हिंदुस्तान में रेडियो का आगमन अंग्रेजो के शासन काल के दौरान ही हो गया था। स्वतंत्र रूप से ऑल इंडिया रेडियो 8 जून 1936 को अस्तित्व में आया, जो बाद में आकाशवाणी बना। उस समय दिल्ली, बॉम्बे (मुंबई), कलकत्ता, मद्रास (चेन्नई), लखनऊ और तिरुचिरापल्ली में भी रेडियो स्टेशन थे। लेकिन रेडियो की आवाज़ में महिला की आवाज़ शामिल नहीं थी। आज़ादी से केवल दो दिन पहले ये जिम्मा सईदा बानो को दिया गया। जिन्हें प्यार से लोग ‘बीबी’ भी कहते थे। सईदा बानो भारत की पहली महिला रेडियो समाचार पढ़ने वाली बनीं।
प्रारंभिक जीवन
सईदा बानो का जन्म 1920 में भोपाल में हुआ था। उनका जीवन लखनऊ और भोपाल शहरों में बीता था। उस समय महिला की शिक्षा को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता था। हालांकि सईदा बानो को पढ़ने-लिखने के लिए बेहतर माहौल मिला था। सईदा के पिता उन्हें बहुत पढ़ाना चाहते थे। साल 1925 में सईदा को करामत हुसैन मुस्लिम गर्ल्स हाई स्कूल, लखनऊ में भर्ती कराया गया था।
साईदा बानो ने अपनी आगे की पढ़ाई भी लखनऊ से की थी। उन्होंने ने लखनऊ के इसाबेला थोबर्न कॉलेज से स्नातक किया। उनका प्रारंभिक जीवन भोपाल और लखनऊ में ही बीता। 17 साल की उम्र में उनका विवाह लखनऊ के जज अब्बास रज़ा के साथ हुआ था। अपने संस्मरण में वह लिखती हैं कि ससुराल से उन्हें पारिवारिक प्यार और तवज्जों दोनों मिला। अपने ससुर जस्टिस मोहम्मद रज़ा के साथ उन्हें इतिहास की जानकारी मिली। सईदा बानो ने दो बेटों को जन्म दिया। शादी के कुछ समय बाद वे खुद को एक घुटन में महसूस कर रही थी। वह लिखती हैं जब मैं रोना चाहती, मुझे मुस्कुराना पड़ता। साल 1947 में उन्होंने अपने पति अब्बास रज़ा से अलग होने का फैसला लिया और दिल्ली आ गई।
1947 में दिल्ली पहुंचीं
सईदा ख़ुद को परंपरागत ढाँचे में क़ैद नहीं कर पा रही थी। वह दो शहरों भोपाल और लखनऊ के प्रभावों को महसूस कर रही थी। उनके बीच गुम थी। भोपाल जहां महिला नवाबों ने लगभग 127 बरसों तक शासन किया और जहां महिलाएं अधिक स्वतंत्र थी और पुरुषों की बराबरी पर रही। जबकि भोपाल की तुलना में लखनऊ एक पुरुष प्रधान नवाबों का शहर था। इनके परिवेश में वह सहज नहीं हो पा रही थी।
“मैं हमेशा ऊपर वाले की आभारी रहूँगी कि लोग मुझे रेडियो पर समाचार पढ़ते सुनने के लिए उत्सुक थे और मेरे काम की सराहना करते थे। लेकिन मैंने इस सार्वजनिक स्वीकृति को कभी भी अनुचित महत्व नहीं दिया। मेरी आवाज की प्रशंसा में दुनिया के विभिन्न हिस्सों से सैकड़ों पत्र आते थे।”
लखनऊ छोड़ने के बाद सईदा बानो अपने बच्चों के साथ दिल्ली पहुंची। सईदा बानो ने दिल्ली में ऑल इंडिया रेडियो में उर्दू समाचार पढ़ने के लिए आवेदन किया। उन्होंने विजया लक्ष्मी पंडित को पत्र लिखकर अपने आवेदन के बारे में जानकारी दी। अपने संस्मरण में वह लिखती हैं, “श्रीमती विजया लक्ष्मी पंडित का लखनऊ में अक्सर आना-जाना लगा रहता था। वह उनकी की अच्छी दोस्त थी और इस वजह से मेरी उनसे अक्सर मुलाकात होती थी। मैंने उन्हें बताया कि मैंने नौकरी के लिए आकाशवाणी दिल्ली में एक लिखित आवेदन भेजा था।” इसके बाद उनका रेडियो में कार्यक्रम के लिए चयन हो गया था।
रेडियो में पहली प्रस्तुति
सईदा को दिल्ली में युवा महिला ईसाई संघ (YWCA) में रहने के लिए एक कमरा दिया गया। यहां वह पहले से किसी को नहीं जानती थी। 13 अगस्त को सईदा ने अपना पहला समाचार बुलेटिन पढ़ा। जिसके लिए उन्हें सुबह 6 बजे ऑफिस पहुंचना था और 8 बजे का बुलेटिन उर्दू में पढ़ना था। इस प्रस्तुति के बाद वह समाचार बुलेटिन प्रसारक के तौर पर काम करने वाली पहली भारतीय महिला बनीं और भारतीय रेडियो जगत के इतिहास में अपना नाम दर्ज करवा दिया।
दिल्ली आने के बाद सईदा की मुलाकात बहुत से लोगों से हुईं जिनमें पंडित जवाहर लाल नेहरू, मदन मोहन मालवीय आदि शामिल थे। बेगम अख्तर से उनकी अच्छी दोस्ती रही। दिल्ली में उनकी मुलाक़ात वकील नूरुद्दीन अहमद के साथ हुई। दिल्ली में उन्हें बटवारें के बाद गांधी जी से भी मिलने का मौका मिला था। सईदा बानो ने जीवन भर रूढ़िवादी विचारों को चुनौती दी। उन्होंने आलोचनाओं की परवाह न करते हुए अपने जीवन को अपने तरीके से जिया।
13 अगस्त को सईदा ने अपना पहला समाचार बुलेटिन पढ़ा। जिसके लिए उन्हें सुबह 6 बजे ऑफिस पहुंचना था और 8 बजे का बुलेटिन उर्दू में पढ़ना था। इस प्रस्तुति के बाद वह समाचार बुलेटिन प्रसारक के तौर पर काम करने वाली पहली भारतीय महिला बनीं।
सरहद पार से भी मिले खत
सईदा बानो को रेडियो पर काम करने की वजह से बहुत प्रसिद्धि मिली। सरहद पार से उनको खत लिखे जाते जाते थे। साल 1994 में सईदा बानो ने ‘डगर से हट कर’ संस्मरण लिखा था। उनकी पोती शाहजाना रज़ा ने बाद में उनके लिखे संस्मरण का ‘ऑफ द बीटन ट्रैक’ के शीर्षक से अंग्रेजी में अनुवाद किया था। उनकी किताब को उर्दू एकेडमी, दिल्ली की तरफ से सम्मानित किया गया था।
सईदा बनो ने अपनी पुस्तक डगर से हटकर में लिखा, “मैं हमेशा ऊपर वाले की आभारी रहूँगी कि लोग मुझे रेडियो पर समाचार पढ़ते सुनने के लिए उत्सुक थे और मेरे काम की सराहना करते थे। लेकिन मैंने इस सार्वजनिक स्वीकृति को कभी भी अनुचित महत्व नहीं दिया। मेरी आवाज की प्रशंसा में दुनिया के विभिन्न हिस्सों से सैकड़ों पत्र आते थे। कई सज्जनों ने मुझसे विवाह करने की इच्छा भी प्रकट की। हालांकि सुनने वालों में से कुछ ने तो मुझे कोसने तक की कोशिश की कि अब जब पाकिस्तान बन चुका है तो मुझ जैसा देशद्रोही अब तक दुश्मन देश में क्यों रह रहा है? सरहद के इस पार से मेरे ही कुछ देशवासी लिखते थे, ‘निकलो हमारे देश से, पाकिस्तान चले जाओ।” पर इनकी तुलना में प्यार भरी चिट्ठियों की भीड़ ज्यादा थी तो वे आवाज़े जल्द ही दब गई।” इस तरह सईदा ने अपने हिस्से के संघर्षों के साथ अपनी मर्ज़ी से अपनी ज़िंदगी को जिया।
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