भारत में समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने की याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पिछले सोमवार को टिप्पणी की कि समलैंगिक जोड़े द्वारा गोद लिए गए बच्चे समलैंगिक हो ऐसा जरूरी नहीं है। सॉलिसिटर जनरल (एसजी) तुषार मेहता के जवाब में भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस जे बी पारदीवाला की खंडपीठ ने यह टिप्पणी की। सुप्रीम कोर्ट की यह खंडपीठ सुप्रियो बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले की सुनवाई कर रही थी।
मेहता ने तर्क दिया कि यह संसद पर निर्भर है कि वह लोगों की इच्छा की जांच करे और देखे। बच्चे के मनोविज्ञान की जांच करे। क्या इसे इस तरह से उठाया जा सकता है, संसद सामाजिक लोकाचार का कारक होगा।” मेहता ने अपने तर्कों के बाद इस मुद्दे को उठाया कि अगर सेम सेक्स मैरेज को कानूनी मान्यता दी जाती है तो इसके बाद गोद लेने से जुड़े सवाल उठेंगे। इसके जवाब में, सीजेआई ने कहा, “एक गे या लेस्बियन जोड़े के गोद लिए हुए दत्तक बच्चा गे या लेस्बियन हो, ऐसा जरूरी नहीं है।
हालांकि, सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि सवाल जोड़े के सेक्सुअल ओरिएंटेशन पर नहीं है, बल्कि गोद लेनेवाले बच्चों के मनोवैज्ञानिक प्रभाव का है क्योंकि वे एक जैविक (बायोलॉजिकल) पिता और एक जैविक मां के खिलाफ दो पुरुषों या दो महिलाओं को अपने माता-पिता के रूप में देखेंगे। उन्होंने आगे कहा कि यह मुद्दा बेहद संवेदनशील है और संसद द्वारा कानूनी और अन्य कोणों से इसका पता लगाया जाना चाहिए। संसद को बहस करनी होगी और इस पर विचार करना होगा कि क्या सामाजिक लोकाचार और कई अन्य कारकों को ध्यान में रखते हुए जो कानून बनाने में शामिल हैं, क्या हम चाहते हैं कि इस संस्था को मान्यता दी जाए। एसजी की इस बात के जवाब में सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने टिप्पणी की- “मिस्टर सॉलिसिटर, गे जोड़े या लेस्बियन जोड़े के गोद लिए बच्चे को केवल लेस्बियन होना जरूरी नहीं है। वह बच्चा ऐसा हो भी सकता है और नहीं भी…”
यह घटनाक्रम ऐसे समय में आया है जब केंद्र सरकार ने देश में समान-सेक्स विवाहों को कानूनी मान्यता देने की मांग वाली दलीलों का विरोध करते हुए सुप्रीम कोर्ट में एक जवाबी हलफनामा दायर किया है। केंद्र ने अपने जवाब में कहा कि आईपीसी की धारा 377 का गैर-अपराधीकरण समलैंगिक-सेक्स विवाह के लिए मान्यता प्राप्त करने के दावे को जन्म नहीं दे सकता है। समलैंगिक-सेक्स संबंधों में व्यक्तियों के एक साथ रहने की तुलना “एक पति और एक पत्नी से पैदा हुए बच्चों की भारतीय परिवार की अवधारणा से नहीं की जा सकती।” सुप्रीम कोर्ट ने इस केस की संक्षिप्त सुनवाई करने के बाद कहा कि इस मामले की सुनवाई पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के समक्ष की जाएगी। अदालत ने मामले की सुनवाई के लिए 18 अप्रैल की तारीख मुकर्रर की है।
गोद लेना लंबे समय से उन माता-पिता और बच्चों के लिए एक ज़रिया रहा है जो एक परिवार बनाना चाहते हैं। समय के साथ-साथ गोद लेने की फिलॉसोफी माता-पिता के सर्वोत्तम हित से “बच्चे के सर्वोत्तम हित” में स्थानांतरित हो गई। गोद देने के लिए प्लेसमेंट एजेंसियां बना दी गई। इसका उद्देश्य उन स्थितियों को नियंत्रित करना था जिनके तहत बच्चे को गोद लिया गया था और यह सुनिश्चित करना था कि बच्चे को सबसे बेहतर वातावरण में रखा जाएगा। गोद देनेवाली प्लेसमेंट एजेंसियों की अपेक्षाएं उन घरों को महत्व देती हैं जहां बच्चे को सबसे बेहतर मनोवैज्ञानिक और सामाजिक देखभाल प्राप्त होगी।
एक ऐसे देश में जहां सिंगल माता-पिता और बच्चों के साथ लिवइन जोड़ों के अधिकार अभी भी एक कठिन लड़ाई लड़ रहे हैं और समाज में अपने अस्तित्व बनाने में लगे हुए हैं। LGBTQ+ अभिभावकों के खिलाफ़ भेदभाव सार्वजनिक बातचीत का हिस्सा भी नहीं है। LGBTQ+ समुदाय के लोगों के अभिभावक बनने के अधिकार को समाज आज भी स्वीकार नहीं करता। इसीलिए ये समुदाय कानून में अपनी जगह बनाने में निरंतर लगे हुए हैं।
समलैंगिक विवाह की मान्यता गोद लेने की प्रक्रिया आसान बना देगी
भारत में समलैंगिकता को साल 2018 में अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया था लेकिन समलैंगिक विवाह को अभी भी मान्यता नहीं मिली है। साथ ही किशोर न्याय अधिनियम के तहत, एकल व्यक्ति या एक स्थिर वैवाहिक संबंध में जोड़े ही किसी बच्चे को गोद ले सकते हैं क्योंकि भारत में गोद लेने को HAMA (हिंदू दत्तक ग्रहण और रखरखाव अधिनियम, 1956) और JJ अधिनियम (किशोर न्याय अधिनियम) द्वारा नियंत्रित किया जाता है। HAMA के तहत हिंदू, जैन, सिख और अन्य बच्चे को गोद ले सकते हैं, जबकि जेजे अधिनियम के अंतर्गत निरपेक्ष रूप से किसी को भी गोद लेने का अधिकार देता है। HAMA की धारा 7 और 8 में माता-पिता को ‘पति’ और ‘पत्नी’ के रूप में संदर्भित किया गया है, जो अपने आप ही ही समलैंगिक जोड़ों को माता-पिता के रूप में नहीं पहचानता।
इसलिए अब तक कानून यह है कि एक क्वीयर व्यक्ति केवल एकल अभिभावक के रूप में गोद लेने के लिए केंद्रीय दत्तक ग्रहण समीक्षा प्राधिकरण (CARA) में आवेदन कर सकता है। CARA (केंद्रीय दत्तक ग्रहण संसाधन प्राधिकरण) महिला और बाल विकास मंत्रालय के तहत तैयार किया गया है और यह देश और अंतर-देश में भी गोद लेने की प्रक्रियाओं को विनियमित करने वाला सर्वोच्च निकाय है। CARA ने कुछ पात्रता मानदंड निर्धारित किए हैं, लेकिन वे भी समलैंगिक जोड़ों के प्रति पक्षपाती प्रतीत होते हैं।
CARA द्वारा निर्धारित पात्रता मानदंड कि ‘किसी भी जोड़े को बच्चे को गोद लेने के लिए तब तक नहीं दिया जाएगा जब तक कि उस जोड़े के पास स्थिर विवाह के कम से कम दो वर्ष न हो’ समलैंगिक जोड़ों के अपने परिवार का विस्तार करने के अधिकार को पूरी तरह से रोक देता है। पंजीकृत विवाह करने में असमर्थ होने और बच्चे की इच्छा के बीच टकराव समलैंगिक जोड़ों को बच्चा गोद लेने से रोकता है। अगर दोनों में से कोई एक, एक एकल माता या पिता के रूप में एक बच्चे को गोद ले सकता है, यह बच्चे पर दूसरे अभिभावक के कानूनी अधिकारों को पूरी तरह से दरकिनार कर देगा।
LGBTQ+ समुदाय के सदस्य एक कपल के रूप में भारत में दत्तक ग्रहण करने में अक्षम हैं। लॉ एंड पर्सनल पर एक संसदीय स्थायी समिति ने पिछले साल कहा था कि गोद लेने पर एक समान और व्यापक कानून लाने के लिए हिंदू दत्तक ग्रहण और रखरखाव अधिनियम और किशोर न्याय अधिनियम के बीच सामंजस्य स्थापित करने की ज़रूरत है, जिसमें सभी धर्मों और LGBT+ समुदाय को शामिल किया जाना चाहिए।
स्पेन, बेल्जियम, फ्रांस समेत कई देशों में समलैंगिक जोड़ों द्वारा गोद लेने की पहले से ही अनुमति है। भारत एक ऐसा देश है जिसने 2018 में समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया है और LGBTQIA+ के अधिकारों को मान्यता दी गई है। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि गोद लेने को नियंत्रित करनेवाले दोनों अधिनियम ऐसे समय में लागू हुए जब समलैंगिकता को अपराध घोषित किया गया था। चूंकि स्थिति अब कानूनी रूप से बदल दी गई है, इसलिए LGBT+ समुदाय को हेट्रोसेक्सुअल जोड़ों के समान ही अधिकार हर क्षेत्र में दिए जाने की ज़रूरत है।