विकास, व्यापार, मनोरंजन के माध्यम से आज सबसे आसान दोहन किसी का हो रहा है तो वह है प्रकृति। पहाड़ों या जंगलों में लोगों का रूख व्यापार और मनोंरजन के लिए तेजी से बढ़ता जा रहा है लेकिन इसके पीछे खड़ी समस्याओं को वहां की स्थानीय समस्या बता कर बड़ी संख्या में लोगों की चुप्पी ज्यादा नज़र आती है। रोज धीमी होती आवाज़ और कमजोर होती सेहत के साथ लद्दाख के पर्यावरण कार्यकर्ता और शिक्षक सोनम वांगचुक का मैसेज सोशल मीडिया पर उपस्थिति लोगों की नज़रों में ज़रूर आया होगा। लेकिन छुट्टी में, गर्मियों में, सर्दियों में, वीकेंड पर पहाड़ों का रूख करने वाला एक वर्ग तेजी से स्क्रॉल करते हुए आगे भी बढ़ गया। यही वजह है कि पर्यावरण के हित से जुड़े इस मुद्दे पर लोगों का वो समर्थन नहीं मिला जितनी वक्त की दरकार है।
21 दिन के आमरण अनशन के बाद सोनम वांगचुक अस्पताल में है। इस आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए महिलाएं और अन्य वर्ग बारी-बारी से आमरण अनशन करेंगे। लेकिन सवाल यह है आज के चुनावी माहौल में भी क्यों पर्यावरण के विषय पर सब लोगों की चुप्पी है। क्या हमारे लिए पर्यावरण का मुद्दा मायने नहीं रखता है? क्यों हमारे राजनीतिक माहौल में जलवायु परिवर्तन के विषय को गंभीरता से नहीं देखा जा रहा है? क्यों खुद भाजपा की सरकार 2019 में लद्दाख की जनता को छठी अनुसूची में रखने का वादा करने के बाद आज लोगों की मांग को अनसुना कर रही है? क्यों भारत की राजनीति में पर्यावरण के मुद्दे को इतना महत्व नहीं दिया जाता है? और आखिर राजनीतिक एजेंडा से इसे बाहर रखना भविष्य के लिए कितना खतरनाक होगा?
सोनम वांगचुक का क्लाइमेट फास्ट क्यों है महत्वपूर्ण
सोनम वांगचुक ने 6 मार्च से शून्य डिग्री से नीचे के तापमान में लद्दाख की जैव विविधता समेत अन्य मांगों के साथ क्लाइमेट फास्ट की शुरुआत की। यह पहली बार नहीं है कि उन्होंने भूख हड़ताल की है और केवल नमक और पानी पर ही जीवत रहे हैं। 2019 के बाद से कई विरोध प्रदर्शन हुए हैं। लद्दाख लोगों के लिए उठाई गई मुख्य मांगों में से एक वहां की नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा करना भी है। संविधान की छठी अनुसूची, अनुच्छेद के तहत स्थानीय आदिवासी लोगों को प्रशानिक अधिकार देती है।
प्रदर्शकारियों की पर्यावरण संबंधी अनेक मांगे हैं। द क्विंट में प्रकाशित जानकारी के अनुसार लद्दाख में वर्तमान में विकास की परियोजनाएं चल रही हैं। पुगा घाटी में जियो थर्मल पावर प्लांट, ओएनजीसी द्वारा स्थापित किया गया जाएगा। ग्रीन हाइड्रो यूनिट, एनटीपीसी द्वारा स्थापित की जाएगी। लद्दाख से हरियाणा तक सौलर ऊर्जा बिजली संचारित यूनिट सिस्टम लागू किया जाएगा, सिंधु नदी पर 7 अन्य जल बिजली परियोजनाएं, बिजली ट्रांसमिशन के लिए 157 एकड़ वन भूमि को साफ करना। इन सभी परियोजनाओं के आने और सेना के द्वारा संचालित अन्य सड़क के निर्माण जैसी विकास परियोजनाओं के ख़िलाफ स्थानीय लोग अपने प्राकृतिक संसाधनों जैसे बोरेक्स, सोना, ग्रेनाइट, चूना पत्थर आदि की कमी का विरोध कर रहे है जो इस क्षेत्र में अधिक मात्रा में है।
क्यों पर्यावरण चिंता का मुद्दा है?
बाढ़, समुद्री तूफान, सूखा, मौसम का विघटन, आंधी, लू जैसी चरम मौसमी घटनाओं का प्रकोप भयंकर रूप लेकर साल दर साल बढ़ता ही जा रहा है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट के अनुसार भारत ने जनवरी से लेकर सितंबर 2023 तक लगभग हर दिन चरम मौसमी घटनाओं का सामना किया है। भारत का हर हिस्सा प्रकृति के प्रकोप का सामना कर रहा है। लाखों लोग जलवायु परिवर्तन के कारण अपने ही मुल्क में शरणार्थी बनने पर मजबूर है। व्यवस्था चरमा रही है, लोगों का जीवन अस्त-व्यस्त हो रहा है। तेजी से गर्म होती दुनिया के तापमान को नियंत्रित करना सबसे बड़ी आवश्यकता है। दुनिया भर के वैज्ञानिकों का कहना है कि पृथ्वी को अपने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को आधा कर देना चाहिए।
जलवायु परिवर्तन का विषय केवल प्राकृतिक संरक्षण और हरे-भरे हिमालय क्षेत्र से नहीं है। शिक्षा, स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य बेरोजगारी, हिंसा, आर्थिक विकास, असमानता आदि सब आपस में जुड़े हुए हैं। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण महिलाओं और लड़कियों के ख़िलाफ़ हिंसा का जोखिम बढ़ जाता है। कई अध्ययनों के अनुसार भारत के पश्चिम बंगाल के सुंदरबन के एरिया में प्राकृतिक आपदाओं और घरेलू हिंसा के बीच गर्मी का संबंध पाया गया है। जलवायु परिवर्तन के कारण बच्चों की शिक्षा पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। यूनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड में प्रकाशित डेटा के अनुसार आपदाएं बच्चों के सीखने की क्षमता को प्रभावित करती है। इतना ही नहीं प्राकृतिक आपदाओं से पैदा संकट से मनुष्य के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर भी असर पड़ता है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार अनियमित बारिश और तापमान में बढ़ोत्तरी से बेरोजगारी की स्थिति बहुत खराब होती है।
भारत में आबादी का बड़ा हिस्सा पानी, भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार से वंचित है। सरकार के लिए लोगों के लिए मौलिक सुविधाओं तक पहुंच बनाना एक चुनौती है। ऐसे में जलवायु परिवर्तन के असर को नज़रअंदाज करके इन मुद्दों का समाधान नही किया जा सकता है। बड़ी प्राकृतिक आपदाओं के बाद फौरी तौर पर पर्यावरण के विषय पर बातचीत होती है लेकिन जल्द ही फिर से किसी दूसरी घटना के इंतजार में सब ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। वास्तव में जलवायु परिवर्तन किसी तरह का अकादमिक मुद्दा नहीं हैं बल्कि नाजुक परिस्थितिक क्षेत्र में रह रहे लोगों के जीवन की वास्तविकता है।
पर्यावरण और भारतीय राजनीति
भारतीय राजनीति में पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण के मुद्दे कितनी दूर की बात है इसे समझने के लिए थोड़ा ठहरकर देखने की ज़रूरत है। दिल्ली में ठंड के दिनों में प्रदूषण से जुड़ी ख़बरों को मीडिया में बहुत जगह मिलती है। उत्तर भारत में आसमान से धुंध की चादर की बड़ी-बड़ी हेडलाइन बनाई जाती है लेकिन सत्ता का केंद्र दिल्ली में प्रधानमंत्री ही इस विषय पर बोलते नहीं दिखते हैं। गंगा के अविरल बहने को राजनीतिक एजेंडा भावनात्मक और धार्मिक रूप से लोगों को उससे जोड़ा जाता है। नदियों की सफाई को लेकर कानपुर की गंगा से लेकर दिल्ली की यमुना तक के लिए सिर्फ सरकारों का आरोप-प्रत्यारोप चलता है।
क्लाइमेट चेंज, चुनाव का कोई मुद्दा नहीं हैंः पर्यावरणविद्
पर्यावरणविद् डॉ. नीतीश प्रियदर्शी का इस पर कहना है, “भारत में क्लाइमेट चेंज वास्तव में चुनाव का कोई मुद्दा नहीं है। चाहे कोई भी चुनाव हो या किसी भी पार्टी का आप चुनावी घोषणा पत्र देख लें इसका कही भी ज़िक्र नहीं होता है कि हम साफ पानी, साफ हवा या फिर जंगलों को सुरक्षित करेंगे। यह किसी भी राजनीतिक दल के एजेंडे में नहीं होता है। सब बहुत बड़ी-बड़ी बातें करते हैं लेकिन ये बेसिक चीजें हैं जिसपर हमारा सारा अस्तित्व टिका है उसकी न कोई चर्चा करता है और न ही उसकी गंभीरता को समझते है। इसका सबसे बड़ा कारण भी हम ही लोग है। जब कोई घटना होती है तो हम बड़ी-बड़ी बातें करते हैं लेकिन जल्द ही भूल जाते हैं। भूख की समस्या पर बात होती है, महंगाई पर होती है। अचानक से प्याज, टमाटर का दाम बढ़ता है ये भी क्लाइमेट से जुड़ा है लेकिन इस पहलू पर हम नहीं सोचते हैं। भूख को खत्म करने के लिए भी तो इस धरती के ही संसाधन चाहिए होंगे। अब जैसे-जैसे गर्मी आ रही है, पानी की समस्या बढ़ती जा रही है। कुछ चुनिंदा लोग बोल रहे हैं और वे हमेशा से बोलते आए हैं लेकिन बड़ी संख्या में इन विषयों पर बात नहीं होती है। मीडिया भी इन मुद्दों पर लगातार बात नहीं करता है। पर्यावरण के विषय पर लोगों में जागरूकता की भारी कमी है, नेता भी इनमें शामिल हैं। लोगों और राजनीतिक पार्टियों को क्लाइमेट चेंज की गंभीरता को समझने की ज़रूरत है।”
प्रधानमंत्री मोदी की भ्रामक नीति और प्रचार
डाउट टू अर्थ में छपी जानकारी के अनुसार साल 2014 में लोकसभा चुनाव से पहले दोनों पार्टियों ने पर्यावरण संबंधी वादे किये थे जो पूरे नहीं हो सके। कांग्रेस के मामले में सत्ता से बाहर रहने के कारण और भाजपा के गैर प्रदर्शन (नॉन परफॉर्मेशन) के कारण। भाजपा की सरकार के एक दशक के कार्यकाल को देखें तो इसकी नीतियां वास्तव में पर्यावरण विरोधी है। सरकार के द्वारा बनाये गए नियम भारत की जैव विविधता के लिए बड़ा खतरा है। फ्रंटलाइन में प्रकाशित जानकारी के अनुसार बायो डायवर्सिटी (अमेंडमेंट) बिल 2021 और फोर्सेट कन्सर्वेशन अमेंटमेंट बिल 2023 पर पर्यावरण के जानकार बड़ी चिंताएं जाहिर कर चुके हैं।
द थर्ड पोल में छपे लेख के अनुसार दक्षिण एशिया के देशों में चुनावों में जलवायु परिवर्तन की दिशा में कोई ठोस कार्रवाई के लिए आशा जगाने में बहुत कम योगदान दिखाई देते हैं। यहां की प्रमुख राजनीतिक पार्टियां और उनके चुनाव में उम्मीदवार उन नीतियों को प्राथमिकता देते हैं जो जलवायु परिवर्तन को कम करने के बजाय बढ़ा देती है। चुनावी अभियानों में गैर-जलवायु, पर्यावरण से जुड़े मुद्दे हावी होते हैं। इसी रिपोर्ट में प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल के बारे में विश्लेषण करते हुए लिखा गया है उन्होंने महत्वाकांक्षी डीकार्बोनाइजेशन की प्रतिज्ञाएं की है और स्वच्छ ऊर्जा पर जोर दिया है। लेकिन कोयला अभी भी भारत के ऊर्जा मिशन पर हावी है और उद्योग तेजी से इसका उत्पादन कर रहा है। भारत 2026 तक इसके निर्यात करने तक का इरादा रखता है। वास्तव में मोदी की जलवायु नीतियां उतनी आशावादी नहीं है जितना उनके समर्थक मानते हैं।
हाशिये पर रहने वाले लोग जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित हैं। भारत को अपनी अत्याधिक संवेदनशील और मौजूदा स्थिति को देखते हुए जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण प्रदूषण के बारे में सोचने की और धरातल पर काम करने की बहुत ज़रूरत है लेकिन भारत के नेता और संसद में जगह बनाने की चाहत रखने वाले नेताओं के चुनावी भाषण, अभियानों और नीयत में जलवायु परिवर्तन,पर्यावरण औ प्रदूषण जैसे मुद्दे नहीं है। राजनीतिक दलों के लिए भी पर्यावरण कोई मुद्दा नहीं है क्योंकि ये नेता इससे उस तरह से प्रभावित नहीं होते हैं जिस तरह से इस देश की आम जनता होती है।