चुनावों के नतीजे आते हैं, राजनीतिक दल सरकार बनाते हैं परंतु हर चुनाव में जीतते केवल पुरुष ही हैं, प्रश्न है कि क्यों महिला उम्मीदवारों की संख्या चुनावी नतीजों में न्यून के बराबर होती है और क्यों उन्हें प्रतिनिधित्व से गायब कर दिया जाता है?लोकसभा, विधानसभा और पंचायतों आदि चुनावों के जब जब नतीजे आते हैं तब तब हम देखते हैं कि इन नतीजों में महिलाएं गायब कर दी जाती हैं। हालांकि कुल मतदाताओं में महिलाओं की संख्या लगभग पुरुषों के बराबर ही नहीं बल्कि कई जगहों पर तो पुरुषों से ज्यादा भी है। परंतु इसके बावजूद महिलाओं का प्रतिनिधित्व उनकी संख्या के मुकाबले बहुत कम है।
अभी हाल ही में आए कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजों पर गौर करें तो पाएंगे कि यहां पर भी महिलाओं की वही स्थिति है जो भारत के अन्य प्रांतों की विधानसभाओं और संसद के दोनो सदनों में है। इंडियन एक्सप्रेस में ख़बर छपी कि कर्नाटक की 224 विधानसभा सीटों में 112 विधानसभा सीटों पर महिला मतदाताओं की संख्या पुरुषों के मुकाबले ज्यादा है। अर्थात 50 फीसदी सीटों पर महिलाओं के पास पुरुषों के मुकाबले ज्यादा ताकत है। परंतु इस सबके बावजूद जीतने वाले उम्मीदवारों में महिला उम्मीदवारों की संख्या बहुत कम है, इसके पीछे सबसे मुख्य कारण ये रहा है कि महिलाओं को चुनाव ही नही लड़ने दिया जाता।
द हिंदू में छपी रिपोर्ट के अनुसार इस बार कर्नाटक चुनाव में कुल 2628 उम्मीदवार अपनी किस्मत आजमा रहे थे परंतु इनमें से महिलाओं की संख्या केवल 185 थी जो कि कुल संख्या का केवल 7.6 फीसदी ही बनता है। वहीं दूसरी तरफ राज्य के मुख्य राजनीतिक दल भी चुनावी मैदान में महिलाओं को उम्मीदवार बनाने से कतराते हैं जैसे कर्नाटक में बीजेपी ने अपने कुल 224 उम्मीदवारों में से केवल 12 महिलाओं को अपनी पार्टी से उम्मीदवार बनाया, कांग्रेस ने 223 में से केवल 11 वहीं जनता दल (सेकुलर) ने 207 में से 13 महिलाओं को टिकट देकर चुनाव लडने का मौका दिया, जिनमें से बीजेपी और कांग्रेस की क्रमश: पांच-पांच महिला उम्मीदवार वहीं जेडीएस की एक महिला और एक निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव जीतने में कामयाब रही। यहां साफ है कि अगर ज्यादा महिलाओं को चुनावी मैदान में उतारा जाता तो निश्चित रूप से ज्यादा महिलाएं विधानसभा में प्रवेश करती और महिलाओं के हित के लिए नीतियों के निर्माण में योगदान दे पाती।
उच्च साक्षरता-दर महिला उम्मीदवारों की संख्या बढ़ने में रही बेअसर
इसके अलावा हम देखते हैं कि कर्नाटक राज्य में महिलाओं के प्रतिनिधित्व पर शिक्षा का भी कोई सीधा असर नहीं देखने को मिलता है जैसे कि कर्नाटक में साक्षरता दर 75.36 प्रतिशत है। पंरतु प्रदेश में अब तक हुए 16 विधानसभा चुनावों में ये केवल चौथी बार हुआ है कि कर्नाटक विधानसभा में महिलाओं की संख्या ने दहाई का आंकड़ा छुआ है और आजादी के बाद से अब तक के सभी चुनावों में कुल 1114 महिलाएं चुनावी मैदान में उतरी हैं जिनमें से 102 ने जीत दर्ज करके विधानसभा में प्रवेश किया है। वहीं दूसरी तरफ साक्षरता दर अधिक वाले राज्य में आज तक केवल 13 महिलाएं ही लोकसभा सांसद बन पाई हैं जो कि संख्या के लिहाज से बहुत कम है।
भारत की संसद में पहली बार 1996 में जब 81वें संशोधन बिल के तहत लोकसभा में “महिला प्रतिनिधित्व बिल” प्रस्तुत किया गया, तब देश के प्रधानमंत्री आज की जनता दल सेकुलर पार्टी के मुखिया एचडी देवगौड़ा ही थे, वहीं इस महिला प्रतिनिधित्व बिल को दूसरी बार 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बीजेपी ने संसद में पेश किया और 2010 में कांग्रेस पार्टी ने राज्यसभा में इस बिल को न केवल पेश किया बल्कि 186 वोटों के साथ इसे संसद की उच्च सदन में पास भी करवाया। पंरतु फिर भी तीनों राजनीतिक दलों ने महिलाओं को चुनावी मैदान से दूर ही रखा।
महिलाएं मतदाता से महिला उम्मीदवार या विधायक क्यों नहीं बन पाई?
अगर हम महिलाओं की राजनीति में भागीदारी मतदाताओं के रूप में देखते हैं तो हम पाते हैं की आजादी से अब तक महिला मतदाताओं की संख्या ने कई नए रिकॉर्ड स्थापित किए हैं। लोकतंत्र में महिलाएं अपने मताधिकार का महत्व जानकर बड़े स्तर पर मतदान के लिए बाहर आ रही हैं। इस संदर्भ में वर्ष 2019 के आम चुनाव में भारतीय महिला मतदाताओं ने पुरुषों को पछाड़कर इसे एक ऐतिहासिक चुनाव के रूप में याद करने योग्य बनाया है।
साल 1961 में महिलाओं का मतदान प्रतिशत पुरुषों के मुकाबले 16.73 प्रतिशत कम था जो कि बीते चुनाव में पुरुषों को पार कर गया। भारतीय राजनीति में लैंगिक समानता की ओर इसे एक बड़ा कदम मानते हुए राजनीतिक वैज्ञानिकों द्वारा इस घटना को ‘आत्म सशक्तिकरण की मौन क्रांति’ का नाम दिया गया है। 1990 के दशक से बढ़ रही महिला मतदाताओं की संख्या के पीछे राजनीतिक विश्लेषकों द्वारा अनेकों कारण दिए जाते हैं जैसे कि महिलाओं में बढ़ती साक्षरता दर, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में वृद्धि, डिजिटल क्रांति, महिला मतदाताओं को प्रेरित करने के लिए चुनाव आयोग द्वारा उठाए गए कुछ विशेष कदम तथा पंचायतों और नगर निगम में महिलाओं के लिए आरक्षण।
यहां पर सोचनीय विषय यह है कि महिला मतदाताओं की बढ़ती संख्या महिला उम्मीदवारों और महिला विधायकों की बढ़ती संख्या में तब्दील क्यों नहीं हो पा रही है? कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भी महिलाओं का मतदान पुरुषों के मुकाबले केवल 0.98 प्रतिशत कम है परंतु चुनाव जीतने के मामले में ये महिलाएं केवल 5.3 प्रतिशत सीटें ही जीत पाई है। महिलाएं मतदान के लिए तो बाहर निकली हैं परंतु नेता के रूप में या विधायिकाओं में इनकी संख्या नही बढ़ पा रही है। राजनीति में महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व के पीछे आज भी वही पुराने घिसे-पीटे संस्थागत एवं संरचनात्मक कारक विद्यमान है जो महिलाओं को नेतृत्व के पदों तक जाने से रोकते हैं।
महिलाओं को कम टिकट देने का चलन
चुनावी राजनीति में महिला मतदाताओं की संख्या कम होने का एक बड़ा कारण यह भी है की महिलाओं को राजनीतिक दलों द्वारा टिकट नहीं दिया जाता है। उनके साथ यह धारणा जुड़ी हुई है कि महिला उम्मीदवार पुरुष उम्मीदवारों की तुलना में चुनाव जीतने की क्षमता नहीं रखती है। चुनाव जीतने की अयोग्यता जुड़ने के कारण राजनीतिक दल उन्हें पार्टी टिकट देने में संकोच करती है। पुरुष राजनेताओं द्वारा महिलाओं की नेतृत्व क्षमता को कम आंकना और उन्हें कमजोर समझना महिलाओं के राजनीति में कम प्रतिनिधित्व का मुख्य कारण है। यही कारण है कि महिलाओं कि मतदान में अधिक भागीदारी होने के बाद भी उन्हें पार्टी टिकट नहीं दिया जाता जिसके चलते महिला उम्मीदवार चुनावी नतीजों से गायब मिलती हैं। अगर महिलाएं टिकट पाकर चुनाव जीत भी गई हैं तो उन्हें नेतृत्व का पद देने में पार्टी असहज महसूस करती है।
महिला मतदाताओं की अधिक संख्या और उनके कम प्रतिनिधित्व से एक बात यह भी स्पष्ट होती है कि राजनीतिक दल महिला मतदाताओं का प्रयोग केवल वोट बैंक के लिए करना चाहते हैं। जिसके लिए राजनीतिक दल महिला मतदाताओं को ध्यान में रखते हुए ही चुनाव प्रचार करते हैं साथ ही महिला मतदाताओं के लिए चुनाव के समय बहुत बड़े-बड़े वायदे करते हैं जैसे कि मुफ्त गैस सिलेंडर देना, मुफ्त परिवहन सेवा देना, महिला सुरक्षा के मुद्दे को प्राथमिकता देना आदि।
राजनीतिक दल, महिला मतदाता के रूप में हो या पार्टी वर्कर के रूप में हो महिलाओं का खुलकर प्रयोग करते हैं। पिछले कुछ वर्षों में यह भी देखा गया है कि महिला मतदाताओं के साथ-साथ महिलाओं की भूमिका पार्टी वर्कर के रूप में भी बढ़ी है। बहुत सारी राजनीतिक गतिविधियों में महिलाएं सक्रिय भूमिका निभा रही हैं जैसे कि चुनावी रैलियों में भाग लेना, घर-घर जाकर चुनाव प्रचार करना आदि। अपने मताधिकार के लिए जागरूक तथा राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय भूमिका निभाने के बावजूद राजनीतिक संस्थाओं से महिलाओं को दूर रखना हमारी राजनीतिक व्यवस्था तथा राजनीतिक दलों की रूढ़िवादी सोच को इंगित करता है।
पितृसत्तात्मक समाज की संरचनात्मक बाधाएं
इसके अलावा कुछ चुनौतीपूर्ण संरचनात्मक स्थितियां भी महिलाओं को राजनीति तक जाने से रोकती हैं। अक्सर ऐसा माना जाता है कि राजनीति केवल पुरुषों का ही कार्य है और महिलाएं इसके लिए उचित उम्मीदवार नहीं हैं। समाज में ‘आंतरिक पितृसत्ता’ होने के कारण महिलाओं की भूमिका केवल घर के कामकाज और बच्चों की देखरेख तक ही सीमित कर दी जाती है जिसके चलते वह राजनीति के लिए स्वयं को तैयार नहीं कर पाती हैं। यह समझा जाता है की महिलाओं की पारिवारिक दायित्व के लिए प्रतिबद्धता ज्यादा है इसलिए वह राजनीति में अपना योगदान नहीं दे पाएंगी।
आजादी के 75 वर्ष पूरा करने के बाद भी भारत में पब्लिक-प्राइवेट के बीच एक सख्त दीवार है जिसके तहत घर के कामकाज को महिलाओं का कार्यक्षेत्र माना जाता है। हालांकि महिलाओं की भागीदारी सार्वजनिक क्षेत्र में बढ़ी है। बहुत सारे अपारंपरिक क्षेत्रों में महिलाओं को न केवल प्रवेश मिला है बल्कि उन्होंने बहुत से नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं। परंतु इसके साथ उन्हें घर के कामकाज से मुक्ति नहीं मिल पाई है जिसका कारण है की घर संभालने के दायित्व को महिलाओं की प्राथमिकता मानकर उन्हें राजनीति के लिए योग्य उम्मीदवार नहीं समझा जाता है।
भ्रष्ट चुनावी व्यवस्था और महिलाएं
भारतीय चुनाव व्यवस्था की दो बड़ी कमियां है धन और बल की ताकत, जिसका चुनाव के दौरान जमकर प्रयोग होता है। चुनाव में पैसे का अंधाधुंध प्रयोग होने के कारण भारत में राजनीति में करियर बनाना एक महंगा विकल्प है जिसके चलते महिलाएं राजनीति में आगे आने से वंचित रह जाती है। चुनाव में वित्तीय व्यवस्था करना महिला उम्मीदवारों के लिए एक चुनौतीपूर्ण कार्य होता है जो राजनीति में उनके प्रवेश को बाधित करता है। उदाहरण के तौर पर हम देख सकते हैं कि भारतीय राजनीति में अधिकांश वही महिलाएं अपनी पहचान बना पाई हैं जो बड़े घरानों से संबंध रखती हैं या जिनके राजनीति में पारिवारिक संबंध है।
भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में सुरक्षित वातावरण की कमी का होना भी महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व का कारण बनता है। विगत वर्षों में कुछ ऐसे मामले सामने आए हैं जहां पुरुष राजनेताओं पर यौन हिंसा के आरोप लगे हैं। इस तरह की घटनाएं महिलाओं के अंदर राजनीति के प्रति उनकी रुचि को कम करती हैं। राजनीति का अपराधीकरण होने के कारण महिलाएं राजनीति को एक उपयुक्त करियर विकल्प के रूप में नहीं चुन पाती हैं।
राजनीति और सत्ता में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए महिलाओं को आगे आकर अपना हक मांगना होगा। क्योंकि ये साफ है कि जिन राज्यों या देशों का नेतृत्व महिलाओं के हाथों में हैं उन राज्यों या देशों ने आपातकाल या किसी महामारी के समय ज्यादा बेहतर प्रदर्शन किया है। उदाहरण के रूप में जब कोरोना ने विश्व में तबाही मचाई तब न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री एक महिला थी और उन्होंने अपने देश में बहुत बेहतरीन तरीके से कोरोना का मुकाबला किया और बहुत बेहतरीन तरीके से अपने देश को इस वैश्विक महामारी से बाहर निकालने में कामयाब रही। इसके साथ ही वही समाज या देश विकास के शिखार को छू पाते हैं जहां पर आधी आबादी को भी पूर्ण भागीदारी मिलती है। इस दिशा में राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र तथा महिला आरक्षण बिल की और मजबूत इच्छाशक्ति कुछ आवश्यक कदम सिद्ध हो सकते है।
स्रोतः