इस तस्वीर को देख कर आपके मन में क्या आता है? कि यह एक बस्ती है जैसे देश में हज़ारों, लाखों दूसरी बस्तियां हैं। सारी बस्तियों को बस ‘बस्ती’ कहकर हम उन्हें कितना कम समझ पाते हैं। हम सबने इस बस्ती को देखा है लेकिन अधिकतर केवल सामने दिख रही इस सड़क से गुज़रते हुए, बहुत दूर से। बाहर से देखते हुए हमने कभी कभी चिंता की कि कोई ऐसे कैसे रहता होगा तो कभी हमने कहा होगा, “ये लोग भी कोई ग़रीब हैं? देखो, इनके पास तो टीवी है, फ़ोन है, कइयों के पास तो ट्रैक्टर भी है। जानबूझ कर ग़रीबों की तरह रहते हैं ये।” हम जिस बस्ती की बात कर रहे हैं यह झुंझुनू के रिक्को क्षेत्र में मौजूद है। यहां मुख्य रूप से बंजारा और नट समुदाय के हैं जो कोटा, पाली, कुछ पंजाब से भी पलायन करके दशकों से यहीं रह रहे हैं। बस्ती में करीब 50 परिवार रहते हैं जो पड़ोस की फैक्ट्रियों में या कंस्ट्रक्शन साइट पर काम करते हैं। कई बच्चे शिक्षा से जुड़े हैं लेकिन अलग-अलग कारणों से अधिकतर स्कूल नहीं जा पाते। एक नज़र उन कारणों पर…
कभी-कभी शायद हमें उस सड़क से अंदर जाकर बस्ती को देखना चाहिए। एक-एक झुग्गी में लगे पत्थर, बांस, तिरपाल, कपड़े और उसको जोड़ने की कला, मेहनत और सर्वाइवल को देखना चाहिए। तीन तरफ़ साड़ी बांधकर स्थापित किए गए नहाने की जगह को भी। ऋषि के घर को देखना चाहिए जो मिट्टी को पानी दे देकर उसे पक्का कर रहा है। आशा की रसोई को देखना चाहिए जहां उसकी पांच छोटी बहनें खाना खा रही हैं। 8 साल के विष्णु की शादी को भी देखना चाहिए तो 15 वर्ष की मनीषा के सपनों को भी जो शाम को 5 बजे काम से आ कर पढ़ना और अपनी आठवीं की परीक्षा में पास होना चाहती है। सबसे पहले, हमें हमारी नाकामी को देखना चाहिए।
यह आशा हैं। इनके परिवार में यह 6 बहनें हैं। सातवां भाई- रोहित इनकी गोद में है। आशा सबसे बड़ी हैं। इन्होंने 1 महीने में हिंदी के अक्षर सीखे और फिर एक दिन अपने परिवार के नाम कॉपी में लिखने लगी और ऐसे ही कहानी, कविता, मन की बात भी। इन्हें पढ़ने में बहुत रस आता है। कभी-कभी यह शाम को आटा लगा रही होती हैं और बीच में भागकर एक पन्ना लिखकर रोटी बनाने जाती हैं। कुछ देर में फिर कुछ और सीखने आती हैं। जब इनके माँ-पिता रोज़ काम पर जाते हैं तो यह झुग्गी संभालती हैं, खाना बनाती हैं, अपने छोटे भाई-बहनों को संभालती हैं। नीचे पेंसिल को चबा रही रवीना हैं जो अब 4 वर्ष की हो गई हैं और बहुत तेज़ दौड़ लगाती हैं। आशा 12 साल की ही हैं पर उनके मन में खुद के स्कूल जाने की तो संभावना ही नहीं है। वह अपनी छोटी बहनों को स्कूल भेजना चाहती हैं।
यह पूनम हैं। आशा की छोटी बहन जो उनका काम में हाथ बंटाती हैं और इनके पास बकरी चराकर लाने और लकड़ी काटकर लाने की ज़िम्मेदारी है। जैसे-तैसे पूनम स्कूल जाने लगी। इन्हें वहां खेलकर, नाचकर, पढ़कर बहुत मज़ा आता है। इनकी मैडम इनकी हैंडराइटिंग की फैन हैं। पूनम को लिखना इतना पसंद है कि वह एक पंक्ति दो-तीन पन्नों तक भी बस लिखती जाती हैं। कभी-कभी इन्हें बकरी चराने जाना ही पड़ता है, कभी कोई और काम के चलते इन्हें स्कूल छोड़ना पड़ता है।
मिलिए ममता से जिन्हें बातें करना, डांस करना और आज़ादी से टहलते रहना बहुत पसंद है। अक़सर अपने छोटे भाई से परेशान रहती हैं जो झगड़ता रहता है। इन्हें ‘त’ वाली पंक्ति से बहुत डर लगता है लेकिन यह जल्दी से पढ़ना सीखना चाहती हैं। एक दिन जब पढ़ते हुए इनके पापा ने इन्हें चाय बनाने बुलाया तो इन्होंने गुस्से में आकर ज़ोर से बोला, “यह हमारे आदमी हैं न, इनसे कुछ बर्दाश्त नहीं होता।” यह अपनी दो छोटी बहनों को रोज़ डांट-डपटकर पढ़ने भेजती हैं। इनकी उम्र 13 वर्ष है।
यह लक्की हैं जो अपने दादा-दादी के साथ रहते हैं लेकिन पूरे दिन इनका कोई पता नहीं होता। पतंग उड़ाना, कंचे खेलना, दौड़ना और पढ़ना इनके प्रमुख शौक़ हैं। आजकल यह लोकल इन्फ्लुएंसर्स के साथ रील भी बनाते हैं। लक्की का स्कूल में आधिकारिक रूप से दाखिला नहीं है लेकिन साल भर से वह रोज़ काफ़ी चलकर स्कूल जाते हैं और हालांकि इन्हें ‘ख’ लिखने में दिक्कत होती है, इन्होंने पढ़ना सीख लिया है। चलते-फिरते दुकानों के नाम पढ़ लेते हैं यह।
यह महेश हैं। एक दिन अचानक इन्होंने बताया कि इनकी शादी होनेवाली है और उपनी टीशर्ट उठाकर अपनी कटार दिखाई। हमने इनकी दोस्ती को ‘धोखा’ देते हुए 1098 पर कॉल किया तो उन्होंने चिंता जताते हुए लोकल टीम से बात करवाई। अगले दिन लोकल टीम वहां गई और पूछा कि क्या यहां शादी हो रही है? जवाब ना में मिला तो टीम चली गई। हमने उन्हें फिर कहा कि कुछ करिए तो उन्होंने कहा आप पुलिस से बात करिए। पुलिस ने हमें बोला कि आप शादी होने का सबूत पेश करें। हमने कटार वाली फ़ोटो दिखाई। पुलिस ने कुछ मोटा सबूत मांगा जैसे फेरे की तस्वीर। फिर हम ही पुलिस बनकर जासूसी करने लगे लेकिन कुछ नहीं कर पाए। अगले दिन महेश की शादी हो गई। यह अब भी शायद स्कूल जाते हैं और इनकी पत्नी पड़ोस वाले घर में रहती हैं। यह दोनों साथ खेलते हैं। कुछ सालों बाद वह पूरी तरह इनके घर आ जाएंगी।
यह अनीता (बाएं) और जिया (दाएं) हैं। दोनों बहनें हैं। जिया बकरी चराकर, खाना बनाकर शाम को पढ़ती हैं और छोटे-मोटे निबंध पढ़ना सीख गई हैं। उन्हें सबके नाम लिखने में बहुत मज़ा आता है। अनीता, जिन्हें सब अंतर कहते हैं, को ‘इ’ के घूमाने में महीने भर उलझन रही लेकिन जब से उन्हें इ से इमली आई है, वह लगातार वर्णमाला और अक्षर बनाना सीख गई। लक्की की तरह वह भी बहुत दूर चल कर स्कूल जाती हैं लेकिन वहां खेलने का मज़ा उन्हें लुभाता चला जाता है। आजकल वह अपनी दोस्त चीना के साथ कस्तूरबा गांधी विद्यालय में प्रवेश लेने का सोच रही हैं जहां खाना-पीना-रहना-पढ़ना आसान हो जाएगा लेकिन उन्होंने घर पर बात नहीं की है और उनके लिए लड़की को कहीं और भेजना बहुत मुश्किल से संभव होगा। लेकिन अनिता सोच सोचकर ही खुश हैं।
यह आरती हैं जिन्हें शिकायत है कि उन्हें पढ़ने का ख़्याल बहुत देर से आया। उन्होंने कुछ महीने पढ़ाई की पर फिर उनकी काम की उम्र हो गई। वह रोज़ सुबह 9 बजे काम पर जाती हैं, ईंट उठाती हैं, सीमेंट बजऱी मिलाती हैं। उन्हें रोज़ के करीब 500 रूपये मिलते हैं। रोज़ शाम वह 5 -6 बजे आती हैं, टिफ़िन लहराते हुए लेकिन ‘हेलो, पढ़ लो!’ बोलना नहीं भूलती।
यह मनीषा हैं। यह पांचवी तक रोज़ स्कूल जाती थी और काफ़ी होनहार थीं। कोविड के बाद से यह टाइल लगाने का काम करती हैं। काम करते-करते ही इन्होंने आठवीं की परीक्षा दी। आगे पढ़ना चाहती थीं लेकिन अभी काम पर जाना ज़रूरी है। इसलिए पहले का पढ़ा हुआ याद रखने के लिए काम के बाद ही थोड़ा पढ़ लेती हैं।
राधिका उबासी ले रही हैं। रवीना अ बना रही हैं। कोई खेल रहा है तो कोई चित्र बना रहा है। सब बैठे हैं, बहुत सारी कहानियों के साथ। अपनी अपनी उम्मीदों और बेचैनियों के साथ।
यह सामने वाले प्लाट में झुग्गी खाली करवाने के बाद चलती जे.सी.बी है। जिनकी कहानियां ऊपर हैं, उन्हें कई दफ़ा खाली करने के नोटिस आते रहते हैं। एक दिन ऐसे ही कोई इन कहानियों को साफ़ कर देगा जो वैसे भी हवा के ख़िलाफ़ खड़ी हैं।
सभी तस्वीरें कनिका द्वारा उपलब्ध करवाई गई हैं। सभी तस्वीरें बस्ती में रहनेवालों की सहमति से ली गई हैं।