पिछले कुछ दशक से पूरा विश्व समाज में फैली असमानताओं को खत्म करने के लिए कई तरह की पहल कर रहा है। हाशिए के समुदाय जैसे महिलाएं, क्वीयर समुदाय, आदिवासी आदि के लिए सरकार या संस्था कोई न कोई कदम उठा रही है। कई देशों में महिलाओं को हर क्षेत्र में आगे आने के लिए प्रेरित किया जा रहा है। मैरिज इक्विलिटी पर बात हो रही है। भारत में दलित समाज को भी आगे लाने के लिए कई तरह के कार्यक्रम किए जा रहे हैं। इन सब के बीच सवाल ये उठता है कि क्या वास्तव में इन पहलों से समुदाय के लोगों को फायदा हो रहा है या सिर्फ ये कागज़ों, विज्ञापनों और ब्रांडिग और महज कुछ लोगों के पूंजी को बढ़ाने के खेल तक सीमित पहल हैं। इसके सकरात्मक और नकारात्मक दोनों पहलू सामने निकल कर आते हैं। कई स्थानों पर समानता की नीतियों का गलत इस्तेमाल भी किया जाता रहा है। जिनमें से एक नीति क्वीयर समुदाय के विकास में बाधा रही, जिसका इस्तेमाल एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के विकास को लेकर हुआ मगर वास्तव में वो समुदाय के अस्तित्व का हनन साबित हुआ। इस टर्म को “पिंकवाशिंग” नाम दिया गया है।
क्या है पिंकवाशिंग
पिंकवाशिंग शब्द को रेनबो वाशिंग के नाम से भी जाना जाता है। ये टर्म एलजीबीटीक्यू+ समुदाय को समानता और स्वतंत्रता देने के लिए इस्तेमाल की जाती रही है। उदारवाद और लोकतंत्र के सबूत के रूप में एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के अधिकारों की सुरक्षा को बढ़ावा देने की रणनीती है। लेकिन वास्तविकता अलग है। 17 वीं शताब्दी में जर्मनी में नाज़ी सरकार दमन कर रही थी। उस समय अपने इन अपराधों और दोष को छुपाने के लिए वहां की सरकार “वाइट वाश” शब्द का इस्तेमाल किया करती थी। उसी दौरान नाज़ी सैनिकों ने क्वीयर कैदियों की पहचान के लिए एक निशान चिन्ह बना दिया था जो पिंक यानि गुलाबी रंग का त्रिकोण था। इस चिन्ह को वे क्वीयर लोगों के विपरीत इस्तेमाल किया करते थे। यहीं से क्वीयर समुदाय के विरुद्ध एक रंग को निश्चित कर दिया गया। बाद में इसी पिंक शब्द से निकल कर ‘पिंकवाशिंग’ टर्म निकला, जिसका खुल कर विरोध भी हुआ।
इसके बाद से यह टर्म समाज अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करता आ रहा है। साल 2010 में इस मामले ने फिर से तूल पकड़ा। इज़राइल और फिलिस्तीन विवाद में इज़राइल सरकार के आलोचकों द्वारा ये आरोप लगाया गया था कि इज़राइल की सरकार फिलस्तीनी लोगों के साथ किए हुए अत्याचार को छुपाने के लिए होमोसेक्शुअलिटी के लिए समावेशी नीतियों को बढ़ावा देने वाले अभियानों का इस्तेमाल कर अपने अपराधों को छुपाने की कोशिश कर रही है। मीडिया में इसका इस्तेमाल 2011 में ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ में अमेरिकन इतिहासकार और पत्रकार सारा मिरियम शुलमैन ने किया था। वहीं पिंकवाशिंग शब्द का इस्तेमाल अमेरिका में 2002 में ब्रेस्ट कैंसर की जागरूकता अभियान के लिए किया गया था।
पिंकवाशिंग की नीति तभी सामने आती है जब कोई संस्था, कोई सरकार, ब्रांड या संगठन अपने फायदे के लिए, अपनी हित के लिए, स्वार्थ भाव से एलजीबीटीक्यू+ का समर्थन करती है या कोई देश अपने युद्ध, नरसंहार, हत्याकांड, आतंकवाद आदि को छुपाने या इस विषय से ध्यान भटकाने के लिए करता है। पिकवांशिग का इस्तेमाल राज्य, अधिकारी या सगंठन एलजीबीटीक्यूआई+ समर्थक एजेंडे के तरह इस्तेमाल करते हैं और उनकी पहचान को अपने हित के लिए इस्तेमाल करते हैं। समावेशी का नकाब पहनकर कोलोनियल प्रोजेक्ट जिनमें क्रूर सैन्य कब्ज़ा, हिंसा, जातीय हिंसा, रंगभेद, मानवाधिकारों और अंतरराष्ट्रीय कानूनों के उल्लंघन को छिपाने के लिए किया जाता है।
भारत में पिंकवाशिंग का इस्तेमाल
भारत में भी पिछले कुछ दशक से पिंकवाशिंग के अंतर्गत कॉरर्पोट सेक्टर की कंपनियां मुनाफे के लिए रेनबो फ्लैग का इस्तेमाल कर रही है। प्राइड मंथ के दौरान अक्सर कंपनियां एलजीबीटीक्यू+ फ्रेंडली का टैग इस्तेमाल करती हैं, और कई संस्था समुदाय के लोगों के इंटरव्यू भी लेती हैं। मगर जमीनी स्तर पर किसी भी कंपनी में समुदाय से आने वाले लोगों की गिनती न के बराबर होती है। देश में कई महत्वपूर्ण भारतीय और विदेशी कंपनियां जैसे, टाटा स्टील, माइक्रोसॉफ्ट, अडोब, उबर, एक्सिस बैंक जैसे संस्थान क्वीयर समुदाय का समर्थन करने का वादा करती है।
अक्सर देखा गया है कि कंपनियां केवल अपने ब्रैंड को समावेशी और क्वीयर समुदाय के समर्थक के रूप में दर्शाते हैं। जैसे कि कंपनियां अक्सर एलजीबीटीक्यू+ फ्रेंडली, दिल से ओपन जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। गूगल जैसे वैश्विक ब्रांड के एक स्टेटमेंट के अनुसार एलजीबीटीक्यू+ समुदाय को समर्थन देना गूगल के लिए हमेशा से प्राथमिक रहा है। चाहे वो गूगल द्वारा दी जाने वाली स्वास्थ्य सेवाएं हों या फिर होमोसेक्शुअल समुदाय के लिए प्राइड समारोह। वे बताते हैं कि वे अपने सभी प्लेटफॉर्म पर एलजीबीटीक्यू+ समर्थित समावेशिता की वकालत को प्रतिदिन आगे बढ़ाते रहे हैं।
कैसे फैशन एलजीबीटीक्यू+ फ्रेंडली होने का दावा करती है
ठीक इसी तरह कपड़ों की मशहूर कंपनियां भी अपने व्यापार को बढ़ाने के लिए एलजीबीटीक्यू+ फ्रेंडली होने का दावा करती है। अपने प्रचार के लिए रेनबो प्लैग का इस्तेमाल बढ़-चढ़ कर करती दिखती है। H&M और Levi’s ने एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लिए एक पहल की थी। इन कंपनियों ने अपने ब्रांड को प्रोमोट करने के आड़ में समावेशी माहौल को प्रमोट करने के लिए ‘प्राइड कलेक्शन’ नाम से एक कैंपेन चलाया। कंपनी के शोरूम में विशेष तरह के रंग-बिरंगे कपड़ों को दिखाया आउए बेचा गया था। हालांकि, कंपनियों को भारत और बांग्लादेश जैसे देशों में आलोचना का सामना करना पड़ा था, जहां होमोसेक्शुअलिटी पूर्ण रूप से अवैध थी। ये कंपनियां व्यापार के लिए एलजीबीटीक्यू+ के हितों की बात तो करती है, लेकिन वास्तव में इनकी कथनी और करनी में ख़ासा अंतर होता है।
उपभोगतावाद की राजनीति
एलजीबीटीक्यू+ समुदाय की स्थिति के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए कंपनियां बड़े स्तर पर प्रचार करती है जिसमें हालांकि समुदाय से ज्यादा उनका खुद का हित होता है। साथ ही वे ऐसे व्यवसाय भी करती हैं जो उन अभियानों का खंडन करती हैं। उदाहरण के लिए उन देशों में ऐसे नैरेटिव तैयार करने की कोशिश करना, जहां असल में होमोसेक्शुलिटी एक अपराध है और जमीनी सच्चाई बहुत अलग है। हालांकि कई लोग तर्क देते हैं कि बड़े ब्रांडों का एलजीबीटीक्यू+ अधिकारों के लिए अपना समर्थन जारी करना एक अच्छी बात है। इससे आंदोलन मजबूत हो रहा है। एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के बारे में मजबूत संदेश देने वाले ये अभियान समाज में होमोफोबिया पर अंकुश लगाने का काम कर सकते हैं।
लेकिन यह याद रखने की ज़रूरत है कि यहां जो मैसेज दिया जा रहा है, वह झूठा और दिखावटी है जो उपभोगतावाद की राजनीति में गहराई से जुड़ा है। भले ही समाज में गंभीर अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज उठा रहे हों, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ऐसा करना उनके आर्थिक हित में है। समुदाय के संघर्षों को चुराकर उनके मुद्दों से जाति, लिंग, नस्ल, धर्म और आर्थिक पहलुओं को पूरी तरह से मिटा दिया जाता है। ये ब्रांड समावेशी माहौल की एक झूठी तस्वीर पेश करते हैं, जो हर किसी इंसान की समझ में नहीं आती है। असल में ये वास्तविकता से बहुत दूर हैं।
क्या असल में समाज में हो रहा है बदलाव
पिंकवाशिंग शब्द समुदाय लिए बिल्कुल नया है। जैसे कि कई कम्पनियां या कोई सरकार क्वीयर समुदाय को साथ रखने की बात करती है, उनके विकास के लिए पहल करती है। क्या वास्तव में उसका असर समुदाय के भले के लिए किया जाता है? क्या क्वीयर समुदाय के लोग बिना किसी भेदभाव और डर के किसी भी कंपनी में इंटरव्यू देने जा सकते हैं? क्या सभी लोगों की तरह समुदाय के लोग भी किसी भी नौकरी के लिए आवेदन कर सकते हैं? इस बात के तथ्य को समझना ज़रूरी है और इस समानता को समाज में लागू करना आवश्यक है। एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लोगों को इस टर्म के माध्यम से अपने हित के लिए आसानी से टॉर्गेट किया जाता है। इन्हीं कंपनियां में काम करने वाले कर्मचारियों के रूप में एलजीबीटीक्यू+ समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं होता है। जब तक कंपनियां, राज्य, संस्थान अपने संगठन के भीतर समुदाय के लोगों को शामिल नहीं करेगी, उनकी उपस्थिति को वास्तविकता में महसूस नहीं करेगी, तबतक बड़े-बड़े होर्डिंग, बयान और वादे केवल दिखावटी और फ़िज़ूल है।
कंपनियों को एक ऐसा वर्क कल्चर बनाना होगा जो हर किसी की लैंगिक पहचान, यौनिकता और गरिमा को सम्मान दे। कई कॉर्पोरेट एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लोगों ने खुद कंपनियों के असंवेदनशील व्यवहार के बारे में कहा है। वास्तव में कंपनी कितनी एलजीबीटीक्यू+ के हित में काम करना चाहती है, उसे सोशल मीडिया की मार्केटिंग से तय नहीं किया जा सकता है। यह समुदाय के लोगों के कंपनी, संस्थान या नीतियों में शामिल करके किया जा सकता है। उनके प्रतिनिधित्व के रूप में किया जा सकता है। वास्तव में समुदाय के लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। एलजीबीटीक्यू+ लोगों के साथ बेहतर व्यवहार करके और नीतियों को अधिक समावेशी बनाकर बात हो सकती है। बाकी रंगों के प्रचार से कुछ नहीं बदलेगा। यह केवल मुनाफे कमाने का एक तरीका है।