भारत-पाकिस्तान विभाजन का समय वाकई में काफी खौफनाक और दर्द भरा था। समाज में हो रहे बदलाव में कई परिवार टूटते-बिखरते और एक-दूसरे से बिछड़ते नजर आ रहे थे। आज भी अगर विभाजन की कहानियों को सुना जाए तो उनके दर्द को जीवंत होता हुआ देखा जा सकता है। दोनों देशों के निर्माण और विभाजन की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी थी लोगों का विस्थापन। सुरक्षित जगह तक पहुंचने की जद्दोजहद में बड़े पैमाने पर लोग पैदल, ट्रेन, बस और गाड़ियों से एक जगह से दूसरी जगह और एक देश से दूसरे देश जाने का प्रयास कर रहे थे, जिसमें विशेषकर बच्चे, महिलाएं और बुजुर्ग असुरक्षित हो गए। भारत के विभाजन के दौरान, एक अनुमान के अनुसार लगभग 75,000 से 100,000 महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया, हत्याएं हुई, अपहरण कर लिया गया, मानवतस्करी हुई या शादी के लिए मजबूर किया गया।
विभाजन के त्रासदी से उबरती महिलाओं ने न सिर्फ खुदको संभाला, बल्कि बड़ी संख्या में लड़कियों और महिलाओं ने खुद को शिक्षित किया और कार्यबल में प्रवेश किया। कई लोग जो विभाजन से पहले से ही अपने परिवारों का समर्थन कर रहे थे, उन्होंने आर्थिक रूप से कठिन परिस्थितियों में भी ऐसा करना जारी रखा। यक़ीनन विस्थापन का दर्द और अपने परिवार से दूर हो जाने की पीड़ा अंत समय तक मनुष्य का साथ नहीं छोड़ती। भारत-पाकिस्तान विभाजन में भी लोगों को खास कर महिलाओं को, इस पीड़ा का सामना करना पड़ा। लेकिन अनेकों महिलाओं ने खुद को इस संघर्ष में मजबूत बना कर रखा। स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रीय भूमिका निभाने के अलावा, कई महिलाओं ने भारत पाकिस्तान विभाजन और आजादी के बाद भारत को एक लोकतांत्रिक देश बनाने में योगदान दिया। इन्हीं महिलाओं में एक नाम इंदरजीत कौर संधू का है।
कौन हैं इंदरजीत कौर संधू
विभाजन के दौरान महिलाओं के लिए ऐसी ही प्रेरणा का स्त्रोत बनकर सामने आयी- इंदरजीत कौर संधू। इंदरजीत ने न सिर्फ विभाजन में अपने परिवारों से अलग हो चुके लोगों की मदद की, बल्कि कई परिवारों का सफल विस्थापन भी करवाया। इंदरजीत कौर संधू बतौर एक महिला होकर अन्य महिलाओं को विभाजन के बाद उठ खड़े होने की प्रेरणा प्रदान की। इंदरजीत ने बड़ी दिलेरी और सूझ-बुझ से महिलाओं के लिए कई बंद दरवाजे खोले। इनमें से एक अहम कड़ी थी शिक्षा की। इंदरजीत कौर ने लड़कियों को बाहर की दुनिया को बेख़ौफ होकर देखने की हिम्मत दी।
इंदरजीत कौर का जन्म पंजाब के पटियाला जिले में 1 सितम्बर सन 1923 को हुआ था। अपने माता-पिता की पहली संतान इंदरजीत को परिवार ने बड़े नाजों से पाला। असल में इंदरजीत कौर को बचपन से ही एक प्रगतिशील माहौल मिला। उनके पिता कर्नल शेर सिंह संधू एक प्रगतिशील और उदार व्यक्ति थे। अपने पिता का साथ पाकर इंदरजीत कौर ने अपनी शिक्षा पूरी की। इंदरजीत की शुरुआती शिक्षा विक्टोरिया गर्ल्स स्कूल पटियाला से संपन्न हुई, जिसके बाद वह आगे की पढ़ाई के लिए लाहौर चली गईं। वहां उन्होंने आरबी सोहन लाल ट्रेनिंग कॉलेज से बेसिक ट्रेनिंग कोर्स किया और लाहौर के ही गवर्नमेंट कॉलेज से दर्शनशास्त्र में एमए किया। लाहौर से लौटकर उन्होंने पंजाबी भाषा में भी डिग्री हासिल की। वह उन छात्रों के पहले बैच में थीं, जिन्होंने महिंद्रा कॉलेज, पटियाला में पंजाबी भाषा में मास्टर कोर्स का पहला बैच पूरा किया था।
विभाजन के दौरान इंदरजीत की भूमिका
विभाजन के वक्त और उसके बाद इंदरजीत कौर की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही। वो भारत-पाकिस्तान विभाजन में महिलाओं के लिए सहारा बनकर सामने आयी। पेशे से पत्रकार रूपींदर सिंह, जो इंदरजीत कौर संधू के पुत्र हैं, कहते हैं कि जालंधर दूरदर्शन ने अपनी एक पंजाबी डाक्यूमेंट्री सीरीज़, जिसका नाम “धियां पंजाब दियां” (पंजाब की बेटियां) है, में इंदरजीत कौर संधू को स्थान दिया। जब यह सीरीज़ प्रकाशित हुई, तो उतर भारत के हज़ारों घरों में एक बार फिर इंदरजीत कौर जीवंत हो गयी। रूपींदर आगे बताते हैं कि विभाजन के दौरान इंदरजीत कौर ने एक एक्टिविस्ट के रूप में काम किया और सैकड़ों शरणार्थियों की मदद के लिए आगे आयीं। उन्होंने माता साहिब कौर दल को गठन करने में मदद की और उसकी सचिव बनीं।
इस दल ने अध्यक्ष सरदारनी मनमोहन कौर की मदद से पटियाला में करीब 400 परिवारों का पुनर्वास करने में सहयोग किया। उस समय जब पर्दा प्रथा को महत्व दी जाती रही तब इंदरजीत आगे आयी। हालांकि, इंदरजीत को भी अपने परिवार में विरोध का सामना करना पड़ा लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। इसमें इंदरजीत कौर के पिता का बहुत सहयोग रहा। उन्होंने रूढ़िवादी सोच और उस समय प्रचलित पर्दा प्रथा को अपने बच्चों के विकास में रोड़ा नहीं बनने दिया। इसी सोच ने इंदरजीत कौर संधू को आगे बढ़ने में मदद की। प्रवासी शरणार्थियों तक आर्थिक सहायता और अन्य मदद जैसेकि कपड़े और राशन पहुंचाने के लिए परिवार, दोस्तों और रिश्तेदारों की मदद ली गई।
गवर्निंग काउंसिल की सदस्य
रूपिंदर सिंह बताते हैं कि माता साहिब कौर दल ने उस समय प्रवासियों के जरूरत के सामान के साथ चार ट्रक बारामुला और कश्मीर पहुंचाए थे, जहां पटियाला की सेना स्थानीय लोगों को बचाने के लिए गई थी। इंदरजीत के इस दल ने शरणार्थी बच्चों की शिक्षा के लिए स्कूलों के गठन में भी अहम भूमिका निभाई। इंदरजीत कौर संधू ने एक शिक्षिका और प्रशासक के तौर पर कई लोगों के जीवन को प्रभावित किया। वे महिलाओं के लिए एक प्रेरणास्त्रोत बनकर सामने आयीं। उन्होंने 1946 में अपना शिक्षण करियर शुरू किया। 27 साल की उम्र में, इंदरजीत कौर खालसा कॉलेज, अमृतसर की गवर्निंग काउंसिल की सदस्य बनी। उन्होंने 1958 से 1967 तक बेसिक ट्रेनिंग कॉलेज, चंडीगढ़ में पढ़ाया और वहां उप-प्रिंसिपल बनीं। उन्होंने पहले पटियाला और फिर अमृतसर में सरकारी महिला कॉलेज की प्रिंसिपल के रूप में भी काम किया।
कर्मचारी चयन आयोग की पहली महिला अध्यक्ष
इंद्रजीत कौर एक प्रसिद्ध शिक्षाविद और पटियाला में पंजाबी विश्वविद्यालय की पहली महिला कुलपति और नई दिल्ली में कर्मचारी चयन आयोग की पहली महिला अध्यक्ष बनीं। प्रोफेसर इंद्रजीत न केवल पंजाबी विश्वविद्यालय की पहली महिला वाईस- चांसलर थीं, बल्कि वह इसकी स्थापना के बाद से विश्वविद्यालय का नियमित प्रभार संभालने वाली एकमात्र महिला भी थीं। वह 1975 से 1977 तक शीर्ष पद पर रहीं। द ट्रिब्यून की एक खबर में, पंजाबी यूनिवर्सिटी की एक प्रोफेसर ने बताया कि डॉ. संधू ने 1975 में प्रसिद्ध नाटककार डॉ. सुरजीत सेठी को एक नाटक ‘ मैं वी नाटक दी इक पातर’ लिखने के लिए कहा था, जिसे देखने तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्ञानी जैल सिंह विशेष रूप विश्वविद्यालय आए थे।
इंदरजीत कौर संधू का निधन
27 जनवरी 2022 को इंदरजीत कौर संधू का निधन हो गया। इंदरजीत कौर की पेशेवर और व्यक्तिगत यात्रा को भारतीय और विदेशी दोनों मीडिया ने बड़े पैमाने पर प्रचारित किया गया है। जालन्धर दूरदर्शन ने उनपर एक डाक्यूमेंट्री बनायीं। वहीं इंदरजीत कौर संधू के जीवन पर कई लेख, आर्टिकल्स और फीचर स्टोरीज इंटरनेट पर भी उपलब्ध है। 1 सितम्बर 2021 को वरिष्ठ पत्रकार रूपिंदर सिंह के संपादित पुस्तक ‘फेस्टस्क्रिफ्ट फॉर इंदरजीत कौर संधू: एन इंस्पायरिंग स्टोरी’ का विमोचन भी किया गया। इंदरजीत कौर संधू अपने समय में समाज में हो रहे बदलावों की साक्षी बनीं। उन्होंने विभिन्न अंतरराष्ट्रीय शैक्षणिक मंचों पर देश का प्रतिनिधित्व भी किया। उस दौर के समाज में जब पर्दा प्रथा के अलावा महिलाओं के लिए कई और मान्यताएं प्रचलित थीं, उन्होंने समाज, लोग और परंपरा से ख़ुद को दूर रखकर लड़कियों की शिक्षा और अधिकारों पर काम किया।