पिछले दिनों नए साल पर असुविधा जताने और फिल्म न बनाने के अनुरोध के बावजूद, एक कन्नड़ समाचार चैनल पब से बाहर निकलते महिलाओं का पीछा करते रहे। वहीं एक अन्य महिला को कथित तौर पर यौन हिंसा का सामना करना पड़ा। कन्नड़ चैनल के वीडियो में महिला के दोस्त को कथित यौन हिंसा करने वाले पर हमला करते हुए भी दिखाया गया। इतना ही नहीं, इन खबरों को दिखाने के क्रम में वीडियो के थंबनेल और शीर्षक सेक्सिस्ट बयानों से भरे थे। इसके बाद, जल्द ही कमेंट बॉक्स महिलाओं की पोशाक पर अनुचित टिप्पणी से भर गए जिनमें मूल रूप से लिखा था कि ये पोशाक गलत व्यवहार को उकसाने वाले हैं। इससे पहले चेन्नई में एक क्षेत्रीय चैनल को शहर के एक पब से बाहर निकलने वाली महिलाओं की कथित तौर पर मोरल पुलिसिंग करने के लिए सोशल मीडिया पर आलोचना का सामना करना पड़ा था। हालांकि यह कोई पहली बार नहीं जब भारतीय संस्कृति और सभ्यता के नाम पर महिलाओं पर मोरल पुलिसिंग और उनके निजता का हनन किया गया हो।
समाचार दिखाने के आड़ में, टेलीविजन चैनल ने एक ऐसे तरीके का चयन किया, जिसने उन महिलाओं को परेशान किया, निजता का हनन और अपमान किया और उन्हें ऑबजेकटिफ़ाई करने में सक्रिय भूमिका निभाई। नए साल का जश्न मनाने के लिए निकली महिलाओं को किसी के अनुमति की जरूरत नहीं, न ही यह कानूनन जुर्म है। भारत धर्म, जाति, आस्था, शिक्षा आदि की दृष्टि से एक विविधतापूर्ण देश है। निश्चित है कि हर किसी का जीवन जीने का तरीका अलग होगा। हमारा संविधान कानून के दायरे में रहकर हमारे तौर तरीकों को पालन करने की अनुमति देता है। हमारा समाज भी विभिन्न जीवनशैली की मान्यता देता है। किसी भी समाज की सुंदरता यही है कि वहां सभी लोग स्वतंत्र रूप से अपनी पसंद की जीवनशैली का पालन कर सकें, जहां किसी को भी बदलने के लिए मजबूर नहीं किया जाए जब तक कि वे कानून के दायरे के भीतर हों।
मोरल पुलिसिंग और संवैधानिक अधिकार का महत्व
जब मोरल पुलिसिंग होती है तो लोगों के अधिकारों का हनन होता है। मोरल पुलिसिंग सिर्फ कपड़ों पर ही नहीं बल्कि भाषा, खान-पान, रहन-सहन जैसे चीजों पर भी होती है। भारत में मोरल पोलिसिंग इस हद तक पहुंच चुका है कि अब यह केवल व्यक्तिगत मामला नहीं रह गया। टाइम्स ऑफ इंडिया के पिछले दिनों की खबर अनुसार कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने राज्य में मोरल पुलिसिंग समाप्त करने की बात कही थी। इसमें कोई संदेह नहीं है कि अलग-अलग लोगों के तौर-तरीके, खान-पान या रहन-सहन समाज के अन्य सदस्यों को पसंद या नापसंद हो सकती है। लेकिन उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि सभी को अपने अनुसार कपड़े पहनने, जीने, खाने या धर्म का अनुसरण करने का अधिकार हमारा संविधान उन्हें देता है। मोरल पुलिसिंग का आधार मूल रूप से नैतिकता होती है, जबकि जरूरी यह है कि हम संविधान और कानून के अनुसार चलें।
क्या कहता है हमारा कानून
मोरल पुलिसिंग या विज़लेंटिज़म का उपयोग उन निगरानी समूहों का वर्णन करने के लिए किया जाता है, जो कानूनी अधिकार के बिना भारत में नैतिकता के कोड को लागू करने के लिए काम करते हैं। भारत में अश्लीलता को नियंत्रित करने के लिए भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 292 से 294 का उपयोग किया जाता है। भारतीय दंड संहिता की धारा 292 अश्लील पुस्तकों और अन्य सामग्री की बिक्री और वितरण से संबंधित है। यह उन पुस्तकों और रेखाचित्रों जैसी सामग्रियों को अपराध घोषित करता है, जिन्हें ‘कामुकतापूर्ण या धार्मिक हित के लिए अपील करने वाला’ माना जाता है। धारा 292 को साल 1969 में संशोधित किया गया था ताकि सार्वजनिक हित के लिए उन सामग्रियों (जैसे कंडोम विज्ञापन, वैज्ञानिक सामग्री या आंकड़ों) को बाहर रखा जा सके। पुलिस इसी तरह ‘अशोभनीय’ समझे जाने वाले फिल्म पोस्टरों और विज्ञापन होर्डिंग्स के खिलाफ मामले दर्ज करने के लिए आईपीसी की धारा 292 का उपयोग करती है। धारा 293 20 साल से कम उम्र के व्यक्तियों को अश्लील सामग्री की बिक्री से संबंधित है। भारतीय दंड संहिता की धारा 294 ‘अश्लील कृत्यों और गीतों’ से संबंधित है और यह व्यक्त करती है कि:
जो कोई भी, दूसरों की झुंझलाहट(चिढ़) के लिए-
(क) अगर किसी सार्वजनिक स्थान पर कोई अश्लील हरकत करता है, या
(ख) किसी सार्वजनिक स्थान पर या उसके आस-पास कोई अश्लील गीत, बैलड या शब्द गाता है, सुनाता है या बोलता है, तो उसे उसे तीन या उससे ज्यादा महीने के लिए जेल हो सकती है, या जुर्माना, या दोनों से दंडित किया जाएगा।
गौर करने वाली बात है कि सार्वजनिक रूप में ‘अश्लीलता’ शब्द का दायरा स्पष्ट नहीं है। यही प्रमुख कारण है कि जब भी ऐसी घटनाएं होती हैं, तो बहुत कुछ कल्पना और धारणाओं पर छोड़ दिया जाता है। यह तब और भी ज्यादा होता है जब किसी कानून या विचार की व्याख्या करने की जिम्मेदारी समाज पर छोड़ दी जाती है। भारतीय कानून में इस कमी के कारण समाज में अराजकता और हिंसा फैल सकती है। यह प्रत्येक का अपना नजरिया और विचार है कि उसे कौन सी चीज अश्लील लगेगी। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया था कि पुलिसकर्मियों को मोरल पुलिसिंग करने की आवश्यकता नहीं है।
मोरल पुलिसिंग का बीज बो रहा परिवार और स्कूल
याद कीजिए अपने स्कूल के दिनों को। कक्षा छठी तक पहुंचते ही लड़कियों के लिए मीटिंग रखी जाती है, जहां उन्हें ब्रा पहनने को कहा जाता है। ठीक ऐसी ही मीटिंग हमारे घरों पर होती है, जहां हमारी माँओं को हमें ब्रा पहनना सिखाने के लिए कहा जाता है। ‘नैतिकता’ के पैमाने को बनाए रखने के लिए कुछ कॉलेज इस हद तक चले गए हैं कि वे यह तय कर दिए हैं कि कैंपस में छात्रा किस तरह के कपड़े पहन सकती है। कभी-कभी स्कर्ट और जींस पहनने पर भी रोक लगा दी जाती है। सवाल यह नहीं कि स्कर्ट या जीन्स वेस्टर्न कपड़े हैं या नहीं और भारतीय महिलाओं को इसे छोड़ साड़ी, सलवार कमीज़ पहनना चाहिए। सवाल यह है कि लोग अलग-अलग कपड़े पहनते हैं और इसका चुनाव खुद का होना चाहिए।
स्कूल के वर्षों के दौरान बच्चों में शारीरिक छवि, तौर-तरीके या पहनावे के मुद्दों को विकसित करना लोगों में सही मानसिकता विकसित करने का एक तरीका है। यौन उत्पीड़न और मोरल पुलिसिंग जैसे मुद्दों को स्कूली स्तर पर समझाया जाना जरूरी है। बच्चों को यह भी सिखाया जाना चाहिए कि यदि वे कभी ऐसी स्थिति का सामना करें, तो उनसे कैसे निपट सकते हैं। साथ ही, अभिभावकों को भी इन मुद्दों पर शिक्षित किया जाना चाहिए। माता-पिता को यह समझना चाहिए कि भीड़ में मौजूद लोग, विशेषकर ऐसी मानसिकता वाले लोग अमूमन अशिक्षित और कानून से परिचित नहीं होते हैं। ऐसे लोगों का साथ देने के बजाए उनका अपने बच्चों का समर्थन करना बहुत जरूरी है।
मोरल पुलिसिंग और सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि
जो लोग मोरल पुलिसिंग से पीड़ित हैं या जो लोग मोरल पुलिसिंग के गवाह हैं, उनमें अक्सर इसके खिलाफ आवाज़ उठाने या पुलिस को इसकी रिपोर्ट करने की क्षमता नहीं होती। अमूमन, वे जानते हैं कि जब बात भीड़ या ऐसे असामाजिक तत्वों या निगरानी समूहों की आती है, तो पुलिस में शिकायत भी मुश्किल से होता है और इसका लाभ भी सीमित होता है। कई बार ऐसे समूहों को राजनीतिक सहयोग मिला रहता है जिसका सामना करना आम जनता के लिए चुनौतीपूर्ण होता है। हमें यह भी समझना होगा कि यह नैतिकता के नाम पर किसी पर थोपी गई कोई नियम पावर का खेल है। कर्नाटक जो कि मोरल पुलिसिंग का गढ़ बनता जा रहा है, में किए गए एक अध्ययन के अनुसार मोरल पुलिसिंग में केवल हिन्दू कार्यकर्ता ही नहीं, बल्कि मैंगलोर जैसे जगह में मुस्लिम निगरानीकर्ता भी सक्रिय रूप से शामिल होते हैं।
अध्ययन बताता है कि मोरल पुलिसिंग का सामना सबसे ज्यादा 18-30 के उम्र के लोग करते हैं। वहीं सर्वाइवर बताते हैं कि मोरल पुलिसिंग के कारण उन्हें शर्म और आत्मसम्मान में कमी महसूस होती है। उन्हें कठोर आलोचनाओं का सामना करना पड़ता है। वे भावनात्मक रूप से प्रभावित होते हैं और यहां तक कि आत्महत्या के बारे में सोचने पर विवश हो जाते हैं। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ही ‘स्वतंत्रता’ शब्द है। इसका मतलब है कि जब तक कोई व्यक्ति कानून की सीमाओं को पार नहीं करता है, तब तक उसे अपनी इच्छा और इच्छा के अनुसार रहने की अनुमति है। वह अपनी पसंद की जीवनशैली जीने के लिए स्वतंत्र है। मोरल पुलिसिंग इसी तथ्य का विरोध करती है। लोग इस मुद्दे पर बोलने में असफल होते हैं क्योंकि अमूमन उन्हें अपने अधिकारों के बारे में जानकारी नहीं होती। जो लोग बोलने का साहस रखते हैं, उन्हें समाज या पुलिस चुप करा देती है। इसलिए, हमें नैतिकता को आधार बनाने के बजाय संवैधानिक अधिकारों को आधार बनाना होगा ताकि ऐसी कोई घटना न हो।