इतिहास चुन्नी कोटलः आदिवासी लोधा समुदाय से ग्रैजुएट होने वाली पहली महिला| #IndianWomenInHistory

चुन्नी कोटलः आदिवासी लोधा समुदाय से ग्रैजुएट होने वाली पहली महिला| #IndianWomenInHistory

साल 1985 में एंथ्रोपोलॉजी (नृविज्ञान) में उनकी स्नातक की डिग्री पूरी हुई। इसी के साथ वह लोढ़ा समुदाय की ग्रेजुएशन करने वाली पहली महिला बनीं।

भेदभाव को पोषित करनेवाले हमारे जातिवादी और पितृसत्तात्मक समाज में ताउम्र संघर्ष करनेवाला एक नाम चुन्नी कोटल का भी है। चुन्नी कोटल एक आदिवासी महिला थीं। वह अपने समुदाय में स्नातक की उपाधि हासिल करनेवाली पहली महिला थीं। उन्होंने एंथ्रोपोलॉजी यानी नृविज्ञान में ग्रैजुएशन किया था। इसके साथ-साथ वह एक सामाजिक कार्यकर्ता भी थीं। 

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा 

चुन्नी कोटल का जन्म 1965 में पश्चिम बंगाल के पश्चिमी मिदनापुर जिले के गोहलदीही गाँव में हुआ था। वह लोधा शाबर आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखती थीं। अंग्रेज़ों ने अपने शासनकाल के दौरान लोधा जनजाति को एक आपराधिक जनजाति के रूप में चिन्हित कर रखा था। उनके प्रति सामाजिक उदासीनता और भेदभाव की तमाम कहानियों से इतिहास के पन्ने रंगे हुए हैं। 

” मैं लोधा हूं। इसलिए मुझे उच्च शिक्षा का सपना नहीं देखना चाहिए था। मैंने अपराधियों के ख़िलाफ़ शिकायत की, लेकिन वे अछूते रहे। अनावश्यक रूप से मैंने दो साल बर्बाद किए, कक्षाओं में भाग लिया लेकिन परीक्षा में बैठने की अनुमति नहीं दी गई।”

चुन्नी के परिवार में उनके माता-पिता के अलावा तीन बहन और तीन भाई थे। उनका बचपन बेहद गरीबी में बीता था। अपने बचपन में वह खेतों में काम करती थीं। वह पढ़ना चाहती थीं, अपने सपने पूरे करना चाहती थीं। तमाम तरह के भेदभावों के बीच उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी। उनके पास किताबें खरीदने तक के पैसे नहीं होते थे। लेकिन उन्होंने कभी भी अपनी स्थिति के कारण शिक्षा से समझौता नहीं किया और अपनी पढ़ाई जारी रखी।

साल 1983 में उन्हें झारग्राम आईटीडीपी ऑफिस में लोधा गाँव में सर्वे करने की पहली नौकरी मिली थी। इसके बाद उन्होंने विद्यासागर विश्वविद्यालय में स्नातक में दाखिला लिया। साल 1985 में एंथ्रोपोलॉजी (नृविज्ञान) में उनकी स्नातक की डिग्री पूरी हुई। इसी के साथ वह लोधा समुदाय से ग्रैजुएट होनेवाली पहली महिला बनीं।

नौकरी के दौरान झेला जातिगत भेदभाव

स्नातक की पढ़ाई के बाद उन्होंने नौकरी करने का फैसला किया। ग्रैजुएशन के दो साल बाद उन्हें क्वीन शिरोमणि एससी और एसटी गर्ल्स हॉस्टल की सुपरिंटेंडेंट की नौकरी मिली। कोटल के लिए नौकरी का सफ़र आसान नहीं रहा। यहां भी उच्च अधिकारियों द्वारा उनके साथ कई तरह के भेदभाव किए जाते। उन्हें कोई छुट्टी नहीं दी जाती। उन्हें पूरे साल बिना किसी छुट्टी के हफ़्ते के सातों दिन काम करना पड़ता। उनकी शिकायतों को उच्च अधिकारियों द्वारा अनसुना कर दिया जाता।

नौकरी के दौरान उनके संघर्षों पर लेखिका महाश्वेता देवी ने उन पर लिखे एक लेख में लिखती हैं, “एक बार उनके बीमार पिता गाँव से आए और अस्पताल में बिस्तर उपलब्ध नहीं होने के कारण उन्हें एक या दो दिन अपने कमरे में रहना पड़ा। उनके भाई के पैर में चोट लगी थी और उनकी भतीजी भी बीमार थी। इन सब स्थिति से गुजरने के समय जिला कार्यालय के एक अधिकारी ने उन पर पुरुषों को अपने कमरे में बुलाने का आरोप लगाया था।” 

कार्यस्थल पर इस तरह के दूषित माहौल से परेशान होकर उन्होंने पश्चिम बंगाल सरकार से कार्रवाई की मांग की। उनकी पहली मांग ट्रांसफर की थी और दूसरा वह दफ्तर में एक अच्छा माहौल चाहती थीॆ। उनकी मांगों पर कोई सुनवाई नहीं हुई और अथॉरिटी चुप रही। इस तरह उनके प्रयासों को व्यर्थ कर दिया गया। 

आगे की पढ़ाई के लिए किया आवेदन

वह जन्म से ही जातिगत भेदभाव का सामना करती आ रही थीं। चुन्नी जानती थीं कि शिक्षा ही वह जरिया है जो उन्हें इस समाज में बराबरी का हक़ दिला सकती है। स्कूल और कॉलेजों में भी उनके साथ बुरा व्यवहार किया जाता। समय के साथ यह सब और भी बद से बदतर होता चला गया। साल 1987 में उन्होंने परास्नातक में एडमिशन लिया। वहां प्रोफेसरों द्वारा उनके साथ जातिगत भेदभाव किया जाता। 

कोटल इन विपरीत परिस्थितियों के सामने घुटने टेकना नहीं जानती थीं। मास्टर्स की पढ़ाई के दौरान होनेवाले भेदभाव के ख़िलाफ़ उन्होंने शिक्षा मंत्रालय में शिकायत की। साल 1991 में उनकी शिकायत के आधार पर एक जांच आयोग का गठन किया गया। आयोग की स्थापना के बाद भी उनका कॉलेज में उत्पीड़न होता रहा। उन्हें सार्वजनिक रूप से शर्मिंदा किया जाता। उनके द्वारा शिकायत के मामले में न्याय प्रक्रिया निष्क्रिय सिद्ध हुई।

चुन्नी कोटल, तस्वीर साभारः Hindustan Times
चुन्नी कोटल, तस्वीर साभारः Hindustan Times

द वायर में प्रकाशित लेख के अनुसार चुन्नी कोटल ने विश्वविद्यालय में होने वाले जातिगत भेदभाव पर रोते हुए कुछ सह-छात्रों से कहा, “आज गोष्ठी में फाल्गुनी बाबू ने संदर्भ से बिल्कुल हटकर लोधों को चोर-लुटेरा कहा। गलियारे में उन्होंने मुझे धमकी दी, मैं देखूंगा कि तुम सितंबर में परीक्षा में कैसे बैठती हो? मैं लोधा हूं। इसलिए मुझे उच्च शिक्षा का सपना नहीं देखना चाहिए था। मैंने अपराधियों के ख़िलाफ़ शिकायत की, लेकिन वे अछूते रहे। अनावश्यक रूप से मैंने दो साल बर्बाद किए, कक्षाओं में भाग लिया लेकिन परीक्षा में बैठने की अनुमति नहीं दी गई। ( संपादक को पत्र, दैनिक बार्टोमन , 25 अगस्त, 1992 )।”

एक आदिवासी महिला होने के नाते उन्होंने भेदभाव का सामना किया। पूरी क्लास में उनके प्रोफेसर द्वारा उनके साथ दुर्व्यवहार किया जाता। उन्हें सभी के सामने अपशब्द कहते, नीचा दिखाते और उनकी जाति को गालियां दी जाती। रोज़ कक्षा में उपस्थित रहने के बावजूद उनकी हाज़िरी नहीं लगाई जाती, जिस कारण उन्हें पहले वर्ष की परीक्षाओं में नहीं बैठने दिया गया। जब वह अगले वर्ष परीक्षाओं में बैठी तो उनको फेल करने की मंशा से प्रोफेसर ने उन्हें कम अंक दिए। जिसके कारण उनका दूसरा वर्ष भी खराब हो गया। इतना ही नहीं जिला अधिकारी की तरफ से उन्हें हॉस्टल छोड़ने तक के लिए कहा गया था। 

मास्टर्स की पढ़ाई के दौरान होने वाले भेदभाव के ख़िलाफ़ उन्होंने शिक्षा मंत्रालय में शिकायत की। साल 1991 में उनकी शिकायत के आधार पर एक जांच आयोग का गठन किया गया।

चुन्नी कोटल का विवाह उनके समुदाय के ममता शाबर के साथ हुआ था। वह खड़गपुर रेलवे वर्कशॉप में काम करते थे। दोनों ने 1990 में कोर्ट में शादी की थी। मगर चुन्नी कोटल की नौकरी के कारण उन्हें अलग-अलग रहना पड़ता था। 14 अगस्त 1992 को वह अपने पति ममता शाबर से मिलीं। 16 अगस्त को वे दोनों कोटल के गांव जाने वाले थे। मगर शायद वक़्त को यह मंजूर नहीं था। 16 अगस्त को जब उनके पति वापस लौटे तो वह अपने कमरे में मृत मिली। भारत की आजादी वाले दिन चुन्नी कोटल ने सुसाइड कर लिया था। जातिवादी व्यवस्था ने चुन्नी कोटल को 27 साल की उम्र में इस दुनिया से अलविदा कहने पर मजबूर कर दिया था। उनकी मृत्यु के तीन दिन बाद कोटल की शिकायतों के आधार पर गठित किए गए आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट जारी कर दी थी।

तस्वीर साभारः Facbook

जातिवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ लोग हुए एकजुट 

चुन्नी कोटल की मौत ने भारतीय विश्वविद्यालयों में होने वाले जातिगत भेदभावों को दुनिया के सामने उजागर करने काम किया। उनकी मृत्यु से लोधा और अन्य आदिवासी समुदाय बंगाल में जातिवाद के ख़िलाफ़ एकत्र हुए। उनकी मृत्यु मानव अधिकारों की बहस का मुद्दा बनी। ‘बंगाल दलित साहित्य संस्था’ द्वारा कोलकत्ता में बड़ा आंदोलन किया। विश्वविद्यालयों में होने वाली भेदभाव के ख़िलाफ़ सड़कों पर प्रोफेसर के ख़िलाफ़ प्रदर्शन किया गया।

साल 1993 से हर साल वार्षिक ‘चुन्नी कोटल मेमोरियल लेक्चर’ का आयोजन किया जाता है। इसके बाद भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय की तरफ से उनको श्रद्धाजंलि देते हुए एक वीडियो जारी किया गया। चुन्नी कोटल का जीवन से मृत्यु तक का संघर्ष जातिवादी समाज का क्रूर सत्य को उजागर करता है। साल बदले, बहसें हुईं मगर जमीनी स्तर पर अभी भी बहुत जागरूकता और बदलाव नदारद है क्योंकि भारतीय कैंपसों में मौजूद जातिवाद की वजह होने वाली मौतें अभी भी जारी हैं। 


सोर्सः

  1. Wikipedia
  2. The wire
  3. All About Ambedkar 
  4. Round Table India 
  5. Economic and Political Weekly

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