संसद के चल रहे विशेष सत्र के दौरान सरकार ने मंगलवार को महिला आरक्षण बिल लोकसभा में पेश किया। 128वां संवैधानिक संशोधन विधेयक, 2023 लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण प्रदान करता है। साथ ही यह विधेयक मुस्लिम और ओबीसी महिलाओं को आरक्षण से बाहर करता है। ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे कि धज्जियां उड़ाते हुए, मौजूदा सरकार ने फिर से मुस्लिम महिलाओं के साथ भेदभाव वाला रवैया अपनाया है।
मुस्लिम महिलाओं का भारतीय राजनीति में पहले ही कम प्रतिनिधित्व है, अब इस विधेयक के आने के बाद से मुस्लिम महिलाओं की स्थिति कैसी होगी, यह सोचना आसान है। यह कहना गलत नहीं होगा कि मुस्लिम महिलाओं के समान प्रतिनिधित्व के बिना यह बिल अधूरा है। इंडोनेशिया के बाद भारत दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाला देश है। एक अरब से अधिक आबादी में से 14.2 प्रतिशत के साथ, मुसलमान भारत में सबसे बड़े अल्पसंख्यक हैं। इस आबादी में मुस्लिम महिलाओं का प्रतिशत 6.9 है। इतनी आबादी होने के बाद भी, वर्तमान में, निवर्तमान लोकसभा के 543 सदस्यों में से केवल दो मुस्लिम महिलाएं हैं।
मुस्लिम महिलाओं को दोहरे भेदभाव का सामना करना पड़ता है बतौर एक महिला और मुस्लिम, दोनों के रूप में उनके साथ भेदभाव किया जाता है। “क्युमुलेटिव डिस्क्रिमिनेशन” के संदर्भ में एक मुस्लिम होने और एक महिला होने के नाते – मुस्लिम महिलाओं को पितृसत्तात्मक बंधनों से गुज़रना पड़ता है। महिला होने की सामान्य बाधाएं जो सभी महिलाओं पर लागू होती हैं, मुस्लिम महिलाओं पर और भी अधिक मजबूती से लागू होती हैं।
देश की आज़ादी में मुस्लिम महिलाओं का योगदान
भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई में सभी ने अपना योगदान दिया है। पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं का योगदान भी काबिले तारीफ था। हर तबके, धर्म, जाति की महिलायें अंग्रेज़ों के खिलाफ खड़ी थीं। मुस्लिम महिलाएं भी बढ़-चढ़कर इस लड़ाई में हिस्सा ले रही थी। अरुणा आसफ अली, बी अम्मा, बीबी अमतुस सलाम, बेगम हज़रात महल जैसे कुछ प्रसिद्द नाम हैं जिन्होंने भारत की आज़ादी में योगदान दिया। आज़ादी के लोकसभा चुनावों के परिणामों द्वारा एक या दो मुस्लिम महिलायें संसद में प्रवेश करने लगीं। लेकिन कभी भी इनकी संख्या चार से अधिक नहीं हुई। कुछ लोकसभाएं ऐसी भी रही हैं जब कोई भी मुस्लिम महिला वहां मौजूद नहीं रही।
17वीं लोकसभाओं के आंकड़े
भारतीय राजनीती में मुस्लिम महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बताते हुए कुछ आंकड़ें –
- आजादी के बाद से 17 लोकसभाओं में से पांच में कोई मुस्लिम महिला सदस्य नहीं है, और संसद के 543 सीटों वाले निचले सदन में उनकी संख्या कभी भी चार से अधिक नहीं हुई। जबकि यदि मुस्लिम महिलाओं की आबादी को देख जाए तो औसतन इनकी संख्या 35 होनी चाहिए।
- आज तक, 29 राज्यों में से 24 राज्यों में से संसद में कोई मुस्लिम महिला नहीं है।
- वर्तमान में, निवर्तमान लोकसभा के 543 सदस्यों में से केवल चार, या 0.7% सदस्य मुस्लिम महिलाएं हैं।
- आज़ादी के बाद से 17 लोकसभाओं के लिए लगभग 690 महिलाएँ चुनी गई हैं, जिनमें से लगभग 25 मुस्लिम महिलाएँ हैं।
- भारत में 14 मुस्लिम बहुल लोकसभा क्षेत्र हैं और इसके अलावा, 13 निर्वाचन क्षेत्र ऐसे हैं जहां मुसलमानों की आबादी 40% से अधिक है। कुल 101 सीटें ऐसी हैं जहां मुसलमानों की आबादी 20% से ज्यादा है।
- भारत के 2019 के चुनावों में संसद के निचले सदन में महिला राजनेताओं की रिकॉर्ड संख्या देखी गई: 78 निर्वाचित हुईं, या विधायी निकाय की 14 प्रतिशत। निचले सदन में मुस्लिम महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत कम हो गया, मई चुनाव से पहले चार से घटकर केवल एक रह गयीं।
- राज्य स्तर पर तस्वीर बहुत अलग नहीं है। राज्य विधानसभाओं में 8% से भी कम महिलाओं का प्रतिनिधित्व है। मुस्लिम महिलाएँ लगभग नगण्य हैं। असम विधान सभा में 14 महिला सदस्य हैं, जिनमें से केवल एक मुस्लिम महिला है।
- जहां तक राज्यों का सवाल है, 29 राज्यों और 7 केंद्र शासित प्रदेशों में से केवल तीन राज्यों की मुख्यमंत्री महिलाएं हैं, लेकिन उनमें से कोई भी मुस्लिम नहीं है। 29 राज्यों और सात केंद्र शासित प्रदेशों के राज्यपालों और उपराज्यपालों/प्रशासकों में से केवल दो महिलाएं हैं, लेकिन कोई मुस्लिम महिला नहीं है।
- वर्तमान में लगभग 36 लोकसभा समितियाँ हैं जिनमें से केवल तीन की अध्यक्ष महिलाएँ हैं और उनमें से किसी की भी अध्यक्ष कोई मुस्लिम महिला नहीं है। इसी तरह, राज्यसभा में वर्तमान में 12 स्थायी समितियाँ हैं (अन्य संयुक्त समितियाँ हैं), जिनमें से किसी की भी अध्यक्ष कोई मुस्लिम महिला नहीं है।
- 17 लोकसभाओं में से हमने कभी कोई मुस्लिम महिला अध्यक्ष नहीं देखी और राज्यसभा में भी कोई मुस्लिम महिला सभापति के पद पर नहीं बैठी। राज्यसभा में अठारह बार उपसभापति पद पर चार बार ऐसे मौके आए जब एक मुस्लिम महिला पद पर आसीन हुई। दिलचस्प बात यह है कि इन सभी चार मौकों पर केवल एक ही नजमा हेपतुल्ला वहां मौजूद थीं।
प्रश्न यह है कि भारत की आज़ादी के समय जो मुस्लिम महिलायें आगे खड़ी थी बाद में वे महिलाएं कहां गई? मुस्लिम महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम क्यों हो गया ? आज़ादी के समय हिन्दू और मुस्लिम का बस एक ही दुश्मन था- अंग्रेज़। आज़ादी के समय हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बंटवारे ने लोगों के दिमाग भी बाँट दिए। मुसलमानों को पकिस्तान से जोड़ दिया गया, यहाँ तक कि जो मुस्लिम भारत में रह गए थे उन्हें भी पाकिस्तान जाने का कहा जाने लगा। आज़ादी के बाद मुस्लिम भारत में अल्पसंख्यक बन कर रह गए। उसके बाद वे अपनी धार्मिक पहचान को बचाने का संघर्ष करने लगे। कुछेक अपवाद को छोड़ दें तो मुस्लिम महिलायें घरों तक सिमट कर रह गयीं। उनका विधायिका में प्रतिनिधित्व कम हो गया।
कम राजनीतिक प्रतिनिधित्व हर स्तर पर एक समस्या है
लोग अक्सर सोचते हैं कि मुस्लिम महिलाएं सख्त, सामाजिक रूप से पिछड़ी, गरीब और सांस्कृतिक रूप से वंचित हैं और वे सख्त नियमों का पालन करती हैं। क्या कभी किसी ने पता लगाने की कोशिश की है कि वे इस तरह की क्यों हैं? उन्हें इस बक्से में किसने रखा है ? उनके धर्म ने तो कभी नहीं चाहा कि महिलाओं को बंद रखा जाए। क्योंकि इस्लाम सबसे खुले विचारों वाला धर्म है और इसने 1400 वर्ष पूर्व ही महिलाओं को समान अधिकार दिए हैं। असल में, इन सबके पीछे कुछ चीज़ें, जैसे पितृसत्तात्मक अतीत और राजनीतिक नेताओं की मानसिकता, मुख्य रूप से दोषी हैं। राजनीतिक प्रतिनिधित्व की कमी भी इसका एक मुख्य कारण है। यह हर स्तर पर एक समस्या है।
संवैधानिक रूप से, जब निर्णय लेने की बात आती है तो महिलाओं के पास पुरुषों के समान अधिकार होते हैं, लेकिन व्यवहार में, यह ज्यादातर दिखावे के लिए होता है। वास्तव में, वे हमेशा उन निर्णयों से प्रभावित होते हैं जो अन्य लोग, विशेषकर पुरुष लेते हैं। अंत में, व्यापार नेटवर्क, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, राष्ट्रीय ऋण और जीडीपी जैसे वृहद कारक उन्हें विश्व-प्रणाली परंपरा में नुकसान में डालते हैं। अत: प्रगति की वर्तमान दर से मुस्लिम महिलाएं लंबे समय में इस राजनीतिक अंतर को पाटने में सक्षम होंगी। अब मौजूदा सरकार द्वारा आरक्षण विधेयक में मुस्लिम महिलाओं को बाहर कर देना, उनको पीछे धकेलने का कारण बनेगा। पहले ही मुस्लिम महिलाओं को राजनीति में कम प्रवेश मिलता है, परिवार वाले भी महिलाओं के राजनीति में जाने के फैसले से खुश नहीं होते। अब आरक्षण की सीटों से भी मुस्लिम महिलाओं को बाहर कर देना उनके खिलाफ न इंसाफ़ी ही है।