भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ ने शॉर्ट सर्विस कमीशन (एसएससी) में एक महिला अधिकारी की याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार से पूछा कि “रक्षा सेवाओं में महिला अधिकारियों के लिए क्या स्थायी कमीशन देने के मुद्दे पर शीर्ष अदालत के व्यापक फैसलों के बावजूद संघ “पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण” अपना रहा है”। लाइव मिंट में प्रकाशित ख़बर के अनुसार केंद्र सरकार को संबोधित करते हुए बेंच ने कहा है, “आप ‘नारी शक्ति’ की बात करते हैं। अब इसे यहां दिखाएं। आप इस मामले में गहरे समुद्र में हैं, आपको एक ऐसी नीति बनानी चाहिए जो महिलाओं के साथ उचित व्यवहार करे।” 2009 में किसी भी महिला को शामिल नहीं किया गया, आप इतने पितृसत्तात्मक क्यों हो रहे हैं? आप तटरक्षक बल में महिलाओं का चेहरा नहीं देखना चाहते?
क्या है मामले से जुड़े तथ्य
बेंच ने महिला अधिकारी प्रियंका त्यागी के द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए यह कहा है। सुप्रीम कोर्ट ने 12 फरवरी को भारतीय तट रक्षक (आईसीजी) में कार्यरत एक महिला शॉर्ट सर्विस अपॉइंटमेंट (एसएसए) अधिकारी की 14 साल की सेवा के बावजूद स्थायी कमीशन के लिए विचार नहीं किए जाने की याचिका पर नोटिस जारी किया था। सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की खंडपीठ 21 दिसंबर 2023 के दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती पर सुनवाई कर रही थी जिसके तहत महिला अधिकारी ने कमांडेंट (जेजी), आईसीजी के रूप में सेवा जारी रखने की अंतरिम राहत की मांग की थी।
महिला अधिकारी (याचिकाकर्ता) को 2009 आईसीजी में सहायक कमांडेंट (जनरल ड्यूटी-महिला) के रूप में नियुक्त किया गया था। उन्हें 2015 में डिप्टी कमांडेंट (जीडी) के पद पर और 2021 में कमांडेंट (जेजी) के पद पर पदोन्नत किया गया था। 2021 में उन्होंने अपने कमांडिंग अधिकारियों से सिफारिशों के साथ भारतीय तट रक्षक में स्थायी समामेलन (अब्सॉर्प्शन) के लिए अनुरोध प्रस्तुत किया। हालांकि एक साल बाद महिला अधिकारी का अनुरोध बिना कार्रवाई के वापस कर दिया गया। अनुरोध इस आधार पर वापस किया गया कि रक्षा मंत्रालय का 25 फरवरी 2019 का पत्र (महिला अधिकारियों को स्थायी अवशोषण के अनुदान के संबंध में) ICG पर लागू नहीं होता। कथित तौर पर, याचिकाकर्ता ने यह भी बताया कि आईसीजी में एसएसए अधिकारियों के स्थायी अवशोषण/कमीशन का कोई प्रावधान मौजूद नहीं है। बल्कि, जीडी शाखा के स्थायी कैडर में महिला अधिकारियों को शामिल करने की प्रक्रिया मौजूद थी और नामांकन के समय पीएमटी/एसएससी विकल्प का प्रयोग करना पड़ता था।
इस मामले में महिला अधिकारी ने पहले दिल्ली उच्च न्यायालय का रुख किया लेकिन वहां से कोई राहत न मिलने पर उच्चतम न्यायालय का रुख किया। महिला अधिकारियों का स्थायी कमीशन के लिए आवाज़ उठाने का यह मामला नया नहीं है। हालांकि, भारतीय सशस्त्र बलों में महिलाओं को इसके अस्तित्व के शुरुआती दिनों से ही सहायक सेवाओं में स्वीकार किया गया है, लेकिन उन्हें लड़ाकू भूमिकाओं में शामिल करने या उन्हें स्थायी कमीशन देने का मुद्दा लंबे समय से चल रहा है। यह भी पहली बार नहीं है कि उच्चतम न्यायालय ने महिलाओं की भर्ती और पदों को लेकर सरकार और रक्षा बलों को आड़े हाथों लिया है। इससे पहले भी न्यायालय ने 17 फरवरी 2020 को एक मामले में शॉर्ट सर्विस कमीशन (एसएससी) महिला अधिकारियों को उनके पुरुष सहकर्मियों की तरह ही स्थायी कमीशन (पीसी) प्रदान करने के अधिकार को बरकरार रखा।
शॉर्ट सर्विस कमीशन और स्थायी कमीशन के बीच अंतर
एसएससी एक अधिकारी होता है जिसका भारतीय सशस्त्र बलों में करियर आमतौर पर 14 साल तक सीमित होता है जबकि एक पीसी उनके सेवानिवृत्त होने तक सेवा दे सकता है। एसएससी के लिए 10वें वर्ष के अंत में, तीन विकल्प उपलब्ध होंगे।
- स्थायी आयोग के लिए चुनाव करें
- नौकरी से इस्तीफा दें
- चार और वर्षों के लिए विस्तार का विकल्प चुनें
महिलाओं को लेकर पूर्वाग्रह से भरी सोच
यह एक पूर्वकल्पित धारणा है कि केवल पुरुष ही देश की सुरक्षा और सीमाओं की रक्षा करते हैं। अतीत में युद्ध और लड़ाई में शारीरिक शक्ति और साहस जैसे पुरुषत्व मूल्यों से जुड़े थे। दूसरी ओर, महिलाओं को कमज़ोर, डरी हुई और असुरक्षित देखा जाता था। उनकी भूमिकाएं केवल रसोई तक ही सीमित मानी जाती रही थी। परंपरागत रूप से, महिलाओं को प्रत्यक्ष युद्ध भूमिकाओं से बाहर रखा गया था। इसलिए, जो महिलाएं सशस्त्र बलों में शामिल होती हैं, उन्हें पुरुषों द्वारा और उनके लिए डिज़ाइन किए गए माहौल का सामना करना पड़ता है। महिलाएं अभी भी निर्विवाद रूप से अल्पसंख्यक हैं और रक्षा क्षेत्र में कई प्रकार के भेदभाव का सामना करती हैं। केवल पुरुष-प्रधान पेशे की पूर्वनिर्धारित धारणाएं, कठोर करियर पथ और कुछ पदों तक पहुंच की कमी, ये सभी सेना में महिलाओं की पेशेवर समानता में बाधा हैं। नतीजतन, सशस्त्र बलों के भीतर लैंगिक आधार पर होने वाला भेदभाव और उत्पीड़न आम है और मौजूदा आंतरिक संस्कृति ऐसे दुर्व्यवहारों के लिए अनुकूल वातावरण बनाती है।
भारतीय सशस्त्र बलों में महिलाओं का इतिहास
1888 में “भारतीय सैन्य नर्सिंग सेवा” के गठन के साथ, भारतीय सशस्त्र बलों में महिलाओं की भूमिका आकार लेने लगी। भारतीय सेना की नर्सों ने प्रथम विश्व युद्ध में विशिष्टता के साथ सेवा की। भारतीय सशस्त्र बलों में महिलाओं की भूमिका को महिला सहायक कोर के गठन के साथ और विस्तारित किया गया जिसने उन्हें संचार, लेखांकन, प्रशासन, आदि जैसी मुख्य रूप से गैर-लड़ाकू भूमिकाओं में सेवा करने की अनुमति दी।
कोर की एक सदस्य, नूर इनायत खान ने एक जासूस के रूप में विशिष्टता के साथ अपनी सेवाएं सेना को दी और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अपनी सेवा के लिए एक महान दर्जा भी प्राप्त किया। हालाँकि ब्रिटिश भारतीय सेना में मुख्य रूप से गैर-लड़ाकू भूमिकाएँ महिलाओं तक ही सीमित थीं, लेकिन सुभाष चंद्र बोस द्वारा स्थापित ‘आज़ाद हिंद फ़ौज’ के साथ ऐसा नहीं था। ‘झाँसी की रानी रेजिमेंट’ नाम की एक महिला रेजिमेंट थी, जिसने बर्मा में इंपीरियल जापानी सेना के साथ लड़ाई में सक्रिय रूप से साथ दिया।
सेना अधिनियम, 1950 ने केंद्र सरकार द्वारा निर्दिष्ट कुछ अपवादों के साथ महिलाओं को नियमित कमीशन के लिए अयोग्य बना दिया। 1 नवंबर 1958 को आर्मी मेडिकल कोर महिलाओं को नियमित कमीशन देने वाली पहली भारतीय सेना इकाई बन गई। उसके बाद, 80 और 90 के दशक में, महिलाओं को भारतीय सेना में शॉर्ट सर्विस कमीशन के लिए पात्र बनाया गया। 2023 तक, महिलाएं पैराशूट रेजिमेंट जैसे विशेषज्ञ बलों में लड़ाकू सैनिकों के रूप में सेवा के लिए पात्र नहीं हैं, लेकिन वे इसके कुछ गैर-लड़ाकू विंग जैसे सिग्नल कोर, इंजीनियर आदि में शामिल हो सकती हैं।
महिलाओं को लड़ाकू भूमिकाओं में अनुमति क्यों नहीं
भारतीय सशस्त्र बलों में महिलाओं को पीसी या लड़ाकू भूमिकाओं में शामिल करने के विरोधियों द्वारा कई तर्क दिए जाते हैं। ये तर्क पितृसत्तात्मक धारणाओं से रंगें हुए है। जिनमें से कुछ निम्न हैं जैसै भारतीय समाज की मानसिकता पितृसत्तात्मक है और इसलिए वह महिलाओं को सक्रिय लड़ाकू भूमिकाओं में देखने के लिए तैयार नहीं है। यह तर्क दिया गया कि चूंकि कई पुरुष सैनिक ग्रामीण पृष्ठभूमि से हैं इसलिए उन्हें महिला अधिकारियों से आदेश स्वीकार करने में परेशानी हो सकती है। हमेशा से ऐसी धारणा रही है कि पुरुष अपनी कथित आक्रामकता और शारीरिक कौशल के कारण बेहतर सैनिक बनते हैं। महिलाएं मनोवैज्ञानिक तौर पर थोड़ी कमज़ोर और भावनात्मक अधिक होती हैं इसीलिए उनमें बेहतरीन सैनिक बनने के गुण नहीं होते हैं। महिलाएं “कमजोर” लिंग हैं और वे ऐसे कार्य नहीं कर सकतीं जो उनके लिए “बहुत कठिन” हो।
फरवरी 2020 के फैसले में शीर्ष अदालत ने सेना में महिला अधिकारियों के लिए स्थायी कमीशन (पीसी) का आदेश दिया था, उनकी “शारीरिक सीमाओं” पर संघ के रुख को “सेक्स रूढ़िवादिता” पर आधारित होने से खारिज कर दिया था और इसे “महिलाओं के खिलाफ लैंगिक भेदभाव” कहा था। सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा कि भारतीय सेना में महिला शॉर्ट सर्विस कमीशन अधिकारी अपने पुरुष समकक्षों के बराबर स्थायी कमीशन की हकदार हैं भले ही उनकी सेवा के वर्ष कुछ भी हों।
उपर्युक्त मामले में भी न्यायालय ने केंद्र को जल्द ही लिंग-तटस्थ नीति लाने के लिए आगाह किया। अदालत ने कहा कि “उसके मामले के बारे में भूल जाओ, अब हम उससे निपटेंगे जो तुम दूसरों के साथ करते हो। हम सर्वोच्च न्यायालय हैं, हम उसे स्वतंत्रता नहीं दे सकते हैं, लेकिन हम देखेंगे कि आईसीजी में महिलाओं के लिए न्याय किया जाता है, फिर हम पूरे कैनवास को खोल देंगे, आप जो करना चाहते हैं उसके लिए बेहतर होगा कि आप निर्देश लें। अगर महिलाएं सुरक्षा कर सकती हैं सीमाओं की रक्षा कर सकती हैं, वे तटों की रक्षा कर सकती हैं, यह इतना आसान है।” अब देखना यह है कि केंद्र सरकार उच्चतम न्यायालय द्वारा की गयी खिंचाई के बाद लिंग सामान नए नियम बनाने में कितना समय लेती है।