थीं।
ये वाराणसी ज़िले के सेवापुरी गाँव के वनवासी और दलित समुदाय की लड़कियां हैं जो कभी घर की दहलीज़ से बाहर नहीं निकलती थीं। इनमें से अधिक़तर लड़कियों की पढ़ाई जेंडर आधारित भेदभाव, ग़रीबी और सुरक्षा जैसे अलग-अलग कारणों छुड़वा दी गई। आज वही लड़कियां अपनी बस्तियों में जेंडर आधारित हिंसा और भेदभाव के ख़िलाफ़ नुक्कड़ नाटक के माध्यम से अपनी बातें पहुंचाने लगी हैं।
अब आप कहेंगें इसमें नया क्या है? नुक्कड़ नाटक तो अच्छा माध्यम है ही संदेश पहुँचाने का। संवाद का। और लड़कियाँ नुक्कड़ नाटक करें इसमें भी कोई नयी बात नहीं है। तो आपको बताऊँ ये नुक्कड़ नाटक और इसकी टीम में नयी से ज़्यादा कई प्रभावी बातें है, जिसे हमें समझने की ज़रूरत है जो नुक्कड़ नाटक के प्रभाव के एक नए पहलू सामने रखती है। इन लड़कियों ने पिछले कुछ महीनों में नुक्कड़ की शुरुआत की और नवंबर में शुरू हुए अंतर्रराष्ट्रीय जेंडर आधारित हिंसा के ख़िलाफ़ सोलह दिवसीय अभियान के तहत ग्रामीण क्षेत्रों में नुक्कड़ नाटक का मंचन शुरू किया, जिसका प्रभाव अब धीरे-धीरे सामने आने लगा है। नुक्कड़ नाटक में सक्रिय माधुरी, नेहा, आरती, करीना और अन्य लड़कियों से जब मैंने इसके अनुभव को लेकर बात की तो उन्होंने जो बातें बतायी वो नुक्कड़ नाटक के उन प्रभावों को दर्शाती है जो पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था को चुनौती देने के लिए काफ़ी सशक्त माध्यम है –
नुक्कड़ नाटक के ज़रिये: लड़कियों की गतिशीलता को बढ़ावा
तेंदुई गाँव की रहने वाली करीना बताती है, “हम पर घर से कहीं भी बाहर आने-जाने के लिए इजाज़त नहीं मिलती है। इसलिए हमारी की बस्ती की लड़कियां न तो ज़्यादा पढ़ती हैं न कहीं आती जाती हैं। लेकिन नुक्कड़ नाटक की टीम को लेकर बीते कुछ समय से हमने गाँव में होनेवाली किशोरी बैठक में जब जाना शुरू किया तो घर के दरवाज़े धीरे-धीरे खुलने लगे। इसका नतीजा यह हुआ है कि आज जब मैं खुद नुक्कड़ नाटक की टीम से जुड़ी मेरा देखा-देखी बस्ती की और भी लड़कियां इस टीम का हिस्सा बन रही हैं और बस्ती में होने वाली किशोरी बैठक में भी हिस्सा लेने लगी हैं।” नुक्कड़ नाटक के बहाने ये लड़कियां अब अलग-अलग गाँवों और बस्तियों में जाती हैं। उन रास्तों पर चलती हैं जिनसे वे अनजान हुआ करती थीं। लेकिन इस नुक्कड़ नाटक ने उन्हें उनकी गतिशीलता को बढ़ाने और इसको क़ायम रखने का एक ज़रिया दिया है।
नुक्कड़ नाटक के ज़रिये: महिला हिंसा पर बुलंद आवाज़
समुदाय स्तर पर घरेलू हिंसा, जेंडर आधारित भेदभाव, यौनिक हिंसा और बाल-विवाह आज भी एक बड़ा मुद्दा है। लेकिन इन मुद्दों पर बात करने का स्पेस आज भी नहीं बन पाया है, क्योंकि ये सभी मुद्दे धीरे-धीरे चलन में तब्दील हो चुके हैं। इन्हें चुनौती देना तो दूर इन मुद्दों पर बात करना भी अपने आप में चुनौतपूर्ण है। नुक्कड़ नाटक इन जटिल मुद्दों पर सरल संवाद स्थापित करना एक प्रभावी माध्यम है। इसके माध्यम से लड़कियों की ये टीम अब अपने-अपने समुदाय में लैंगिक हिंसा से जुड़े मुद्दों पर संवाद करना शुरू कर रही हैं। अपनी बुलंद आवाज़ के साथ अपने संदेशों को पहुंचाने का काम कर रही हैं। ज़ाहिर है जब समुदाय में रहनेवाली लड़कियों के माध्यम से ही जब उन्हें प्रभावित करने वाले मुद्दों पर बात शुरू होती है तो ये कई गुना ज़्यादा प्रभावी होती है, जो इस टीम में साफ़ देखने को मिल रहा है।
बात चाहे लड़कियों की गतिशीलता की हो या फिर उनके उनके स्पेस क्लेम और हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की, पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था में उन्हें इसकी परमिशन नहीं होती है।
नुक्कड़ के ज़रिये: लड़कियों का ज़्यादा और तेज आवाज़ में बोलना
जैसा कि हम जानते हैं नुक्कड़ नाटक में किसी भी तरह के माइक का इस्तेमाल नहीं किया जाता है, ऐसे में अपनी आवाज़ के माध्यम से ही टीम को अपने संवाद को जनता तक पहुंचाना होता है। नुक्कड़ नाटक का ये मूल लड़कियों के स्पेस को बढ़ाने का एक ज़रिया बन चुका है। यह सीधेतौर पर पितृसत्ता के बताए उन नियमों को चुनौती देती है, जिसकी घुट्टी बचपन से लड़कियों को दी जाती है। वह है – ‘धीमे बोले, कम बोलो।‘ नुक्कड़ नाटक की टीम से आरती बताती हैं, “नाटक के बहाने हम अपनी आवाज़ भी तेज़ करना और कैसे अपनी बात को कम और प्रभावी शब्दों में लोगों तक पहुंचाना है यह भी सीख रहे हैं। ये सीख हमलोगों के साथ जीवनभर साथ रहेगी, जिससे हमलोग कभी भी अपनी आवाज़ को दबने नहीं देंगे।”
नुक्कड़ के ज़रिये: जातिगत भेदभाव को चुनौती
इस नुक्कड़ टीम में न केवल दलित और वंचित समुदाय की लड़कियां हैं, बल्कि अन्य तथाकथित ऊंची जाति की लड़कियां भी हैं, जो एकसाथ टीम में महिला हिंसा की अलग-अलग परतों को उजागर उन्हें चुनौती देने का काम कर रही हैं। इसलिए ये नुक्कड़ नाटक जातिगत भेदभाव को चुनौती देने और महिला हिंसा के ख़िलाफ़ महिलाओं को लामबंद होने में मदद कर रहा है।
नुक्कड़ के ज़रिए: लड़कियों का पब्लिक प्लेस में स्पेस क्लेम
नुक्कड़ नाटक टीम की माधुरी बताती हैं, “हम नुक्कड़ हमेशा सार्वजनिक जगहों पर करते हैं। वे जगहें जहां आमतौर पर हमें को जाने की आज़ादी नहीं मिलती। ऐसी जगहों पर अधिकतर पुरुषों का जमावड़ा होता है। ऐसे में नुक्कड़ नाटक एक अच्छा माध्यम बन गया है अपनी जगह बनाने और पुरुषों तक अपनी बातों को पहुंचाने का। नाटक के माध्यम से हम अपनी बातों को न केवल आमज़न तक पहुंचा पा रहे हैं बल्कि पब्लिक स्पेस में अपनी जगह भी बना पा रहे हैं।”
नुक्कड़ के ज़रिये: लड़कियों का अपनी घर के दहलीज़ से निकलना और संगठित होना
नुक्कड़ नाटक की इस लड़कियों की टीम से अब गाँव की और भी लड़कियाँ जुड़ना चाहती हैं। ये उस वंचित समुदाय की लड़कियां हैं, जिन्हें जन्म से इनके मौलिक अधिकार मिले न मिले लेकिन पाबंदियां ज़रूर मिलती हैं। ऐसे में बुलंद आवाज़ में संगठित होकर अपनी आवाज़ उठाती इन लड़कियों का समूह न केवल एक प्रेरणा बन रहा है बल्कि उनके अंदर संभावनाओं की उम्मीद भी जगाता है। संभावना अपनी बात कहने, हिंसा के ख़िलाफ़ एकजुट होने, कहीं आने-जाने की और अपनी जगह बनाने की।
ग़ौरतलब है कि बात चाहे लड़कियों की गतिशीलता की हो या फिर उनके उनके स्पेस क्लेम और हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की, पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था में उन्हें इसकी इजाज़त नहीं होती है। ऐसे में गाँव की इन लड़कियों के लिए नुक्कड़ नाटक एक ऐसा रचनात्मक माध्यम बन चुका है जो समावेशी संगठन के रूप में पितृसत्तात्मक ढांचे को चुनौती दे रहा है।