दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव के दौरान बहुत कुछ देखने को मिलता है। कोई नेता इस पार्टी में कोई नेता उस पार्टी में, किसी की बेतुकी बयानबाजी, कितने ही वादे और साथ में राजनीतिक पार्टियों द्वारा एयर लिफ्ट उम्मीवाद। महज चुनाव से पहले प्रसिद्ध चेहरों का पार्टियों से जुड़ना और चुनाव लड़ना बिल्कुल नया नहीं है। 60 के दशक से यह होता आ रहा है। अपने-अपने क्षेत्र में नाम कमा चुके क्रिकेटर, अभिनेता, अभिनेत्री या कोई प्रसिद्ध हस्ती बतौर नेता सक्रिय राजनीति में आते हैं। ये हस्तियां चुनाव भले जीत जाएं लेकिन चुनाव क्षेत्र से गायब अक्सर आती हैं। लोकसभा 2024 के चुनाव का बिगुल बज चुका है। हर पार्टी अपने-अपने प्रत्याशियों की लिस्ट जारी कर रही है। राजनीतिक पार्टियां उम्मीदवार के तौर पर अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं से अलग ऐसी हस्तियों का भी सहारा ले रही हैं जिनका कला, खेल आदि जगत में एक बड़ा नाम रहा है।
युसुफ पठान को आपने अबतक क्रिकेट खेलते हुए मैदान पर देखा होगा लेकिन अब उनकी पहचान में एक चीज़ और जुड़ गई हैं। युसुफ पठान पश्चिम बंगाल की लोकसभा सीट बहरामपुर से चुनाव लड़ेंगे। टीएमसी ने कांग्रेस के प्रत्याशी अधीर रंजन चौधरी के सामने उन्हें अपना उम्मीदवार घोषित किया है। इस ख़बर को पुख्ता करते हुए उन्होंने अपने सोशल मीडिया हैंडल पर ममता बनर्जी का धन्यवाद जाहिर करते हुए पोस्ट जारी की है। लोकसभा चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आ रहा है ऐसी चर्चित हस्तियों के चुनाव में उम्मीवार के तौर पर नाम सामने आ रहे हैं।
बीजेपी, कांग्रेस या अन्य पार्टियां भी चुनाव में ऐसे उम्मीदवारों को चुनाव में उतारने में पीछे नहीं है लेकिन सवाल यहां यह है कि सत्ता के साथ इन हस्तियों का यह गठबंधन जनता के कितने हित में है। इस चलन पर नज़र उठाकर देखें तो इसका जवाव बहुत सफल नज़र नहीं आता है। कुछ एक नामों को छोड़ दे तो फिल्मी सितारे या खिलाड़ी बतौर नेता जनता की आवाज उठाते प्रखर तो पर सामने आते नहीं दिखते हैं। चाहे वह भूतपूर्व में रहे लोग हो या मौजूदा लोकसभा में मौजूद एक्टर या खिलाड़ी से बने नेता हो।
चुनाव में सितारे क्या लोकतंत्र के लिए बेहतर है?
सक्रिय राजनीति में हमेशा से फिल्मी सितारों, खिलाड़ियों के लिए जगह बनाई जाती रही है। हर राजनीतिक पार्टी इन हस्तियों की प्रसिद्धि की ताकत को इस्तेमाल कर उसे वोट में बदलना चाहती है क्योंकि फिल्मी सितारों, खेल, कला आदि के क्षेत्र में नाम कमा चुके लोगों को पूरे देश और दुनिया में पहचान की वजह से आसानी से उन्हें समर्थन मिलता है। पार्टियां इस बात को ध्यान में रखते हुए यह कदम उठाती है। हालांकि राजनीति में चीजें असल में अलग होती हैं। अपने-अपने क्षेत्र में विशेषज्ञता हासिल कर चुके ये चेहरे जब चुनाव में आते हैं कई बार जीत का स्वाद चखते हैं और कई बार हार मिलती है। हालांकि जनप्रतिनिधि के तौर पर यह लोकतंत्र के लिए बहुत बेहतर साबित होते नज़र नहीं आते हैं। मशहूर हस्तियां बिना किसी ट्रैक रिकॉर्ड, उसके द्वारा किये गए काम, राजनीतिक विचारधारा से अलग प्रसिद्धि की बिसात पर चुनाव में वोट करने के चलन को बढ़ाती है।
सत्ता के खेल में इन हस्तियों का इस्तेमाल और इनका निजी हित साफ नज़र आता है। अक्सर इन हस्तियों को राजनीति में आने के लिए प्रेरणा तभी मिलती है जब उनका अपना करियर बहुत हिट पर नहीं होता है, रिटायरमेंट ले चुके होते हैं और वे काम के दूसरे विकल्प की तलाश में होते हैं। ऐसे समय में इन हस्तियों को भी राजनीति एक अच्छा दांव लगती हैं क्योंकि यह उनकी प्रसिद्धि और ताकत को बरकरार रखने में मदद करती है। मशहूर हस्तियों का राजनीतिक दलों में शामिल होना संबंधित पार्टियों के लिए भी फायदेमंद है। जब कोई अभिनेता उनकी पार्टी में शामिल होता है तो इससे उन्हें प्रचार मिलता है लोग भी उनके पूर्व की छवि यानी सिनेमा या क्रिकेट मैदान वाली भूमिका पर ज्यादा मोहित होते हैं। हालांकि चुनाव के समय सीधा इस तरह से किसी हस्ती को टिकट देना एक तरह से क्षेत्रीय मुद्दों को दरकिनार करना भी है। लोगों की भीड़ बड़े चेहरे की ओर खिंचती है और यह पार्टी के उन कार्यकर्ताओं और नेता के लिए भी बेमाना है जो सालों साल धरातल पर जनता के बीत मौजूद रहकर काम करते हैं। मशहूर हस्तियों को चुनाव के समय आना धन-बल को बढ़ावा देना है न कि मुद्दों और लोगों की ज़रूरतों को केंद्र में करना है।
मशहूर हस्तियों का राजनीतिक पार्टियों के लिए ऐसा है जिस तरह प्रसिद्ध अभिनेता या खिलाड़ी किसी उत्पाद की विश्वसनीयता को बढ़ाता है। मशहूर हस्तियों का करिश्मा भावनात्मक आयाम को जोड़ता है, वोटर्स उन तरीकों से प्रभावित होता है। उस समय वह उसके प्रचार और चेहरे को ही वास्तविकता मान लेते है जो नीतिगत चर्चा को पीछे छोड़ देता है। साथ ही इसका एक नकुसान यह है कि मशहूर हस्तियों में जटिल राजनीतिक मुद्दों को व्यापक रूप से समझने के लिए विशेषज्ञता की कमी हो सकती है। केवल उनके समर्थन पर भरोसा करना संभावित रूप से महत्वपूर्ण मामलों को अधिक सरल बना सकता है। सेलिब्रिटी हस्तियों का चुनाव में आना संभावित रूप से मतदाताओं को उम्मीदवार की योग्यता, अनुभव या नीति एजेंडा के बजाय लोकप्रियता के आधार पर चुनाव करने के लिए प्रेरित करता है। साथ ही इन मशहूर हस्तियों के नेता बनकर जनता के बीच मौजूद रहने का चलन भी बहुत हद कर देखने को नहीं मिलता है।
गुमशुदा सांसद और प्रसिद्ध हस्ती
भारतीय जनता पार्टी की ओर से पंजाब के पठानकोट से सांसद बॉलीवुड अभिनेता सनी देओल के उनके निर्वाचन क्षेत्र में लापता होने के पोस्टर सामने आ चुके हैं। गुमशुदा की तलाश के पोस्टर शहर के कई घरों, रेलवे स्टेशनों और वाहनों की दीवारों पर चिपकाएं गए। हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित ख़बर के अनुसार सांसद बनने के बाद से वह कभी गुरदासपुर नहीं गए। वह खुद को पंजाब का बेटा कहते है लेकिन उन्होंने यहां कोई औद्योगिक विकास नहीं किया है। उन्होंने अपनी सांसद निधि भी आवंटित नहीं की है और न ही कोई केंद्रीय योजना लाए हैं। ठीक इसी तरह एक्टर टर्न पॉलटिशन परेश रावल के प्रति भी स्थानीय नेता तक उनके टिकट आवंटन पर नाराजगी जाहिर कर चुके हैं। क्रिकेटर से नेता बने गौतम गंभीर भी अधिकतर समय क्रिकेट कंमेट्री करते नज़र आए। हाल ही में उन्होंने राजनीति को छोड़ने का फैसला करते हुए दोबारा से क्रिकेट पर फोकस करने का एलान किया है। मथुरा से बीजेपी सांसद हेमा मालिनी को मिसिंग सांसद यानी गुमशुदा सांसद कहा जा चुका है।
भारतीय संविधआन के अनुसार देश के सभी नागरिकों का हक है कि वे राजनीति में आएं, चुनाव लड़े। मशहूर हस्तियों का राजनीति में शामिल होने में 1960 में पृथ्वीराज कपूर पहले एक्टर थे जिन्हें राज्यसभा के लिए नामिनेट किया गया था। सुनील दत्त और नरगिस जैसे अपने दौर के सुपरहिट कलाकार राजनीति में सफल भी नज़र आए और राजनीति में सक्रिय रहते हुए लोगों के बीच बने रहे। इमरजेंसी के दौरान देव आनंद, किशोर कुमार और शत्रुघन सिन्हा जैसे वे एक्टर रहे हैं जिन्होंने कांग्रेस पार्टी के निर्देशों का पालन करने से मना कर दिया था। 1980 के दशक में अमिताभ बच्चन ने भी इलाहाबाद सीट से लोकसभा चुनाव लड़ा और पूर्व मुख्यमंत्री एचएन बहुगुणा के ख़िलाफ़ जीत दर्ज की थी हालांकि विवाद में नाम आने के बाद से राजनीति से दूरी बना ली। इसी लिस्ट में गोविंदा, धर्मेंद्र जैसे नाम शामिल हैं। भोजपुरी सिनेमा के के भी एक्टर हर लोकसभा के चुनाव में अलग-अलग पार्टियों द्वारा प्रत्याशी बनाएं जाते हैं। राज्यसभा में तो हर पार्टी ही खिलाड़ी या एक्टर्स को अपनी तरफ से नामित करती आ रही है। जया बच्चन इसमें वो नाम है जो संसद में अपनी मौजूदगी दर्ज करती दिखती है। लेकिन बतौर राज्यसभा सांसद के तौर पर सचिन तेंदुलकर जैसे खिलाड़ी संसद में न के बराबर नज़र आए।
शत्रुघन सिन्हा हालांकि उन नामों में हैं जो लगातार राजनीति में सक्रिय है। बीजेपी में रहने के बाद वर्तमान में वह तृणमूल कांग्रेस से जुड़े हुए हैं। 2024 के चुनाव में टीएमसी ने उन्हें आसनसोल सीट से अपना उम्मीदवार घोषित किया है। दक्षिण फिल्म इंडस्ट्री की बड़ी हस्तियों में शामिल कमल हसन भी राजनीति में अपनी किस्मत आजमा चुके हैं। एमजी रामचंद्रन, जयललिता का नाता भी फिल्मों से रहा है। सुपरस्टार रजनीकांत भी राजनीति से जुड़े रह चुके हैं। कीर्ति आजाद, नवजोत सिंह सिद्धू, मौहम्मद कैफ वे खिलाड़ी हैं जो राजनीति में लगातार बने हुए है। इसके साथ ही विनोद कांबली, हरभजन सिंह, मनोज प्रभाकर, श्रीशांत, अंबाती रायडू, मनोज तिवारी, चेतन चौहान भी राजनीतिक पार्टियों के बैनर तले नज़र आ चुके हैं।
भारतीय राजनीति में सेलिब्रिटी समर्थन एक तरह से भावनाओं, जनसंपर्क, करिश्मा और आकर्षण की एक जटिल परस्पर क्रिया है। प्रसिद्ध चेहरों का राजनीतिक रिपोर्ट कार्ड देखने पर अधिकतर का योगदान जनप्रतिनिधि के तौर पर उतना सफल नज़र नहीं आता है। बड़ी संख्या में ये हस्तियां राजनीतिक अभियानों को सक्रिय कर सकते हैं, प्रचार कर सकते हैं मुद्दों पर ध्यान आकर्षित कर सकते हैं, लेकिन स्टार पावर और ठोस मुद्दों की चर्चा के बीच संतुलन बनाना महत्वपूर्ण है। अंततः वोटर्स की भी जिम्मेदारी है कि वे उम्मीदवारों और पार्टियों के लिए आलोचनात्मक मूल्याकंन करें और चमक-दमक से परे सोच-विचार कर ऐसे फैसले ले जो उनके भविष्य और राष्ट्र निर्माण को आकार दें लेकिन मौजूदा दौर की स्थिति का अवलोकन करें तो मतदाताओं की आलोचनात्मक दृष्टि से इतर वे भ्रामक प्रचार की राजनीति के प्रति अधिक रूचि रखे हुए हैं।
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