सोशल मीडिया से सूचना-प्रसार के दौर में किताबों का दामन अब कहीं न कहीं छूटता हुआ दिखाई पड़ता है। लेकिन सच ये भी है कि कई बार जो दिखाई देता है वो सच होता नहीं है। क्या आप जानते है कि जिस वक्त आप अपने मोबाइल या लैपटॉप पर ये लेख पढ़ रहे है उस वक्त असम के एक गाँव में बच्चे किताबों की दुनिया में है। वो विचारों और लेखों पर तर्कों के साथ चिंतन कर रहे है। ये सुनकर आपको पुराना ज़माना याद आ सकता है जब बच्चे मैगज़ीन और कहानियों की दुनिया में अपने बचपन बिताया करते थे। मुझे भी वही ज़माना याद आ गया था। तो आइए आज ख़ास बात करते है असम में समुदायस्तर पर किताबों की इस खूबसूरत दुनिया को समुदाय से जोड़ने वाली ऋतुपर्णा से।
ऋतुपर्णा एक क्वीयर इंटरसेक्शनल फ़ेमिनिस्ट, स्टोरी टेलर और कम्यूनिटी लाइब्रेरी एजुकेटर है। ऋतु ‘अकम संस्था’ की फ़ाउंडर और डायरेक्टर है। ये संस्था असम में जेंडर जस्टिस और एजुकेशन के मुद्दे पर काम कर रही है। टाटा इन्स्टिटूट ऑफ़ सोशल साइंस (गुवाहाटी) से अपनी मास्टर की पढ़ाई पूरी करने के बाद ऋतु ने असम में अपने गाँव अहतगुरी (ज़िला-ज़ोरहट) कम्यूनिटी लाइब्रेरी के इस सफ़र की शुरुआत ‘प्रोजेक्ट किताबें क़ोथा कोई’ और दृष्टि क्वीयर कलेक्टिव से की। ये कलेक्टिव असम में एलजीबीटी राइटस पर काम करता है, तो आइए विस्तार में बात करते है ऋतु और उनकी इस ख़ास फ़ेमिनिस्ट पहल के बारे में –
फेमिनिज़म इन इंडिया- टाटा इन्स्टिटूट ऑफ़ सोशल साइंस से पढ़ाई करने के बाद आपको कम्यूनिटी लाइब्रेरी की शुरुआत करने की प्रेरणा कैसे मिली?
ऋतुपर्णा – कम्यूनिटी लाइब्रेरी की तरफ़ मेरा रुझान व्यक्तिगत नोट पर ही शुरू हुआ। मैं खुद एक ग्रामीण परिवेश से ताल्लुक़ रखती हूँ। जब मैं दसवी कक्षा में पढ़ाई कर रही थी तब तक मेरे गाँव में बिजली नहीं आयी थी। ये बिजली न होना ही शायद मेरे मोटिवेशन की वजह बना, क्योंकि बिजली न होने की वजह से मेरे घर में टीवी नहीं थी। सिर्फ़ एक रेडियो था और ढ़ेर सारी किताबें थी। मैं जब छोटी थी तब मेरी माँ ने मुझे दो मैगज़ीन गिफ़्ट की और वो मुझे बहुत पसंद आयी।। जब माँ ने मुझे वो मैगज़ीन पढ़कर सुनाई तो मुझे ऐसा लगा कि जैसे मुझे कोई दोस्त मिल गया। तब मैंने माँ से और किताबें ख़रीदने को कहा। इसपर माँ ने मुझे एक गुल्लक लाकर दिया और कहा कि – ‘जब तुम इसमें पैसे इकट्ठा कर पाओगे तभी बुक फ़ेयर में जाकर किताबें ला पाओगे।‘ इसके बाद मैं अपनी पूरी पॉकेट मनी उसमें बचाता, जिससे मैं किताबें ख़रीद सकूँ। इसतरह मुझमें किताब पढ़ने की ललक बढ़ी और मैं किताबों की ताक़त समझने लगी, क्योंकि मैंने किताबों से दुनिया देखी, बहुत सारे दोस्त पाए और जानकारियाँ मिली।
इन किताबों ने मुझे दुनिया देखने का एक नज़रिया दिया। इसतरह मेरे दिमाग़ ये ख़्याल मज़बूत होने लगा कि मुझे भी अपने गाँव में एक लाइब्रेरी शुरू करनी है और जो सभी के लिए खुली होगी। इसके बाद जब मैने टाटा इन्स्टिटूट ऑफ़ सोशल साइंस से मास्टर की पढ़ाई की और इसके बाद नौकरी के दौरान मैंने हर महीने किताबें ख़रीदना शुरू किया, जिसका उद्देश्य था अपने गाँव में लाइब्रेरी की शुरुआत करना। अप्रैल 2020 यानी लॉकडाउन के दौरान मैने प्रोजेक्ट ‘किताबें क़ोथा कोई’ के ज़रिए स्टोरी-टेलिंग करना शुरू किया और फिर अपने गाँव में अगस्त 2021 में छह सौ किताब और पचास बच्चों के साथ फ़्री कम्यूनिटी लाइब्रेरी की शुरुआत की। ये मेरे गाँव की पहली फ़्री कम्यूनिटी लाइब्रेरी है, जहां कोई भी आ सकता है। कोई भी किताबें पढ़ सकता है और कोई भी किताब अपने साथ घर लेकर जा सकता है। मौजूदा समय में इस लाइब्रेरी में पंद्रह सौ से अधिक किताबें हैं और सौ से अधिक बच्चे इस लाइब्रेरी से जुड़े हुए है। दोपहर के समय हर दिन ये लाइब्रेरी तीन-चार घंटों के लिए खोली जाती है, जिसमें रोज़ बच्चे आते है।
फेमिनिज़म इन इंडिया- सामान्य लाइब्रेरी और कम्यूनिटी लाइब्रेरी में आपके अनुसार क्या बुनियादी फ़र्क़ है?
ऋतुपर्णा – मेरा मानना है कि ‘अगर हम लाइब्रेरी की बात करें तो हमलोग हमेशा से देखते आए है कि लाइब्रेरी एक एलिट कॉन्सेप्ट रहा है। मतलब एक ऐसी जगह जो सबके लिए नहीं है, जहां बहुत बुद्धिजीवी ही जाते है और किताबें पढ़ते है। हमारी किताबों और कहानियों में भी जिन लाइब्रेरी का ज़िक्र होता है या जब हम इतिहास की किताबों में पुराने ज़माने की लाइब्रेरी की तस्वीरों को देखते है तो वहाँ एक परिभाषित कल्चर देखने को मिलता है – जहां एक ख़ास तरह के लोग, ख़ास तरह की पोशाक के साथ जाते थे और जो अधिकतर पुरुष होते थे। ये ख़ास लोग ऊँची जाति और वर्ग से ताल्लुक़ रखते थे और तथाकथित बुद्धिजीवी कहलाते थे। इस लाइब्रेरी में समाज का गरीब या वंचित तबका कभी भी देखने को नहीं मिलता था। वैसे तो हम अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरह की लाइब्रेरी देखते है। स्कूल की लाइब्रेरी, कॉलेज की लाइब्रेरी या फिर यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी और इन लाइब्रेरी तक पहुँच सिर्फ़ इन जगहों पर पढ़ने वाले लोगों की ही होती है और जो कोई भी इन लाइब्रेरी में जाना चाहता है उसके लिए उन्हें उस स्कूल, कॉलेज या फिर यूनिवर्सिटी का हिस्सा होना ज़रूरी होता है। अब अगर हम सरकार द्वारा बनायी जाने वाली ज़िला-स्तरीय लाइब्रेरी की बात करें तो यहाँ भी दूर-दराज गाँव के लोगों की पहुँच न के बराबर होती है। ऐसे में जब हम आम लाइब्रेरी सिस्टम को देखते है यहाँ ‘पहुँच’ एक बड़ा मुद्दा होता है, जहां सब नहीं जा सकते है।
कम्यूनिटी लाइब्रेरी समानता और समावेशी नज़रिए से पढ़ने, एकजुट होने, स्वस्थ चर्चा करने, सवाल उठाने, अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने का एक सेफ़ स्पेस है।
ऐसे में जब हम ‘कम्यूनिटी लाइब्रेरी’ की बात करते है तो उसमें सीधा अंतर होता है ‘पहुँच’ का। वो पहुँच जो सामान्य लाइब्रेरी के माध्यम से समुदाय के लोगों तक नहीं होती, उस पहुँच को बनाने में ‘कम्यूनिटी लाइब्रेरी’ अहम और प्रभावी भूमिका निभाती है। कम्यूनिटी लाइब्रेरी मुख्य रूप से ‘समानता’ के मूल्य पर आधारित होती है, जहां किसी भी सुविधा और संसाधन तक समुदाय की पहुँच बिना किसी भेदभाव के समान होती है। इसके साथ ही, कम्यूनिटी लाइब्रेरी का कोई परिभाषित ढाँचा नहीं है, जिससे इस लाइब्रेरी में आने के लिए जेंडर, पहनावा, भाषा, यौनिकता, जाति, वर्ग, धर्म, समुदाय, विकलांगता व अन्य पहचान कभी भी लाइब्रेरी से जुड़ने में रोड़ा नहीं बनती है। अगर हम सरल शब्दों में समझें तो ‘कम्यूनिटी लाइब्रेरी का मतलब है समुदाय के हर इंसान के लिए लाइब्रेरी, जहां सबकी पहुँच हो। बिना रोक-टोक या झिझक के।
फेमिनिज़म इन इंडिया- आप अपनी कम्यूनिटी लाइब्रेरी के बारे में बताएँ आपने कैसे अपनी कम्यूनिटी लाइब्रेरी को फ़ेमिनिस्ट रूप दिया है।
ऋतुपर्णा – ‘No More Keep Silence’ (अब और चुप्पी नहीं) के नियम पर चलने वाली हमलोगों की फ़ेमिनिस्ट कम्यूनिटी लाइब्रेरी अगस्त 2021 में छह सौ किताब और पचास बच्चों के साथ शुरू हुई थी। आमतौर पर जब हमलोग लाइब्रेरी जाते है तो वहाँ हमेशा ‘चुप रहने या धीमे बोलने’ का नियम का होता है। हमलोगों की लाइब्रेरी इस नियम के ख़िलाफ़ है, क्योंकि इस नियम की राजनीति बेहद पितृसत्तात्मक है। ये वही राजनीति है जो हमें अपने घरों में बड़ों से बात करने और उनसे सवाल करने से रोकती है। ये वही नियम है जो क्लास में सवाल करने की बजाय शांति बनाना सीख़ा कर हमारी सीख पर रोक लगाती है और ये वही नियम है जो सदियों से चली आ रही धारणाओं को तोड़ने और उनके ख़िलाफ़ मुँह खोलने से हमें रोकती है। इसलिए मेरा मानना है कि अगर हम शिक्षा और जागरूकता की बात करते है तो वहाँ हमारा बोलना और हमारी मन बातों और विचारों का सामने आना बेहद ज़रूरी है। यही वजह है कि हमलोग अपनी इस कम्यूनिटी लाइब्रेरी में बच्चों को बात करने, चर्चा करने और अपने विचारों को साझा करने के लिए उन्हें प्रेरित करते है। इसलिए ये कम्यूनिटी लाइब्रेरी एक फ़ेमिनिस्ट कम्यूनिटी लाइब्रेरी है।
पढ़ना हम सभी के लिए ज़रूरी है और ये हमारा अधिकार भी है और इस अधिकार को सरोकार से जोड़ने की दिशा में हमलोगों की ये कम्यूनिटी लाइब्रेरी लगातार काम कर रही है।
आपको बताऊँ कि इस लाइब्रेरी के लिए मेरे माता-पिता ने एक छोटी-सी जगह दी, जिसे मेरे गाँव के लोगों ने अपने श्रमदान से तैयार किया। इस लाइब्रेरी के निर्माण में मैंने और लाइब्रेरी से जुड़े बच्चों ने एकसाथ काम किया, जिससे बच्चों और समुदाय का इस लाइब्रेरी से जुड़ाव आत्मीय है। हमलोगों की लाइब्रेरी में हिंदी, अंग्रेज़ी और असमिया भाषा में किताबें है। ये किताबें बच्चों को केंद्रित करके ज़्यादा है क्योंकि बच्चों का जुड़ाव लाइब्रेरी से ज़्यादा है। इसके साथ ही, लाइब्रेरी में किताबों पर चर्चा, स्टोरी टेलिंग और मुद्दों पर चर्चा जैसी अलग-अलग गतिविधियाँ लाइब्रेरी का हिस्सा है। वहीं लाइब्रेरी में, स्टेशनरी कॉर्नर, क्रीएटिव कॉर्नर और बच्चों के लिए कुछ गेम भी है, जिससे यहाँ हर रुचि के बच्चे हिस्सा ले सके। इन सबके साथ, हम अपनी कम्यूनिटी लाइब्रेरी में ‘प्यार की भाषा’ को प्रोत्साहित करते है, वो प्यार की भाषा जो किसी भी बदलाव को स्थायी और सहज बनाती है।
पढ़ना हम सभी के लिए ज़रूरी है और ये हमारा अधिकार भी है और इस अधिकार को सरोकार से जोड़ने की दिशा में हमलोगों की ये कम्यूनिटी लाइब्रेरी लगातार काम कर रही है। आने वाले समय में हम ऐसी कई लाइब्रेरी और भी गाँव की पहुँचाने की दिशा में काम कर रहे है।
फेमिनिज़म इन इंडिया- नारीवादी आंदोलन में आप कम्यूनिटी लाइब्रेरी की भूमिका को आप कैसे देखती है?
ऋतुपर्णा – नारीवाद ‘समानता, समता और अधिकार’ की बात करता है और जब हम नारीवादी आंदोलन की बात करते है तो इस आंदोलन में अलग-अलग माध्यम इसका हिस्सा होते है, जो समता, समानता, स्वतंत्रता और समावेशी विचारों को व्यवहार में लाने की दिशा में आवाज़ उठाते है और इसके लिए संघर्ष करते है। जैसा की हम जानते है कि बिना चिंतन-मनन के किसी भी आंदोलन की कल्पना नहीं की जा सकती है और लाइब्रेरी वो जगह होती है जहां हम पढ़ते है, सोचते है और चिंतन करते है। जब इस लाइब्रेरी के आगे कम्यूनिटी शब्द जुड़ता है तो किताबों, विचारों और मुद्दों का ये चिंतन समुदाय से जुड़ जाता है, क्योंकि कम्यूनिटी लाइब्रेरी समुदाय के लोगों द्वारा, समुदाय के लिए, समुदाय के माध्यम से चलायी जाती है।
फेमिनिज़म इन इंडिया- क्या कम्यूनिटी लाइब्रेरी सिर्फ़ लोकल लेवल तक सीमित है या फिर नेशनल लेवल पर भी इसे लेकर कुछ काम किया जा रहा है। इसके बारे में बताएँ।
ऋतुपर्णा – देश के अलग-अलग जगहों में कम्यूनिटी लाइब्रेरी चलायी जा रही है, जैसे मैने अपने गाँव में लाइब्रेरी की शुरुआत की। पर अग़र मैं ये सोचूँ कि मेरी एक लाइब्रेरी से दुनिया बदल जाएगी तो संभव नहीं है। इसके लिए ज़रूरी है कि सामाजिक-राजनीतिक परिपेक्ष्य में अलग-अलग जगहों पर कम्यूनिटी लाइब्रेरी की दिशा में काम करने वालों को एकजुट करना और पॉलिसी लेवल पर पैरोकारी करना, जिससे नीतियों में बदलाव आ सके। हम राइट टू रीड की बात करते है लेकिन ये एक या दो लाइब्रेरी की माँग से कभी संभव नहीं होगा, इसके लिए हम ‘फ़्री लाइब्रेरी मूवमेंट इंडिया एंड साउथ एशिया’ के नाम से एक नेट्वर्क बनाकर काम कर रहे है, जिसमें सौ से अधिक जुड़े हुए है, जिसमें न केवल कम्यूनिटी लाइब्रेरी चलाने वाले, बल्कि प्रकाशक, लेखक व लेखन कार्य से जुड़े लोगों को भी शामिल किया गया है। इस नेट्वर्क का मुख्य उद्देश्य समुदाय स्तर पर कम्यूनिटी लाइब्रेरी का क्षमतावर्धन करना, उनके एक मंच से जोड़ना और फ़्री लाइब्रेरी को सरोकार से जोड़ना है व नीतिगत स्तर पर बदलाव लाने की दिशा में पैरोकारी करना है।