याद कीजिए कोविड महामारी का दौर। देश में पहला मामला सामने आने से पहले ही, भारत का सोशल मीडिया फर्जी पोस्टों, बेतुकी अफवाहों, चीन के साजिश की कहानियों, बीमारी की शुरुआत, इसके बाद के प्रसार और संभावित उपचारों के बारे में फर्जी वीडियो से भरा हुआ था। जब देश में अधिक मामले सामने आने लगे, तो सभी प्रमुख सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म, विशेष रूप से फेसबुक, व्हाट्सएप, ट्विटर, टिकटॉक आदि पर गलत सूचनाओं की बाढ़ शुरू हो गई। सूचना के क्रांति के जमाने में भी, कोविड महामारी से जुड़ी सही खबरों, चिकित्सा और जागरूकता से हमारा ग्रामीण भारत करीब-करीब अनजान रहा। लोग बीमारी से बचने के लिए, सोशल मीडिया पर तेजी से प्रचार की गई गलत खबरों के आधार पर गौ मूत्र से लेकर गोबर से स्नान और कोरोना देवी की पूजा तक करने लगे।
अब कुछ सालों पहले एक दूसरी घटना पर नजर डालते हैं। जुलाई 2018 में कर्नाटक के बीदर जिले में बच्चा अपहरणकर्ता होने के संदेह में भीड़ ने हैदराबाद के एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर की पीट-पीटकर हत्या कर दी, जबकि तीन अन्य गंभीर रूप से घायल हो गए थे। यह हिंसा व्हाट्सएप पर फैले अफवाहों के कारण हुई थी। विश्व आर्थिक मंच की 2024 वैश्विक जोखिम रिपोर्ट के लिए सर्वेक्षण किए गए विशेषज्ञों के अनुसार, आने वाले दिनों में चुनावों के लिए मद्देनजर एक बहुत ही महत्वपूर्ण वर्ष में, झूठी जानकारी उन प्रमुख खतरों में से एक है जिसका दुनिया भर के लोगों को सामना करना पड़ेगा। रिपोर्ट के अनुसार भारत वह देश है जहां दुष्प्रचार और ग़लत सूचना का ख़तरा सबसे ज़्यादा है। सभी जोखिमों में से, देश के लिए सबसे बड़े जोखिम के रूप में संक्रामक रोगों, अवैध आर्थिक गतिविधि, आर्थिक असमानता (धन, आय) और श्रम की कमी से भी ऊपर गलत सूचना और दुष्प्रचार को विशेषज्ञों द्वारा चुना गया।
कितना खतरनाक है चुनाव के मद्देनजर गलत सूचनाएं
अगर ध्यान दें तो हालिया सालों में चुनावों के पहले और उस दौरान भी सोशल मीडिया ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आने वाले साल के मद्देनजर आए दिन सत्ता पर बैठी सरकार और विपक्ष सोशल मीडिया पर मीम्स,चुटकुले, कार्टून और खबरें जारी करती है। इसके अलावा छोटे पैमाने पर और स्थानीय स्तर पर हर दिन ऐसी हजारों खबरें व्हाट्सऐप के जरिए फॉरवर्ड की जाती है। टेलर और फ्रांसिस ऑनलाइन होमपेज में छपी एक शोध आधारित लेख के अनुसार साल 2019 के आम चुनाव में सोशल मीडिया पर गलत सूचना न केवल फॉरवर्ड किए गए व्हाट्सएप संदेशों के माध्यम से लोगों तक पहुंची, बल्कि अक्सर वैध राजनीतिक संस्थाओं के माध्यम से ऑनलाइन प्रसारित की गई।
दुनिया भर में आज सबसे ज्यादा व्हाट्सअप इस्तेमाल करने वाले हैं। हालांकि केवल 43 फीसद भारतीयों के पास इंटरनेट तक पहुंच है, लेकिन रिपोर्ट मुताबिक सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर एक यूजर प्रतिदिन लगभग 2.6 घंटे बिताता है। हालांकि सभी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म गलत सूचनाओं आगे बढ़ाने का जरिया बनते हैं, लेकिन व्हाट्सएप एन्क्रिप्टेड होने की वजह से अफवाहों का पता लगाना और उनके प्रसार पर अंकुश लगाना मुश्किल हो जाता है। व्हाट्सएप का मतलब है कि अधिकांश लोग इसका उपयोग दोस्तों और परिवार के साथ संवाद करने के लिए कर रहे हैं, जो भरोसेमंद माने जाते हैं। लोगों के बड़े समूहों को ऐसी खबरें फॉरवर्ड करने से गलत जानकारी को ‘तथ्य’ के रूप में समझे जाने की संभावना भी बढ़ जाती है।
टेलर और फ्रांसिस ऑनलाइन होमपेज के इस शोध आधारित रिपोर्ट अनुसार पिछले लोक सभा चुनाव से पहले राजनीतिक स्पेक्ट्रम में प्रमुख दलों द्वारा पोस्ट की गई कहानियों के नमूने से पता चलता है कि उन्होंने अपनी अभियान रणनीतियों में ऑनलाइन गलत सूचना को शामिल किया। इसमें अपने विरोधियों के बारे में झूठ के साथ-साथ, प्रचार और खुद को अच्छा दिखाने की कोशिश में अन्य सकारात्मक-थीम वाली जानकारियां शामिल थी। इन सभी चीजों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) आगे पाई गई। लेकिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भी इससे पीछे नहीं थी। दोनों ही पार्टियां गलत सूचना के स्रोत और लक्ष्य दोनों थीं।
सोशल मीडिया पर लोग खोज रहे सच्ची जानकारी
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, लगभग 54 फीसद भारतीय ‘सच्ची’ जानकारी खोजने के लिए सोशल मीडिया चैनलों पर जाते हैं। वैश्विक स्तर पर यही आंकड़ा सिर्फ 37 फीसद है और अमेरिका में यह 29 फीसद है। समस्या यह है कि ऐसे प्रचलन विशेषाधिकार प्राप्त लोगों को कम प्रभावित करती है। ग्रामीण भारत तेजी से व्हाट्सअप और यूट्यूब जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से खबरें देखना, सुनना पसंद करते हैं और उसपर विश्वास भी करते हैं। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि किसी गलत सूचना या संवेदनशील मैसेज को फॉरवर्ड करने से पहले हमें कोई अंदाज़ा नहीं होता कि इससे किसका और कितना नुकसान हो सकता है। इसलिए, जानबुझकर या कई बार अनजाने ही हम लोगों तक गलत सूचनाएं पहुंचा कर उनमें विशेष समुदाय और जाति के प्रति नफरत, पूर्वाग्रह और धरनाएं विकसित करने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं।
रॉयटर्स और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी ने पिछले दिनों ‘शक्तिशाली और विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के लिए समाचार: कैसे वंचित समुदायों की गलत प्रस्तुति और कम प्रस्तुति समाचार में उनके विश्वास को कमजोर करती है’ पर एक रिपोर्ट जारी की। इस रिपोर्ट में विभिन्न देशों के हाशिये के समुदायों पर आँकड़े इकट्ठे कियए गए। भारत में, मौजूद जातियों या जनजातियों और मुस्लिम दर्शकों पर ध्यान केंद्रित किया। शोध मुताबिक समाचार कवरेज में गलत और अपर्याप्त प्रतिनिधित्व विशेषाधिकार प्राप्त और शक्तिशाली लोगों से अलग-थलग पड़ चुके हाशिए पर रहने वाले और समाज से दूर और कटे हुए अन्य समुदायों के लोगों के जीवन को प्रभावित करता है।
कैसे बदल रहा है सोशल मीडिया का परिदृश्य
हाल के वर्षों में, भारत के सोशल मीडिया परिदृश्य में सरकार सहित महत्वपूर्ण बदलावों का अनुभव हुआ है। आज देश भर में राजनीतिक पार्टियां चुनाव से पहले ऐड्वोकेसी और चुनावी अभियान एजेंसियों को नियुक्त कर रहे हैं, जिनका काम अपने ग्राहकों की चुनावी संभावनाओं को आगे बढ़ाना है। आज चुनाव सिर्फ रैलियों तक सीमित नहीं रह गया है। आउट्लुक में छपी एक खबर अनुसार चुनाव प्रचारों में आज आर्टिफ़िकल इन्टेलिजन्स के तहत डीप फेक जैसे तकनीक का इस्तेमाल पार्टियां सकारात्मक भावना पैदा करने से लेकर विरोधी उम्मीदवारों के बारे में गलत सूचना फैलाने तक के लिए कर रही है। वैश्विक जोखिम रिपोर्ट के अनुसार इन चुनावी प्रक्रियाओं में गलत सूचना और दुष्प्रचार की उपस्थिति नव निर्वाचित सरकारों की वास्तविक और कथित वैधता को गंभीर रूप से अस्थिर कर सकती है, जिससे राजनीतिक अशांति, हिंसा और आतंकवाद और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के दीर्घकालिक क्षति का खतरा हो सकता है।
जर्मन ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म स्टेटिस्टा के एकत्रित आंकड़ों के अनुसार साल 2022 में, भारत के तेलंगाना में देश के बाकी हिस्सों की तुलना में फर्जी समाचार प्रचार की घटनाओं की संख्या सबसे अधिक थी, जिसमें अधिकारियों के साथ लगभग 81 मामले दर्ज किए गए थे। वहीं उस साल देश में कुल लगभग 230 ऐसी घटनाएं दर्ज की गईं। अपराध की यह श्रेणी सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के दायरे में आती है, जो भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 505 और विशेष और स्थानीय कानूनों (एसएलएल) के दायरे में आती है। छोटी से छोटी गलत सूचनाएं और दुष्प्रचार लोगों के मनोवैज्ञानिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए खतरनाक साबित हो सकती है। विभिन्न रिपोर्टों के अनुसार इन गलत सूचनाओं और भड़काऊ खबरों से सबसे ज्यादा प्रभावित युवा हो रहे हैं।
हालिया दिनों में विभिन्न कैंपस में हुए विरोध, प्रदर्शन और हिंसक घटनाएं इस बात का सबूत है कि राजनीतिक और धार्मिक विचारधारा के मामले में देश कितना असंवेदनशील बन चुका है। सोशल मीडिया कंपनियों के लिए फेक खबरों, डीपफेक वीडियो और तस्वीरों की पहचान करना, उन्हें रोकना न सिर्फ कठिन है बल्कि खर्चीला और चुनौतीपूर्ण भी है। कानूनी पक्ष होते हुए भी अक्सर जबतक ऐसी खबरों पर प्रतिबंध और कानूनी कार्रवाई होती है, तबतक यह लाखों लोगों तक पहुंच चुका होता है। इसलिए, सोशल मीडिया जनित और आर्टफिशल इन्टेलिजन्स द्वारा तैयार की कई चुनावी या धार्मिक प्रॉपगंडा से दूर रहने के लिए खुद का सजग और सतर्ग रहना भी जरूरी है।