पर्यावरणीय बदलाव, वर्तमान में दुनिया की सबसे बड़ी चिंता है। जलवायु परिवर्तन के परिणाम की वजह से कई वैज्ञानिक समूह इस बात को कह चुके हैं कि हम सामूहिक विलुप्ति की ओर बढ़ रहे हैं। यानी जिस तरह से पर्यावरण बिगड़ रहा है, प्राकृतिक आपदाएं विनाशकारी साबित हो रही है उस तरह से पृथ्वी और उस पर रहने वाले सभी जीवों का भविष्य खतरे में हैं। इस विषय को लेकर जब गंभीरता, जागरूकता की बात आती है तो वह हर स्तर पर कम नज़र आती है।
बात अगर पर्यावरण से संबंधित रिपोर्टिंग या मीडिया कवरेज की करें तो यह कमी वहां भी बनी हुई है। मीडिया का काम सवाल करना, लोगों को जानकारी देना है लेकिन पर्यावरण जैसे गंभीर मुद्दे से जुड़ी ख़बरों को या तो रूटीन बना दिया जाता है या फिर भ्रामक या सनसनीखेज जैसी प्रस्तुति दी जाती है। इससे इतर पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन का मुद्दा क्या है, यह लोगों के जीवन से कैसे जुड़ा हुआ है, कैसे पर्यावरण संबंधी विषय के बारे में लोगों को जागरूक होना ज़रूरी है और इस दिशा में सरकारें क्या कदम उठा रही हैं, उनकी योजनाएं कितनी प्रकृति विरोधी है इन पहलूओं पर गंभीरता से चर्चा भारतीय मीडिया से गायब नज़र आती है।
बीते साल भारत ने लगभग हर दिन एक प्राकृतिक आपदा का सामना किया। यह बात अलग है कि आपदाओं की ख़बरे सुर्खियां तभी बनती हैं जब वे ज्यादा विनाशकारी होती है। ज्यादा लोगों का जीवन उससे प्रभावित हो रहा होता हैं। भारतीय मीडिया का पर्यावरण से जुड़े मुद्दे की कवरेज का यही तरीका है। इतना ही नहीं सरकारें जलवायु परिवर्तन की समस्या का कैसे हल कर रही हैं उसको लेकर तो वर्तमान में मीडिया चुप्पी साधे हुए हैं। बड़े कार्यक्रमों और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पर्यावरण के संदर्भ में होने वाले सम्मेलनों की कवरेज के अलावा, पर्यावरण या पृथ्वी दिवस पर ग्रीन कलर के साथ ख़बरे या फटाफट टॉप 10 एनवायरमेंट न्यूज़ दिखाने का चलन बन गया है।
हाल में उत्तरखंड के जोशीमठ में स्थानीय लोगों के घरों में दरारों को लेकर भावनात्मक तरीके से तो दिखाया गया। जोशीमठ के इन हालातों के पीछे होने वाले कारणों, परियोजनाओं की आलोचना और हिमालय क्षेत्र में विकास कार्यक्रम और उससे पैदा हुई आपदाओं को लेकर सवाल कम नज़र आए। दिल्ली में आया भूकंप ब्रेकिंग न्यूज़ के तौर पर केवल हेडलाइंन बन जाता है। जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण आपदाओं के विषय को लेकर लगातार चर्चा, जागरूकता, आलोचना और पर्यावरण के लिहाज से भारत की बिगड़ती स्थिति पर सवाल मीडिया कवरेज में सबसे कम ज़रूरी मुद्दे के तौर पर उभरकर आता है।
एनवायरमेंट रिपोर्टिंग क्या है
जब हम क्लाइमेट चेंज की बात करते हैं तो पत्रकार उसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है जिसका मकसद यह है कि वह लगातार मामले की गंभीरता को लेकर बोलता रहे। मीडिया का मुख्य काम ही है कि मुद्दों को लेकर आम से लेकर खास लोगों तक की जवाबदेही से अवगत कराना और समस्या और उसके हल के बारे में जानकारी देना है। लेकिन पर्यावरण से संबंधित विषयों पर मीडिया के रवैये में साफ कमी दिखती है।
नैशनल वाइल्डलाइफ फेडरेशन, यूएसए के अनुसार एनवायरमेंट जर्नलिज्म रिपोर्टिंग से तात्पर्य पर्यावरण से जुड़े मुद्दे, घटनाओं और ट्रेंड को रिपोर्ट करना। इसमें मानव और पर्यावरण के साथ पृथ्वी के प्राकृतिक सिस्टम हवा, पानी, जीव-जंतु, पौधो, ईको-सिस्टम आदि विषय शामिल है। एनवायरमेंट जर्नलिज़म में विकास की अलग-अलग गतिविधियां, पर्यावरण और इंसानों से जुड़े विषय शामिल हैं। पत्रकार का उद्देश्य लोगों को पर्यावरण से जुड़ी जानकारी और अलर्ट करना है। साथ ही न्यूज मीडिया का इस्तेमाल कर हवा, पानी, वन्यजीव और प्राकृतिक स्रोतों के बारे में रिपोर्ट तैयार करनी चाहिए।
सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज (सीएमएस) की साल 2014 और 2019 के बीच पांच प्रमुख न्यूज़ चैलन के प्राइम टाइम (शाम 7-11 बजे) समय में सभी न्यूज़ कंटेंट में पर्यावरण से जुड़ी ख़बरे के केवल 0.8 प्रतिशत थी।
लेकिन आज के मीडिया में पर्यावरण से संबंधित किसी भी विषय पर पूरी तरह से ऑरिजनल एनवायमेंटल स्टोरी मेन स्ट्रीम मीडिया से लगभग गायब हो गई है। एक समय था जब बहुत से अख़बारों और टीवी चैनलों में एनवायरमेंट संवाददाता हुआ करते थे और यह बहुत पुराने समय की बात नहीं है। उन्हें एनवायरमेंट से जुड़े विषय पर स्टोरी लिखने उसकी इनवेस्टिंग करने के लिए समय और पैसा दोनों उपलब्ध कराया जाता था। वास्तव में ऐसी रिपोर्ट के लिए समय और पैसे दोनों की आवश्यकता होती है। पर्यावरण के मुद्दे से जुड़ी जमीनी स्तर की जानकारी देने के उद्देश्य से लिखी जाने वाली कोई भी रिपोर्ट को डेस्क पर बैठकर तैयार करना मुमकिन नहीं है। लेकिन आज के भारतीय मेन स्ट्रीम मीडिया में इनवायरमेंट जर्नलिज्म के ऑरिजनल और ग्राउंड स्टोरी का काम नज़र नहीं आता है।
कई शोधों में यह बात भी निकलकर आई है कि पर्यावरण से जुड़ी देशों की रैंक और कॉप सम्मेलन के समय मीडिया इस मुद्दे पर रूटीन जानकारी की तरह न्यूज कवर करता है। न्यूज़लॉड्री में प्रकाशित लेख के अनुसार हर साल अंतरराष्ट्रीय कॉप सम्मेलन में हजारों पत्रकारों में भारतीय पत्रकारों का भी समूह जाता है। लेकिन बहुत से भारतीय पत्रकार, भारत के दृश्य से महत्वपूर्ण विषयों पर होने वाली व्यापक चर्चाओं में हिस्सा भी नहीं लेते हैं जैसे कृषि, आपदा के खतरें और कमी और स्थानीय लोग। भारतीय रिपोर्टर इन सम्मेलनों में भी पहुंचकर भी केवल सरकारी प्रेस-विज्ञप्ति को जारी करने वाली सूचना से ही काम चलाते हैं।
ख़बरों को कम रिपोर्ट करने का चलन
क्लाइमेट चेंज पर भारतीय टेलीविजन के मुद्दे पर हुई रिसर्च क्लाइमेंट चेंज कम्यूनिकेशन इन इंडिया के नाम से जारी रिसर्च पेपर में यह बात निकलकर सामने आई है कि देश के कुछ महत्वपूर्ण बड़े न्यूज चैनल जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण से जुड़े मुद्दों को नजरअंदाज कर देते हैं। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज (सीएमएस) की साल 2014 और 2019 के बीच पांच प्रमुख न्यूज़ चैलन के प्राइम टाइम (शाम 7-11 बजे) समय में सभी न्यूज़ कंटेंट में पर्यावरण से जुड़ी ख़बरे के केवल 0.8 प्रतिशत थी। यह डेटा टीवी न्यूज मीडिया में पर्यावरण से जुड़े मुद्दे पर कवरेज की कमी को जाहिर करता है।
इसी रिपोर्ट में प्रकाश डाला गया है कि साल 2012 में हैदराबाद में कॉन्फ्रेस ऑफ पार्टी सीबीडी कॉप-11 का आयोजन हुआ था। इंटरनैशनल कान्फ्रेंस ऑन क्लाइमेट चेंज के इस कार्यक्रम में बड़े स्तर पर भारतीय मेन स्ट्रीम मीडिया अनुपस्थित रहा था। राष्ट्रीय मीडिया ने यह कार्यक्रम कवर नहीं किया था और स्थानीय मीडिया इस कार्यक्रम की गैर-ज़रूरी स्टोरी जैसी सुरक्षा के इंतजाम और शहर के सौंदर्यकरण से जुड़ी स्टोरी कर रहा था। इतना ही नहीं भारत में पर्यावरण रिपोर्टिंग और पत्रकारों के रवैये को लेकर यह बात कही गई है कि भारतीय मेनस्ट्रीम मीडिया जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को सिर्फ यही तक दर्शाता है कि पश्चिमी देशों के औद्योगिकीकरण की नीति की वजह से यह भारत के ऊपर एक अनुचित बोझ है।
साल 2015 में नेपाल में आए भूकंप के बाद भारत द्वारा मदद को जिस तरह से टीवी मीडिया ने दिखाया था उससे वहां के स्थानीय लोग तक परेशान हो गए थे। आपदा के समय में भारतीय टीवी मीडियाकर्मियों के असंवेदनशील व्यवहार को देखकर #GoHomeIndianMedia तक सोशल मीडिया पर ट्रेंड करने लगा था।
ग्राउंड जीरो पर असंवेदनशील तरीके से रिपोर्टिंग
पर्यावरण से संबंधित विषयों पर भारतीय मीडिया कवरेज में स्पेस के अलावा दूसरी बहुत बड़ी कमी जो सामने आती है वह है भ्रामक, भावनात्मक और असंवेदशील रिपोर्टिंग। भारतीय टीवी मीडिया पर ऐसा व्यवहार करने को लेकर काफी आलोचनाओं तक का सामना कर चुका है। साल 2015 में नेपाल में आए भूकंप के बाद भारत द्वारा मदद को जिस तरह से टीवी मीडिया ने दिखाया था उससे वहां के स्थानीय लोग तक परेशान हो गए थे। आपदा के समय में भारतीय टीवी मीडियाकर्मियों के असंवेदनशील व्यवहार को देखकर #GoHomeIndianMedia तक सोशल मीडिया पर ट्रेंड करने लगा था। बीबीसी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार नेपाल के लोगों ने शिकायत की थी कि भारतीय मीडिया असंवेदनशील और राष्ट्रवादी था। प्राकृतिक आपदा की रिपोर्टिंग को लेकर इस तरह के गैर जिम्मेदाराना व्यवहार को भी बदलने की सबसे पहले ज़रूरत है।
क्लाइमेट चेंज पर रिपोर्टिंग में क्यों पीछे हटता है मीडिया
द वायर में प्रकाशित लेख में रॉयटर्स इंस्टीट्यूट फॉर द स्टडी ऑफ जर्नलिज्म के हवाले से छह कारणों की पुष्टि की गई है जिस वजह से मीडिया क्लाइमेट जर्नालिज्म से जुड़ी स्टोरी करने में असफल है। सबसे पहले प्रकृति के विकास का स्वभाव धीमा है और फास्ट न्यूज़ इंडस्ट्री के साथ इसकी तालमेल नहीं बैठती है। दूसरा यह माना जाता है कि पाठक और दर्शक इस तरह की ख़बरों को जल्दी हटा देते हैं जहां उन्हें शक्तिहीनता का अनुभव होता है। तीसरा, विशेषज्ञ विज्ञान पत्रकारों को नौकरी पर रखने के लिए पैसे की कमी है जो विज्ञान विषय की व्याख्या कर सकते हैं।
इसके बाद इन विषय से जुड़ा ओरिजनल कवरेज महंगी है क्योंकि इसमें अक्सर दूर-दराज वाले क्षेत्रों में जाकर रिपोर्टिंग करनी पड़ती है। पांचवां, इस तरह की स्टोरी जटिल होती है, जिसमें तथ्य और गंभीर जानकारी होती है और इसका कोई सामाधान भी नहीं है। विज्ञान की अपनी एक भाषा है जिसको बदलकर आसान नहीं किया जा सकता है। अंतिम कारण ऑनर और एडवरटाईजिंग का डाला दबाव है जो आवश्यक बदलावों के अनुसार नहीं है।
क्यों मीडिया का नैरेटिव एनवायरमेंट के मुद्दे के लिए महत्वपूर्ण है
मीडिया केवल योजनाओं को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाती है बल्कि व्यवहार बदलाव करने का भी काम करती है। द मिंट में प्रकाशित ख़बर के अनुसार जर्नल ऑफ मार्केटिंग रिसर्च में यूबो चेन और अन्य ने कहा है कि जलवायु परिवर्तन के मीडिया कवरेज का असर अमेरिका में हाइब्रिड वाहनों की ब्रिकी पर सकारात्मक पड़ा है। ये वाहन नियमित वाहनों की तुलना में कम उत्सर्जन उत्पन्न करते हैं और पर्यावरण के लिए अधिक टिकाऊ रहते हैं। इस प्रभाव को जानने के लिए अध्ययनकर्ताओं ने जांच की कि कैसे 1999 से 2007 के बीच अमेरिका में हाईब्रिड वाहनों की ब्रिकी जलवायु परिवर्तन के मास-मीडिया कवरेज के साथ बदल गई।
यह साफ है कि प्रत्येक मुख्यधारा के मीडिया को यह ज्यादा समझने की ज़रूरत है कि पर्यावरण का मुद्दा लोगों के जीवन को कैसे प्रभावित कर रहा है। इस मामले में मीडिया का बदला हुआ नैरेटिव लोगों के जीवन और पृथ्वी के संकट को कम करने का काम करेगा। मीडिया की मजबूत और आलोचनात्मक रिपोर्टिंग नीति-निर्माताओं को फैसले लेने और पर्यावरण विरोधी नीतियों से पीछे हटने के लिए दबाव का काम करेगी।