समाजराजनीति पितृसत्तात्मक सोच को कैसे खाद-पानी दे रहे हैं ‘मेन राइट्स ग्रुप’

पितृसत्तात्मक सोच को कैसे खाद-पानी दे रहे हैं ‘मेन राइट्स ग्रुप’

भारत में पुरुषों के अधिकारों और सुरक्षा के लिए कई स्वतंत्र संगठनों ने मंचों के सहारे बात रखनी शुरू की। 1990 के दशक में सबसे पहले कोलकत्ता, मुंबई और लखनऊ जैसे शहरों में पिरितो पुरुष, पुरुष हक्का संरक्षण समिति और पति अत्याचार विरोधी मोर्चे का गठन किया गया।

हाल ही में गुजरात में एक पति की मुत्यु के बाद उसकी पत्नी की आत्महत्या से मौत हो गई। इस ख़बर को आप कैसे देखते हैं, क्या समाज में ऐसी रवायतों को फिर से स्थापित होना चाहिए कि पति की मौत के बाद पत्नी को जीने का कोई हक नहीं है। साल 1829 में ब्रिटिश शासन में पहली बार सती प्रथा के ख़िलाफ़ कानून लाया गया था बाद में इस कुरीति को जड़ से खत्म करने के लिए बदलाव भी किए गए। सती प्रथा एक प्राचीन हिंदू कुरीति थी जिसमें पति की मृत्यु के बाद पत्नी को उसकी चिता में जलाया जाता था। 

लेकिन आज साल 2023 में कुछ समूहों द्वारा पत्नी के पति के बाद मरने की बात को जायज ठहराया जा रहा है, इस रवायत को बनाने रखने पर जोर दिया जा रहा है, महिला की मृत्यु को महानता की तरह दिखाजा जा रहा है। यह सोच पुरुष अधिकार, सम्मान के नाम पर काम कर रहे कुछ समूहों की है। सोशल मीडिया के दौर में ये संगठन इन विचारों को फैला रहे है। इतना ही नहीं हजारों-लाखों की तादाद में लोग इनसे जुड़े हुए भी हैं। 

पुरुषों के अधिकार वाले इन संगठनों के सोशल मीडिया अकाउंट पर जाने पर वहां पुरुषों का उत्पीड़न, पुरुषों के सम्मान, शादी के रिश्तें में पुरुषों की दयनीय स्थिति और स्त्रीद्वेष से जुड़ी बातें मिलेगी। इन संगठनों का तर्क है कि समाज पुरुषों के ख़िलाफ़ पक्षपाती और सेक्सिस्ट बन गया है। पुरुष होने के कारण पुरुषों को मीडिया, सरकार, सुप्रीम कोर्ट से भेदभाव का सामना करना पड़ता है। पुरुषों के अधिकार समूह हिरासत के कानून के ख़िलाफ़ लडते है जिनमें माँओं का पक्ष लिया जाता है।

ये संगठन पुरुषों के ‘सम्मान और समानता’ के लिए अप्रत्यक्ष रूप से सती प्रथा का समर्थन करते दिखे। दूसरी ओर नारीवाद को अपशब्द कहते नज़र आते हैं। नारीवाद को खत्म करने, नारीवादियों का मजाक उड़ाना, महिलाओं को पुरुषों का शोषण करने वाली, गोल्ड डिगर जैसी बताया जाता है। इतना ही नहीं पुरुष अधिकार संगठन नारीवाद को खत्म करने के लिए सार्वजनिक तौर पर हवन, पूजा का आयोजन भी करते हैं।

आखिर मेन राइट्स समूह क्या है?

साल 1970 में अमेरिका में नारीवादी आंदोलन के दौरान मेन राइट्स संगठनों ने तर्क दिए की जब परिवार के अधिकारों, तलाक, बच्चे की कस्टडी, गुजारा भत्ता, घरेलू हिंसा की बात आती है तो पुरुषों के साथ भेदभाव होता है। इन संगठनों ने महिलाओं को मिले अधिकारों के लिए नारीवाद की आलोचना करनी शुरू कर दी। तभी दक्षिणपंथी-ब्राह्मणवादी लोगों के समूहों ने पुरुषों के स्त्री विरोध विचारों और पुरुष उत्पीड़न को लेकर महिलाओं के ख़िलाफ़ कुप्रचार करना शुरू कर दिया। 

इन समूहों में सेवा इंडियन फैमिली फाउंडेशन, वॉयस ऑफ मेन इन इंडिया, नैशनल कमीशन फॉर मेन्स, नैशनल काउंसिल फॉर मेन्स और पुरुष अधिकारों के लिए अलग-अलग बने एनजीओ का यह मानना है कि महिलाएं कानूनी तौर पर ज्यादा लाभ ले रही है और पुरुषों का शोषण हो रहा है।

भारत में पुरुषों के अधिकारों और सुरक्षा के लिए कई स्वतंत्र संगठनों ने मंचों के सहारे बात रखनी शुरू की। 1990 के दशक में सबसे पहले कोलकत्ता, मुंबई और लखनऊ जैसे शहरों में पिरितो पुरुष, पुरुष हक्का संरक्षण समिति और पति अत्याचार विरोधी मोर्चे का गठन किया गया। इन संगठनों ने विशेष रूप से पतियों के लिए बात करनी शुरू की। इन तीनों समूह का गठन भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए के दुरुपयोग के जवाब में किया गया। 

इसके बाद साल 2005 में पुरुषों की मदद के लिए सेव इंडियन फैमिली के द्वारा हेल्पलाइन शुरू की गई। यह समूह पूरे भारत में परिवार के अधिकारों की बात करने का दावा करता है। 19 नवंबर 2007 में सेव इंडियन फैमिली फाउंडेशन के द्वारा भारत में पहली बार अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस का आयोजन किया गया था। साल 2017 में मेन वेल्फेयर ट्रस्ट (एमडब्ल्यूटी) की दिल्ली में एक शाखा की भी स्थापना की गई। पुरुष अधिकार समूहों एक तरफ तो जेंडर न्यूट्रल कानून की मांग करते है लेकिन दूसरी तरफ इनका प्रचार-कुप्रचार महिला विरोधी है। 

सोशल मीडिया पर लगातार महिलाओं का विरोध 

आज, इन समूहों ने महिला विरोधी समुदाय के रूप में अपनी उपस्थिति बना ली है जिसे नारीवाद के विरोध से लेकर घोर मिसोजिनी के तौर पर जाना जाता है। सोशल मीडिया पर इस समूहों का प्रचार महिलाओं को हिंसा करने वाला, महिला को लालची बताना, पुरुषों को प्रताड़ित करना, गलत आरोप लगाने वाला बताया जाता है। #AblaNariSyndrome, #MenLiveMatter, #FeminismIsCancer, #FlaseRapeCase, #MenRights, #MeToo #मर्द असुरक्षित है जैसे हैशटैग को इस्तेमाल कर ये लगातार काम कर रहे हैं। इन्हीं संगठनों ने दिल्ली हाई कोर्ट में मैरिटल रैप पर चल रही सुनवाई के दौरान सोशल मीडिया पर कानून की मांग को पुरुष विरोधी बताया था। इतना ही शादी के रिश्ते में बलात्कार पर हाई कोर्ट के अलग-अलग फैसले को अपने पक्ष में देखा गया था। 

तस्वीर साभारः YKA

यूनिवर्सिटी ऑफ मिशीगन के द्वारा किये गए एक रिसर्च के अनुसार भारत में एंटी फेमिनिस्ट आंदोलन ट्विटर पर तेजी से बढ़ रहा है। मीटू अभियान के बाद ऑनलाइन इसका आकार बढ़ गया है। ट्विटर पर पुरुषों के अधिकारों के संरक्षण से जुड़ी गतिविधि सोशल मीडिया पर #MeTooIndia की प्रतिक्रिया के तौर पर महत्वपूर्ण हो गई है। #MeToo का इस्तेमाल पुरुषों के ख़िलाफ़ कथित रूप से झूठे मामलों को उजागर करने के लिए किया जाता है। इस रिसर्च में ट्वीट करने की गतिविधि में रूझानों और पैटर्न को समझने के लिए 1 नवंबर 2021 से 1 नवंबर 2022 के एमआरए समुदाय द्वारा सोशल मीडिया की एक्टिविटी के डेटा की जांच की गई। 

रिसर्च में पुरुष अधिकार के संगठनों के ट्विटर अकाउंट की एक्टिविटी पर अलग-अलग मुद्दों पर सेैंपल लिया गया। इसमें मैरिटल रेप से जुड़े अदालत के फैसले पर ट्वीट, मुख्य न्यायधीश चंद्रचूड के जेंडर जस्टिस के मुद्दे से जुड़े फैसलों, श्रद्धा वालकर मर्डर केस, रिचा चड्डा के बयान और ट्विटर टाइमलाइन की जांच की गई। साथ ही इस रिसर्च में पुरुषों के संगठनों की कार्यशैली पर बात की गई है। जेंडर के मुद्दों पर मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड के विचारों को इन समूहों ने #NotMyCJI #LegalTerrorism जैसे हैशटैग चलाए गए।

साल 1970 में अमेरिका में नारीवादी आंदोलन के दौरान मेन राइट्स संगठनों ने तर्क दिए की जब परिवार के अधिकारों, तलाक, बच्चे की कस्टडी, गुजारा भत्ता, घरेलू हिंसा की बात आती है तो पुरुषों के साथ भेदभाव होता है। इन संगठनों ने महिलाओं को मिले अधिकारों के लिए नारीवाद की आलोचना करनी शुरू कर दी।

पितृसत्ता को बढ़ावा और नेताओं का सहयोग

यूर्निवर्सिटी ऑफ मिशीगन के द्वारा की गई शोध में यह बात भी निकलकर आई थी कि पुरुष अधिकारों की बात करने वाले ये संगठन केवल ऑनलाइन ही बहुत सक्रिय नहीं है बल्कि ऑफलाइन भी ये समूह लोगों को अपने साथ जोड़ रहे है। अधिकतर पुरुषों के अधिकार समूह अलग-अलग सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि वाले पुरुषों और महिलाओं को आकर्षित करते हैं। ये समूह मुख्यतौर पर असंतुष्ट युवा पुरुषों, यौन हिंसा और घरेलू हिंसा के पुरुष सर्वावर, पिता के अधिकारों की वकालत करते है। पितृसत्ता की पैरवी करने वाले इन समूहों को सारी समस्याओं की जड़ नारीवाद और महिलाओं की स्वतंत्रता में दिखती है। पुरुषों अधिकारों के समूहों का राजनीतिक दल से जुड़ाव और सहयोग भी नज़र आता है। अगर अमेरिका की ही बात करे तो पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प द्वारा पुरुषों के अधिकार समूहों और उनकी मांगों को समर्थन दिया था। 

भारत में दक्षिणपंथी विचारधारा के राजनीतिक दल विशेष रूप से पुरुष अधिकार समूहों की मांग को जायज ठहराते दिखते है। ब्राह्मणवादी व्यवस्था को स्थापित करने वाले राजनीति समूह सार्वजनिक मंचों से पुरुष अधिकार समूह की मांगों को लागू करने की बात करते है। भाजपा के राजीव प्रताप रूड़ी, हरिनारायण राजभर जैसे कुछ सांसदों ने भी पुरुषों के अधिकारों और पुरुषों के कमीशन पर ध्यान देने की आवश्यकता पर बात की। साल 2014 के आम चुनावों से पहले इन समूहों ने राष्ट्रीय दलों से पुरुषों के लिए मंत्रालय और पुरुष अधिकार पैनल के गठन की मांग प्रस्तुत की गई। उन्होंने ‘मेन-इफेस्टो’ नाम अपना घोषणा पत्र भी जारी किया था जो पुरुषों के मुद्दों और उनके समाधान के लिए सरकार को प्रतिबंधित करता है। भारत में साल 2000 के बाद हर स्तर के चुनाव में पुरुष अधिकार समूह अपने मुद्दों को जोड़ते हुए राजनीतिक पार्टियों से संपर्क करते है और उनकी मांगों को मानने के बाद समर्थन देने की बात करते है।

मेन्स ग्रुप, पुरुषों के लिए एक ऑनलाइन सहायता समूह की तरह बनकर उभर रहे हैं। अगर विस्तार से बात करें तो सोशल मीडिया पर तमाम ऐसे पोस्ट देखने को मिलते हैं जहां घरेलू हिंसा, परिवार संरक्षण और बच्चों की कस्टडी से जुड़े मामलों में कानूनी और आर्थिक सलाह देते हैं। इतना ही नहीं भावनात्मक तौर पर समस्याओं से कैसे निपटना है उसकी काउंसिल की व्यवस्था भी की जाती है। 

पिछले एक दशक में अलग-अलग समूह एक संगठित नेटवर्क को स्थापित करने का काम किया गया। सार्वजनिक बैठकें, वार्षिक सम्मेलन, महिलाओं से मुक्ति के लिए हवन के आयोजनों जैसे काम करते दिखे। बीते वर्ष हैदराबाद में सेव इंडियन फैमिली फाउंडेशन के द्वारा कॉन्क्लेव आयोजित किया गया। ऑनलाइन स्पेस में बहुत सक्रियता से काम कर रहे है और महिलाओं के ख़िलाफ़ नफरत फैला रहे है। इन समूहों में सेवा इंडियन फैमिली फाउंडेशन, वॉयस ऑफ मेन इन इंडिया, नैशनल कमीशन फॉर मेन्स, नैशनल काउंसिल फॉर मेन्स और पुरुष अधिकारों के लिए अलग-अलग बने एनजीओ का यह मानना है कि महिलाएं कानूनी तौर पर ज्यादा लाभ ले रही है और पुरुषों का शोषण हो रहा है।   

ये समूह पुरुष अधिकारों की मांग को लेकर समाज में नफरत और गुस्से को बढ़ा रहे हैं। समानता की बात न करते हुए महिलाओं को शांति से संघर्ष के द्वारा मिले हकों को खत्म करके और उन्हें समाज के लिए खतरा बताते हैं। पुरुषों के अधिकारों के मंचों से साफ तौर पर केवल पुरुषों को महत्व देने की बात की जाती है। इस तरह से लैंगिक भेदभाव को और गहरा करने का काम किया जा रहा है। 


स्रोतः

  1. IndiaTimes.com
  2. MensGroup.com 
  3. Wikipedia
  4. Fee stories

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