भारत के प्रमुख वैज्ञानिकों की सूची में एक प्रमुख नाम है डॉक्टर रितु करिधाल। इन्हें पूरा देश रॉकेट वुमन के नाम से जानता है। वह भारत के कई प्रमुख अंतरिक्ष मिशन का हिस्सा रह चुकी हैं। वह भारत के मंगल कक्षीय मिशन, मंगलयान मिशन की डिप्टी ऑपरेशन डायरेक्टर थीं। वह इसरो के कई प्रोजक्ट पर काम कर चुकी हैं।
रितु का जन्म 1975 में लखनऊ के एक छोटे से कस्बे राजाजी पुरम के एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। इनका प्रारंभिक जीवन आम लड़कियों की ही तरह था। इन्होंने अपने कॉलेज की पढ़ाई लखनऊ में ही की थी। बचपन से ही अंतरिक्ष के प्रति उनका आकर्षण था। आसमान को देखना, तारों और चन्द्रमा से जुड़ी चीजों के बारे में खोजकर पढ़ने में गहरी रूचि थी। लखनऊ शहर में अपने स्कूल के दिनों के दौरान इसरो या नासा द्वारा किसी भी अंतरिक्ष गतिविधियों से संबंधित समाचार लेख एकत्र करना और समय निकाल करके उनको पढ़ना उनके प्रमुख शौक में से एक था। उन्होंने लखनऊ यूनिवर्सिटी से फिजिक्स विषय से बीएससी और एमएससी प्रथम श्रेणी में पास किया। इसके बाद उन्होंने इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस बेंगलुरु से एमटेक किया।
इसरो में वैज्ञानिक सफ़र
पीएचडी में दाखिला लेने के बाद ही उन्होंने वैज्ञानिक बनने के लिए इसरो में भी आवेदन किया था और इनका वहां चयन हो गया। साल 1997 में वह इसरो से जुड़ी हुई हैं। वीमन इकोनॉमिक फोरम के अनुसार उन्होंने इंटरनेशनल और नैशनल जर्नल में अब तक 20 से भी ज्यादा पेपर पब्लिश किए हैं। वर्तमान में वह भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन में एक वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं।
मंगल मिशन की सफलता के अवसर पर उन्होंने कहा था, “कई बार कहा जाता है कि पुरुष मंगल के हैं और महिलाएं शुक्र की पर मंगल अभियान के बाद कई लोगों ने कहा कि महिलाएं मंगल की हैं।”
इन्होंने मार्स ऑर्बिटर मिशन (MOM) को साकार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। MOM वह मिशन है जो पहले प्रयास में ही मंगल ग्रह तक पहुंच गया था। मंगल मिशन की सफलता के बाद वह प्रमुख तौर पर सुर्खियों में आईं। तब से उनका योगदान अंतरिक्ष के क्षेत्र में बढ़ता ही जा रहा हैं। मंगल मिशन की सफलता के अवसर पर उन्होंने कहा था, “कई बार कहा जाता है कि पुरुष मंगल के हैं और महिलाएं शुक्र की। पर मंगल अभियान के बाद कई लोगों ने कहा कि महिलाएं मंगल की हैं।”
रितु, दो बच्चों की मां हैं और जिस समय मंगल मिशन चल रहा था, उनका बेटा 11 साल का था जबकि उनकी बेटी 5 साल की थी। वह अपने पेशेवर और कामकाजी, परिवारिक जीवन के बीच संतुलन बनाए रखती थीं और अपने व्यस्त समय, थके होने के बावजूद उन्होंने अपने परिवार को समय देने में कभी कोताही नहीं बरती। कहानी उन हजारों महिलाओं की तरह हैं जो अपने घर और परिवार की उपेक्षा नहीं करती और अपने जुनून के साथ काम करती है और उसमें एक मुकाम हासिल करती हैं।
उपलब्धियां और पुरस्कार
विज्ञान के क्षेत्र में अबतक के योगदान के लिए उन्हें कई पुरस्कारों से नवाज़ा गया है। जिनमें से “भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति श्री अब्दुल कलाम द्वारा 2007 में युवा वैज्ञानिक पुरस्कार”, “2015 में मंगलयान के लिए इसरो टीम पुरस्कार”, “एएसआई टीम पुरस्कार”, सोसायटी ऑफ इंडियन एयरोस्पेस टेक्नोलॉजीज एंड इंडस्ट्रीज के द्वारा “वुमन अचीवर्स इन एयरोस्पेस “, बैंक ऑफ बड़ौदा द्वारा “बिरला सन अचीवमेंट अवार्ड” से उन्हें सम्मानित किया जा चुका हैं। वह चंद्रमा पर इसरो के पहले लैंडिंग मिशन यानी चंद्रयान-2 के लिए काम कर चुकीं है। वर्तमान में चंद्रयान-3 की मिशन डायरेक्टर की भूमिका निभा रही हैं।
इसरो में बढ़ती महिलाओं की भागीदारी
मिशन में शीर्ष नेतृत्व की भूमिकाओं में पुरुषों की मौजूदगी के कारण यह एक पूरी तरह पुरुष-प्रधान मिशन जैसा लग सकता है, लेकिन इस मिशन में बड़ी संख्या में महिला वैज्ञानिक शामिल रही हैं। इकोनॉमिक टाइम्स की ख़बर के अनुसर चंद्रयान-3 मिशन में लगभग 54 महिला इंजीनियरों/वैज्ञानिकों ने सीधे इस मिशन पर काम किया हैं। इसरो के एक अधिकारी के अनुसार, चंद्रयान-3 मिशन में महिलाएं “विभिन्न प्रणालियों के सहयोगी और उप परियोजनाओं की निदेशक और परियोजनाओं की प्रबंधक हैं।” महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए स्टेम के क्षेत्र में मौके मिलना और उन मौकों को उपलब्धि में तब्दील करना यह बहुत आवश्यक है।
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन की 2016-17 की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक, देश में अंतरिक्ष विभाग में साइंटिफिक एंड टेक्निकल कैटेगरी में कुल 12,300 वैज्ञानिक हैं जिसमें से करीब 1890 महिलाएं हैं। वहीं, विभाग में प्रशासनिक कैटेगरी में कुल 4602 लाेग हैं, जिसमें से 1262 महिलाएं हैं। इन्हें मिलाकर देश के स्पेस डिपार्टमेंट में कुल 15,881 लोग काम करते हैं, जिसमें से करीब 20 फीसदी पदों का प्रतिनिधित्व महिलाएं करती हैं।
हमें इस 20 फीसदी भागीदारी को कम से कम 50 फीसदी तक पहुंचाना पड़ेगा। तभी हम विज्ञान के क्षेत्र और इसरो जैसे महत्वपूर्ण संस्थान को पुरुषों की पितृसत्तात्मक सोच से मुक्त कर पाएंगे। इसरो और डीआरडीओ जैसी प्रमुख अंतरिक्ष एजेंसियों में महिला वैज्ञानिकों की लगातार बढ़ती भागीदारी इस बात का प्रमाण है कि महिलाओं को न तो बांधा जा सकता है और न ही उन्हें अपनी पसंद का कोई भी काम करने से रोका जा सकता है। वे पितृसत्तात्मक समाज की जंजीरों को तोड़ कर बाहर आ सकती हैं और अपने पंख फैला कर, ऊंचे आकाश में उड़ सकती हैं।
अंतरिक्ष के क्षेत्र में इसरो ने जो नए आयाम खड़े कर दिए उससे अंतरिक्ष की दुनिया मे भारत एक मजबूत शक्ति बन कर उभर रहा है। 15 फरवरी 2017 को भारत ने एक साथ 104 सैटेलाइट्स स्पेस में भेजकर रूस का रिकॉर्ड तोड़ दिया था। इसके पहले रूस के नाम एक बार में 37 सैटेलाइट्स भेजने का रिकॉर्ड था। अब भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जिसने एक साथ सबसे ज्यादा सैटेलाइट भेजने का रिकॉर्ड कायम कर रखा है। इस रिकॉर्ड को बनाने में जितना योगदान पुरुष वैज्ञानिकों का है उतना ही महिला वैज्ञानिकों का भी हैं। महिलाओं की इन उपलब्धियों को सामाजिक लैंगिक स्तिथि की नज़र से भी देखा जाना चाहिए क्योंकि क्योंकि पुरुषों के नौकरी करता है लेकिन जेंडर की तय की गई भूमिकाओं के चलते महिलाओं को घर संभालने की जिम्मेदारी, बच्चो की जिम्मेदारी, प्रेगनेंसी, पीरियड्स इन तमाम परेशानियों से होकर गुज़रना पड़ता है।
महिला वैज्ञानिकों के सामने चुनौतियां
इकनॉमिकल एंड पोलटिकल वीकली के एक अंक में गीता चड्ढा और आशा अच्युतन ने ‘नारीवादी विज्ञान अध्ययन’ के नाम से विज्ञान के क्षेत्र की स्थिति और काम करने वाले महिलाओं की स्थिति को इंटसेक्शनल स्तर पर जांचा है जिसमें जाति, वर्ग, समुदाय, भाषा और जेंडर को शामिल किया है। उन्होंने महिला वैज्ञानिकों के आत्मकथात्मक वृत्तांत एकत्र किए जिसमें उन चुनौतियों का वर्णन किया गया, जिनका उन्होंने शिक्षा जगत में प्रवेश करने का प्रयास करते समय सामना किया था। साथ ही 1980 और 1990 के दशक के दौरान महिला अकादमिक विद्वानों को उनके पुरुष सहकर्मियों, अन्य शिक्षाविदों और उनके स्वयं के परिवारों द्वारा नियमित रूप से अपमानित किया जाता था। यह एक प्रवृत्ति जो वर्तमान में भी जारी है।
भौतिक वैज्ञानिक सुमति राव ने इन परिस्थितियों की व्याख्या की है। उनके काम को लगातार यह कहकर कम महत्व दिया गया कि उनके पति, जो उसी क्षेत्र में एक वैज्ञानिक हैं, ने उनकी ओर से उनके अकादमिक पेपर लिखे थे। राव इस समस्या के बारे में बताती हैं कि भारतीय अकादमिक हलकों में अविवाहित और विवाहित महिलाओं दोनों को अलग तरह से देखा जाता है। एक अविवाहित महिला ‘गलत’ तरह का ध्यान आकर्षित करती है विशेषकर पुरुष प्रधान क्षेत्रों में, जहां उसे प्रोमोशन या करियर को आगे ले जाने के लिए सेक्सुअल फेवर के लिए मजबूर किया जाता है और उसे शायद ही कभी गंभीरता से लिया जाता है।
नेतृत्व में महिला वैज्ञानिकों की भागदारी बढ़ानी है ज़रूरी
किसी भी क्षेत्र को समावेशी बनाने के लिए हमें जेंडर बाइनरी को खत्म करते हुए हर लिंग, वर्ग और समुदाय के लोगों को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। इसरो के मिशन में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित नही करनी है बल्कि विज्ञान की प्रांरभिक स्तर की शिक्षा में भी उनको आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। इससे आगे कार्यस्थल पर उनकी मौजदूगी से आगे नेतृत्व में शामिल करने की आवश्यकता है। आखिर क्या कारण है, जिससे इसरो के साठ वर्षों से अधिक के इतिहास में अबतक एक भी महिला महिला वैज्ञानिक चेयरपर्सन नहीं बनी। 1963 में स्थापित इस संस्थान के दस चेयरपर्सन हुए है, जिसमें एक भी महिला नहीं है। संस्थानों के इस पुरुष प्रधान होने की पितृसत्तात्मक सोच को बदलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि हर संस्थानों में महिलाओं को भी नेतृत्व करने में बराबर मौका दिया जाए।