इंटरसेक्शनलजेंडर क्यों ओबीसी कोटे के बिना महिला आरक्षण बिल अधूरा है?

क्यों ओबीसी कोटे के बिना महिला आरक्षण बिल अधूरा है?

यह सर्वविदित है कि राजनीतिक दलों के द्वारा लिए गए हर फैसले के पीछे कुछ न कुछ राजनीतिक निहितार्थ छिपा होता है। वर्तमान में ओबीसी कोटे के लिए की जा रही तरफ़दारी के पीछे भी कुछ इसी तरह की मंशा काम कर रही है। लेकिन, क्या इस बुनियाद पर इस मांग को खारिज कर देना न्यायोचित है? क्या ओबीसी कोटे की मांग को केवल राजनीतिक शिगूफ़ा माना जाए? आज के इस लेख में इस मुद्दे को विस्तार से समझने की कोशिश की है।

ज्यादा पुरानी बात नहीं है। यही कुछ 14 बरस पहले की एक घटना याद आ रही है। साल 2010 के मार्च महीने की 9 तारीख थी। राज्यसभा में माननीय सांसदों के बीच महिला आरक्षण बिल पर मतदान होना था। उस समय की गठबंधन सरकार में हिस्सेदारी रखने वाले कुछ दल, महिला आरक्षण बिल में ओबीसी कोटे की मांग कर रहे थे। वहीं, कांग्रेस पार्टी इस बात के लिए कतई राज़ी नहीं थी। राज्यसभा में भारी हंगामा हुआ। यहां तक कि समाजवादी पार्टी के कुछ सांसदों ने बिल की प्रतियां फाड़कर सभापति के ऊपर फेंक दीं। लेकिन, विपक्षी दलों के सहयोग से यह बिल राज्यसभा में पास हो गया। कांग्रेस, लोक सभा में इस बिल को पारित करवाने के लिए आवश्यक संख्या बल नहीं जुटा पाई। नतीजन बिल को ठंडे बस्ते में डाल दिया।

अरसे बाद, एक बार फिर से महिला आरक्षण का मुद्दा सुगबुगा उठा। एनडीए सरकार ने सदन में नया बिल पेश किया। जिसे सत्ता पक्ष के साथ–साथ विपक्ष का भी समर्थन मिला। बिल को, 21 सितंबर, 2023 को दोनों सदनों ने पास कर दिया। प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के तमाम वक्ता सदन में इस बिल के समर्थन में खड़े हुए। लेकिन, गौर करने वाली बात यह है कि इस बार ओबीसी कोटे की पैरवी कांग्रेस पार्टी मुखरता से कर रही है। एक प्रेस वार्ता में जब कांग्रेस सांसद राहुल गांधी से यह पूछा गया कि क्या आपको इस बात का अफसोस है कि आपकी सरकार ओबीसी कोटा नहीं दे पायी थी? राहुल ने जवाब में कहा, “शत प्रतिशत अफसोस है। कोटे का प्रावधान उस समय कर देना चाहिए था।”

यह सर्वविदित है कि राजनीतिक दलों के द्वारा लिए गए हर फैसले के पीछे कुछ न कुछ राजनीतिक निहितार्थ छिपा होता है। वर्तमान में ओबीसी कोटे के लिए की जा रही तरफ़दारी के पीछे भी कुछ इसी तरह की मंशा काम कर रही है। लेकिन, क्या इस बुनियाद पर इस मांग को खारिज कर देना न्यायोचित है? क्या ओबीसी कोटे की मांग को केवल राजनीतिक शिगूफ़ा माना जाए? आज के इस लेख में इस मुद्दे को विस्तार से समझने की कोशिश की है।

क्या कहता है बिल

लोक सभा, दिल्ली एनसीआर की विधानसभा और राज्यों की विधानसभाओं में एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की जाएंगी। आरक्षण की इस व्यवस्था को लोकसभा के संदर्भ में समझते हैं। लोक सभा में कुल सीटों की संख्या 543 है। इस हिसाब से करीब 179 सीटें महिलाओं के लिए रिजर्व हो जाएंगी। गौरतलब है कि इस बिल में एससी–एसटी वर्ग की महिलाओं के लिए कोटा तय किया है (दोनों वर्गों के लिए आरक्षित सीटों का 33 प्रतिशत)। जिसकी संख्या 43 आती है। पीछे बचती हैं 136 सीटें। जहां किसी भी श्रेणी यानी सामान्य, ओबीसी, एससी, एसटी की महिला चुनाव लड़ सकती है। जिस तरह से एससी–एसटी वर्ग की महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित की हैं, वैसी व्यवस्था ओबीसी वर्ग की महिलाओं के लिए नहीं की गई है। विपक्ष, महिला आरक्षण बिल में ओबीसी कोटे की मांग कर रहा है। 

अगर मौजूदा लोकसभा में महिला सांसदों की हिस्सेदारी को देखें तो करीब 15 प्रतिशत की है। जो कि अब तक की सबसे बड़ी संख्या है। लोक सभा की कुल 82 महिला सांसदों की सामाजिक पृष्ठभूमि का अध्ययन किया। जिसके निष्कर्ष निम्नलिखित हैं:

  • अनुसूचित महिला सांसदों की संख्या 12 है।
  • अनुसूचित जनजाति की महिला सांसदों की संख्या भी 12 है।
  • ओबीसी वर्ग से ताल्लुक रखने वाली महिला सांसदों की संख्या 1 है।
  • सामान्य श्रेणी से आने वाली महिला सांसदों की संख्या 55 है।
  • मुस्लिम समाज से आने वाली महिला सांसदों की संख्या 2 है।

ध्यान देने वाली बात यह है कि एससी एवं एसटी वर्ग से आने वाली सभी महिला सांसदों का निर्वाचन एससी व एसटी के लिए आरक्षित की गई सीटों से ही हुआ है। संविधान के अनुच्छेद 330 में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है। जिसके तहत अनुसूचित जनजाति के लिए 47 सीटें और अनुसूचित जाति के 84 सीटें आरक्षित की गई हैं। सवाल यह है कि 17वीं लोक सभा में मौजूद कुल महिला सांसदों (82) में ओबीसी महिला सांसदों की हिस्सेदारी कितनी है ? जवाब है केवल 1.21 प्रतिशत। हां, ओबीसी वर्ग से आने वाले पुरुष सांसदों की संख्या करीब 119 है। जब लोकसभा में बिल पर चर्चा हो रही थी तब कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने ओबीसी कोटे की मांग जोरों–शोरों से की। राहुल के उस भाषण के बाद गृहमंत्री अमित शाह ने सदन में अपना पक्ष रखा। जिसमें उन्होंने बताया कि बीजेपी के 29 प्रतिशत सांसद (85) ओबीसी कैटेगरी के हैं। लेकिन, असली सवाल तो यह है कि उसमें महिला सांसदों की संख्या कितनी है ? जवाब है-शून्य।

विचारणीय है कि बिल में केवल एससी–एसटी वर्ग की महिलाओं के लिए कोटा तय किया है, ओबीसी वर्ग की महिलाओं के लिए नहीं। अगर कुल आरक्षित सीटों (179) में से एससी–एसटी के लिए आरक्षित सीटों को निकाल दें तो पीछे बचती हैं— 136 सीटें। जहां से किसी भी वर्ग की महिला चुनाव लड़ सकती है। ऐसे में कई लोग यह आशंका जता रहे हैं कि इसका सबसे ज्यादा फायदा ऊंची जाति की महिलाओं को मिल सकता है। नीचे दिए गए चार्ट को देखें। इसमें प्रत्येक दल की महिला सांसदों का वर्गवार विवरण दिया है।

मांग पुरानी है

महिला आरक्षण में ओबीसी कोटे की मांग नई नहीं है। साल 1996 में, जयंती नटराजन की अध्यक्षता में बनी संयुक्त संसदीय समिति ने ओबीसी कोटे को शामिल किए जाने की अनुशंसा की थी। 2008 के महिला आरक्षण बिल को स्थाई समिति के पास भेजा था। समिति के सदस्यों की बीच आम सहमति तो नहीं बन पाई लेकिन रिपोर्ट में इस बात का जिक्र जरूर किया कि— “समिति का मानना है कि इस मसले पर सरकार को विचार करना चाहिए तथा उचित समय पर कार्यवाही करनी चाहिए।”

महिला मतदाताओं की बढ़ती भागीदारी

पिछले कुछ समय से महिलाओं की मतदान में भागीदारी बढ़ी है। अगर वर्ष 2019 के लोक सभा चुनाव के आंकड़ों को देखें, तो पहली बार पुरुष मतदाताओं की तुलना में अधिक महिला मतदाताओं ने मतदान किया था। कुछ ऐसे ही रुझान हाल ही में हुए कुछ राज्यों के विधानसभाओं चुनावों में देखने को मिले थे। ऐसे में हरेक राजनीतिक दल इस ‘वोट बैंक’ को अपने पाले में खींचना चाहता है।

स्रोत:  Trivedi centre for political data

‘कमंडल की राजनीति’ का जवाब ‘मंडल की राजनीति’

आज़ादी के बाद भारतीय राजनीति में कुछ दशकों तक ऊंची जातियों की चौधराहट रही। मंडल राजनीति ने उसे चुनौती दी। परिणामस्वरूप राजनीति का लोकतंत्रीकरण हुआ। पिछड़ी जाति के लोग चुनाव जीतने लगे। क्षेत्रीय दलों का राष्ट्रीय राजनीति में हस्तक्षेप बढ़ने लगा।विश्वनाथ प्रताप सिंह का प्रधानमंत्री बन जाना, कल्याण सिंह का मुख्यमंत्री बन जाना, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, शरद यादव, एम. करुणानिधि सरीखे नेताओं का उदय इसी राजनीति का परिणाम था।

मंडल की राजनीति को सबसे कड़ी चुनौती कमंडल की राजनीति से मिली। 1990 के दशक तक आते–आते हिंदी पट्टी में कमंडल की राजनीति पैर पसारने लगी थी। बीजेपी का उत्थान इसी काल में शुरू हुआ था। नरेंद्र मोदी जैसे नेताओं का उदय भी इसी दौर में हुआ था। कमंडल की राजनीति के उत्थान का एक परिणाम यह हुआ कि ओबीसी वर्ग के प्रतिनिधित्व मंडल पूर्व की स्थिति की ओर जाने लगा है। नीचे दी गई तस्वीर को देखिए! हिंदी पट्टी के प्रतिनिधित्व को दर्शाया है। 

तस्वीर साभार- इंडियन एक्सप्रेस

एक अध्ययन के अनुसार हिंदी हार्टलैंड की चुनावी राजनीति में ऊंची जातियों का दबदबा फिर से बढ़ने लगा है। पिछले दशक में जिस तरह से उत्तर भारत में भाजपा के उदय हुआ है, उसी के साथ-साथ स्वर्ण जातियों की वापसी और ओबीसी प्रतिनिधित्व में गिरावट देखी गई है। यह चलन 2009 के लोक सभा चुनाव में ही शुरू हो गया था। लेकिन, 2014 की मोदी लहर ने इसे असली जामा पहनाया है। नीचे दी गई तस्वीर में दो प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों द्वारा उतारे गए प्रत्याशी:

तस्वीर साभार- इंडियन एक्सप्रेस

साथ ही, ध्यान देनेवाली बात यह है कि विपक्ष, 2023 के इस बिल में ओबीसी कोटे की मांग जितनी मजबूती के साथ कर रहा है, उतनी मजबूत पैरवी मुस्लिम महिलाओं के संदर्भ में नहीं दिख रही है। वजह जो भी रही हो, आंकड़े यह कहते हैं कि मुस्लिम महिलाओं का प्रतिनिधित्व भी आनुपातिक रूप से बहुत ही कमजोर रहा है। (मौजूदा लोक सभा में भी मुस्लिम महिला सांसदों की संख्या केवल दो ही हैं।) वहीं पसमांदा-दलित मुसलमानों के विमर्श ने मुसलमानों में मौजूद जातिगत भेदभाव की ओर ध्यान खींचा है। 2023 के महिला आरक्षण बिल पर जब लोक सभा में माननीय सांसदों के बीच मतदान करवाया जा रहा था तब दो सांसदों ने बिल के खिलाफ मतदान किया। दोनों सांसद, मुस्लिम महिलाओं के लिए कोटे की मांग कर रहे थे। स्मरणीय है कि जब 2008 में महिला आरक्षण बिल लाया गया था तब आरजेडी ने मुस्लिम महिलाओं के लिए कोटे की मांग की थी।

यह दुखद है कि आज़ादी के 75 वर्ष बाद भी लोक सभा में आधी आबादी का प्रतिनिधित्व मात्र 15 प्रतिशत के आंकड़े को ही छू पाया है। सरकार के द्वारा उठाए गए इस कदम का स्वागत किया जाना चाहिए। हां, यह भी सही है कि अगर ओबीसी कोटे को शामिल किया जाता, तो कानून अधिक प्रभावी होता। लेकिन, इस आधार पर इस कानून की महत्ता को खारिज का देना मुनासिब नहीं लगता।


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