सिनेमा का स्वरूप और उद्देश्य क्या है? यह सवाल आज के और हर उस दौर में उठता है जब संचार के इस मजबूत साधन का इस्तेमाल राज्य की मशीनरी के तौर पर होने लगे। जहां सिनेमा का इस्तेमाल दर्शकों को जागरूक करने, सूचित करने, मुद्दों के प्रति संवेदनशीलता बढ़ाने के लिए किया जाता है वहीं कुछ लोग इसका इस्तेमाल किसी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए करते हैं। अगर हाल के भारतीय सिनेमा की ओर देखे तो बड़ी संख्या में रिलीज होने वाली और हो चुकी फिल्में एक एजेंडे से जुड़ी देखने को मिलती है। प्रोपगैंडा के तहत सिनेमा की परिपाटी बदली हुई नज़र आती है।
भारत की मुख्यधारा हिंदी सिनेमा पर गौर करे तो बीते कुछ सालों से ख़ासतौर पर बीजेपी के सत्ता में आने के बाद से राष्ट्रवाद और देशभक्ति से जुड़ी फिल्मों का प्रोडक्शन बढ़ा है। हिंदी सिनेमा में आया यह बदलाव पूरी तरह से अघोषित नीति जैसा प्रतीत होता है। सरकार भी फिल्मों में पैनी नज़र बनाए हुए है और अपने हित की कहानियों को न केवल पर्दे पर उतारने बल्कि उनकी सफलता को तय करने के लिए टैक्स फ्री तक घोषित करती रही है। फिल्मों के अलावा फिल्मी सितारों तक का इस्तेमाल सत्ता अपने हित के लिहाज़ से कर रही है। वे सार्वजनिक तौर पर क्या राय रखते हैं, इतना ही नहीं उनसे संपर्क तक बना रही है कि वे सरकार की बातों को लोगों के बीच प्रभावी तरीके से रखें।
हिंदी सिनेमा में ऐसी फिल्मों की बाढ़ आ गई है जो सत्ता की राजनीति, इतिहास से प्रेरित है। बॉलीवुड की लोकप्रियता और जनता के बीच फिल्मी हस्तियों की मजबूत अपील के कारण सत्ता ने सिनेमा को अपने एजेंडे के अनुसार तय सूचना प्रसारित करने का माध्यम बना दिया है। फिल्में लोगों के दृष्टिकोण और सामाजिक मानकों को प्रभावित कर सकती हैं। संचार के अन्य रूपों के मुकाबले राय को प्रभावित करने और विचारों को प्रसारित करने की अधिक क्षमता रखती है। यही वजह है कि राजनीतिक फिल्में, बायोपिक्स और उनकी रिलीज का समय भारत में अगले आम चुनाव के लिए बॉलीवुड का राजनीतिक इस्तेमाल को साफ दिखाता है।
मौजूदा सरकार की फिल्मों पर अपने प्रभाव बनाने के घटनाक्रम को देखे तो इसकी शुरुआत छोटे-छोटे घटनाक्रम से हुई थी। साल 2015 में पुणे स्थित फिल्म इंस्टीट्यूट में बॉलीवुड के अभिनेता गजेंद्र चौहान को नियुक्त किया जो लंबे समय से पार्टी से जुड़े हुए भी थे। बाद में विरोध और आलोचना के चलते उन्होंने कुर्सी छोड़ दी और उनकी जगह पहलाज निहलानी को लिया गया, जो एक निर्देशक है और जिन्होंने मोदी के लिए एक अभियान वीडियो बनाया था। निहलानी नहीं चाहते थे कि सिनेमा में कोई गाली हो, हिंसा या सेक्स सीन हो। साल 2016 में सी.बी. एफ.सी ने अलंकृता श्रीवास्तव की फिल्म लिपस्टिक अंडर माई बुर्का को सर्टिफिकेट करने से मना कर दिया गया। सी.बी.एफ.सी ने महिलाओं की यौनिक इच्छाओं और उसके चरित्र करने पर आपत्ति जताई। साल 2021 में सरकार ने ट्रिब्यूनल को खत्म कर दिया था अब सेंसर किए गए फिल्म के निर्माताओं के लिए केवल मुकदमे का विकल्प बचता है।
संस्थागत तरीके से इस तरह के बदलाव के बाद सिनेमा निर्माण में सरकार के एजेंडे की एंट्री हुई। सोशल मीडिया से लेकर अन्य सत्ता की विचारधारा से मेल रखने वाले संगठन उन फिल्मों, कलाकारों और निर्माता-निर्देशकों को निशाना बनाने लगे जिनकी बॉलीवुड में अलग पहचान है। सोशल मीडिया की ट्रोल आर्मी और राइटविंग विचारधारा वाले समूह ने फिल्म निर्माण की स्वतंत्रता को बाधित किया। एक तरफ़ ये लोग अब आसानी से फिल्म को बहिष्कार करने का अभियान चलाते नज़र आते हैं। फिल्म पदमावती के समय निर्देशक संजय लीला भंसाली के साथ सेट पर हिंसा हो या फिल्म की अभिनेत्री दीपिका पादुकोण पर की गई टिप्पणियां। सत्ता की विचारधारा से अलग लोकतांत्रिक मूल्यों की बात करने वाले कलाकारों और निर्देशकों को निशाना बनाया गया। उन्हें देशद्रोही कहा गया दूसरी ओर देशभक्ति के अपने किरदारों को गढ़ने का माहौल बनाया गया।
फिल्म “कश्मीर फाइल्स” और “द केरल स्टोरी” सरकारी प्रोपगैंडा का सबसे सफल उदाहरणों में से एक है। इन फिल्मों के ज़रिये अल्पसंख्यक समुदाय के ख़िलाफ़ गलत नैरिटिव सैट किए गए। झूठ के आधार पर लोगों में धार्मिक नफरत को बढ़ावा दिया गया। सरकार इन फिल्मों का समर्थन किया। द कश्मीर फाइल्स को सच्चाई का साहसिक प्रतिनिधित्व कहा गया। सरकार के नेता इस फिल्म के समर्थन में बयान देते नज़र आए। गौरतलब है 53वें भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के जूरी प्रमुख नदव लापिड ने “द कश्मीर फाइल्स” को सरकार का कुप्रचार बताया था। लापिड के इस बयान के बाद उनकी सोशल मीडिया पर ट्रोल आर्मी के ज़रिये काफ़ी आलोचना की गई। इतना ही नहीं उनके बयान के समर्थन में जूरी के अन्य तीन सदस्य ने भी द कश्मीर फाइल के लिए यही मत जाहिर किया था। इतना ही नहीं प्रधानमंत्री तक ने इस फिल्म की प्रंशसा करते हुए कहा कि फिल्म उद्योग अब इतिहास दिखा रहा है। इस फिल्म ने बड़ा मुनाफा कमाया था। 150 मिलियन रूपये के बजट में बनी फिल्म ने 2.5 बिलियन भारतीय रूपये का मुनाफा कमाया था।
बॉलीवुड और सत्तारूढ़ सरकार के बीच का यह रिश्ता कितना मुनाफे और रियायत वाला है। इसका अंदाजा इन फिल्मों के मुनाफे से लगाया जा सकता है। फिल्म उद्योग को एक तो राजनीतिक समर्थन मिलता है साथ ही टैक्स में भी छूट मिलती है। द केरल स्टोरी फिल्म को भाजपा शासित राज्यों में टैक्स फ्री किया गया। इस तरह से सरकार की विचारधारा को प्रस्तुत करने वाली फिल्मों को राज्य अपने-अपने राज्यों में टैक्स फ्री घोषित करते है। उत्तर प्रदेश में उरी, तान्हा जी जैसी फिल्मों को टैक्स में रियायत दी गई।
साल 2024 के आम चुनावों को देखते हुए ऐसी कई फिल्में लाइन में है जिनके ज़रिये सत्ता का प्रचारतंत्र साफ नज़र आता है। इसमें एक्सीडेंट या क्रांसप्रेंसीः गोधरा, आर्टिकल 370, द साबरमती रिपोर्ट, टीपू, इमरजेंसी जैसे नाम शामिल है। नियोजित प्रचार के तहत रिलीज होने वाली इन फिल्मों की लिस्ट लंबी है। इन फिल्मों के ज़रिये धार्मिक विरोध, मुस्लिम समुदाय के ख़िलाफ़ नफरत को बढ़ाया जा रहा है। एक लेख के हवाले से साल 2024 के आम चुनावों से पहले बड़ी संख्या में वे फिल्में रिलीज होगी जिनके ज़रिये अल्पसंख्यक विरोध प्रचार होगा। ऐसी फिल्मों को रिलीज करने का मुख्य एजेंडा विभाजन, खून-खराबा और धार्मिक उन्माद बढ़ाना है।
वर्तमान में सत्ता और उसका समर्थन करने वाले वैचारिक संगठन साफ तौर पर बॉलीवुड का इस्तेमाल अपने फायदे के तौर पर करना चाहते हैं। और बीते वर्षों के पैटर्न पर नज़र डाले तो वे उसमें कामयाब होते भी नज़र आ रहे हैं। जनता के दिमाग और विचारों पर फिल्मों के माध्यम से प्रोपागेंडा को स्थापित किया जा रहा है। राष्ट्र के निर्माण और देशभक्ति के महिमामंडन के तौर पर मुस्लिम को खतरा बताकर डर पैदा किया जा रहा है। सरकार सिनेमा के जरिए अपने एजेंडे को स्थापित करने के लिए बोलने की आजादी और असहमति को कुचलने का काम करती है। प्रोपेगेंडा फिल्में राजनीतिक दलों द्वारा देश की प्रणालियों को आकार देने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले सफल राजनीतिक उपकरण के तौर पर काम करती है और मनोरंजन के तौर पर जनता के बीच झूठे और सरकार के नैरेटिव को आसानी से स्थापित करती है।