आमतौर पर जब भी हम युगल या कपल की बात करते हैं, तो लोगों के ज़ेहन में जो तस्वीर उभरती है, वह एक पुरुष और एक महिला की होती है। हो भी क्यों न, सिनेमा से लेकर साहित्य तक और अपने आस-पास के जीवन में हम ज़्यादातर यही देखते आ रहे हैं। जितनी भी आईकॉनिक प्रेम कहानियां प्रचलित हैं, जैसे रोमियो-जूलियट, लैला-मजनू, शीरीं-फरहाद इन सब में प्रेमी युगल के तौर पर एक पुरुष और एक महिला को दर्शाया गया है। इसी तरह पारियों की कथाओं में भी राजकुमारी को सपनों के राजकुमार का इंतज़ार करते हुए दिखाया जाता रहा है। लेकिन इससे इतर भी एक दुनिया है, जिसे सदियों से मुख्यधारा के बजाय हाशिए पर रखा गया है। इसे हम संयुक्त रूप से एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के रूप में जानते हैं। हालांकि पिछले दो-तीन दशकों में समाज में समुदाय के प्रति जागरुकता बढ़ी है, लेकिन अभी भी इस पर व्यापक रूप से विमर्श और ज़मीनी स्तर पर काम किए जाने की ज़रूरत है।
दोहरा जीवन जीने को मजबूर
कोविड महामारी के दौरान हमें स्वास्थ्य संबंधी सुविधाओं के बारे में ज़मीनी हक़ीक़त का अंदाजा लगा। आम लोगों की सार्वजनिक स्वास्थ्य तक पहुंच कितनी मुश्किल हो गई थी। नैशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसन के एक शोध के अनुसार, कोविड महामारी के दौरान जहां एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के 74 फीसद लोगों ने स्ट्रेस महसूस किया, वहीं स्ट्रेट लोगों में यह 49 फीसद पाया गया। स्पष्ट होता है कि किसी भी तरह की आकस्मिक घटना का प्रभाव अन्य लोगों की तुलना में एलजीबीटीक्यू+ समुदाय पर अधिक पड़ता है। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह है जागरुकता और स्वीकार्यता का अभाव। इसकी वजह से ये अपनी समस्याओं को खुलकर कह नहीं पाते हैं। इससे इन्हें ज़रूरी मदद सही समय पर नहीं मिल पाती और समस्याएं बढ़ जाती हैं।
“मैरेज इक्वालिटी को कानूनी दर्ज़ा नहीं मिलने की वजह से हमारे लिए अपनी मर्ज़ी से रहना मुश्किल हो रहा है। परिवार और समाज की तरफ से शादी का दबाव मेरे मानसिक स्वास्थ्य को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है।” सृष्टि अभी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रही हैं। लेकिन इस तरह के मानसिक तनाव की वज़ह से इनकी पढ़ाई पर भी बुरा असर पड़ रहा है।
हालांकि 6 सितंबर 2018 को भारत के सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला करते हुए क्वीयर संबंधों को कानूनी दर्जा दे दिया लेकिन अभी भी क्वीयर जोड़ों में शादी को कानूनी वैधता नहीं मिली है। इससे एक तरफ तो कानून के स्तर पर लड़ाई लड़नी पड़ रही है। दूसरी तरफ सामाजिक भेदभाव का सामना भी करना पड़ रहा है। भेदभाव से बचने के लिए अक्सर समुदाय के लोग अपनी पहचान छुपा कर दोहरा जीवन जीने को मजबूर हैं। इस वजह से इनके मानसिक स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ता है।
क्वीयर समुदाय से हरियाणा की 26 वर्षीय सृष्टि सिंह इस विषय पर कहती हैं, “मैरेज इक्वालिटी को कानूनी दर्ज़ा नहीं मिलने की वजह से हमारे लिए अपनी मर्ज़ी से रहना मुश्किल हो रहा है। परिवार और समाज की तरफ से शादी का दबाव मेरे मानसिक स्वास्थ्य को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है।” सृष्टि अभी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रही हैं। लेकिन इस तरह के मानसिक तनाव की वज़ह से इनकी पढ़ाई पर भी बुरा असर पड़ रहा है।
क्या बताते हैं आँकड़े
एलजीबी+ प्राइड 2021 ग्लोबल सर्वे रिपोर्ट के अनुसार भारत में नॉन हेट्रोसेक्सुअल आबादी 17 फीसद के लगभग है। इसके बावजूद समाज में इन्हें वह अधिकार नहीं मिल रहा जो मिलना चाहिए। डाउन टू अर्थ के एक खबर अनुसार नैशनल लीगल सर्विस अथॉरिटी के एक सर्वे के अनुसार 27 फीसद ट्रांसजेंडर को उनकी जेंडर आईडेंटिटी की वजह से ज़रूरी स्वास्थ्य सेवाएं नहीं मिल पाती हैं। वहीं नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेज (NIMHANS) के मानसिक स्वास्थ्य पर किए गए एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लोगों में अन्य लोगों की तुलना में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं जैसे डिप्रेशन का ख़तरा 36.7 फीसद और एंजाइटी का ख़तरा 21.4 फीसद ज़्यादा रहता है।
इस सिलसिले में छपरा, बिहार की रहने वाली 26 वर्षीय गीत आहूजा बताती हैं, “आमतौर पर नॉन-बाइनरी होने की अपनी चुनौतियां हैं। लेकिन मेरा अनुभव औरों से अलग रहा है। मेरे घर में पेरेंट्स हमेशा से सपोर्टिव रहे हैं। उन्होंने खुलकर समाज के सामने मुझे मेरी आइडेंटिटी और यौनिकता के साथ स्वीकार किया है। लेकिन वहीं पर मेरी पार्टनर के घर का माहौल काफ़ी अलग है। उस पर शादी का काफी दबाव है, जिसकी वजह से हमें मानसिक तनाव जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है।”
समलैंगिकता कोई बीमारी नहीं है
हाल ही में 17 अक्टूबर 2023 को सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की बेंच ने मैरेज इक्वालिटी से जुड़ी याचिकाओं पर फ़ैसला सुनाया। फैसले के अनुसार एलजीबीटीक्यू+ लोग अब कानूनी नतीजों के डर के बिना रिश्ते में शामिल हो सकते हैं। हालांकि शादी के अधिकार से वंचित होने के कारण, उनके पास उत्तराधिकार, विरासत या यहां तक कि अस्पताल में मुलाक़ात के अधिकार जैसे पारिवारिक मामलों के संदर्भ में कोई कानूनी अधिकार नहीं है। भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में कहा कि विवाह में समानता वैध है या नहीं, इस पर संसद को निर्णय लेना चाहिए और नए कानून बनाना अदालत के अधिकार क्षेत्र में नहीं है।
“क्वीयर संबंधों को अभी भी हमारे पारंपरिक समाज में अनैतिक और बीमारी माना जाता है। जहां मुख्यधारा की फ़िल्मों में एलजीबीटीक्यू+ समुदाय पर बनी फिल्मों को मजाक के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है, आए दिन घटिया मीम्स बनाए जाते हैं, वहां एलजीबीटीक्यू+ समुदाय से जुड़े लोगों की मानसिक स्वास्थ्य ठीक रह पाना भी एक चुनौती ही है।”
साल 1990 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) ने समलैंगिकता को ‘बीमारियों’ की अंतर्राष्ट्रीय श्रेणी (आईसीडी) से हटा दिया था। लेकिन आज भी कई देशों में और हमारे समाज में भी जानकारी और जागरुकता की कमी से बहुत से लोग अभी भी इसे एक बीमारी मानकर इसका इलाज कराने पर बल देते हैं। डॉक्टर संजू क्वीयर समुदाय से हैं और मोहता पीजी कॉलेज चूरू राजस्थान में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। वह बताती हैं, “क्वीयर संबंधों को अभी भी हमारे पारंपरिक समाज में अनैतिक और बीमारी माना जाता है। जहां मुख्यधारा की फ़िल्मों में एलजीबीटीक्यू+ समुदाय पर बनी फिल्मों को मजाक के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है, आए दिन घटिया मीम्स बनाए जाते हैं, वहां एलजीबीटीक्यू+ समुदाय से जुड़े लोगों की मानसिक स्वास्थ्य ठीक रह पाना भी एक चुनौती ही है।”
“आमतौर पर नॉन-बाइनरी होने की अपनी चुनौतियां हैं। लेकिन मेरा अनुभव औरों से अलग रहा है। मेरे घर में पेरेंट्स हमेशा से सपोर्टिव रहे हैं। उन्होंने खुलकर समाज के सामने मुझे मेरी आइडेंटिटी और यौनिकता के साथ स्वीकार किया है। लेकिन वहीं पर मेरी पार्टनर के घर का माहौल काफ़ी अलग है। उस पर शादी का काफी दबाव है, जिसकी वजह से हमें मानसिक तनाव जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है।”
चिकित्सकीय पूर्वाग्रह कैसे नुकसान कर रही है
इसके अलावा, चूंकि चिकित्सक भी इसी पितृसत्तात्मक समाज का एक हिस्सा है, इसलिए बहुत कम चिकित्सक ऐसे हैं, जो इस समुदाय को लेकर संवेदनशील और जागरुक होते हैं। जब कोई क्वीयर व्यक्ति किसी भी स्वास्थ्य संबंधी समस्या की वजह से गाइनोकोलॉजिस्ट के पास जाता है, और वह शादी या रिलेशनशिप स्टेटस पूछते हैं तो यह मानकर चलते हैं कि व्यक्ति स्ट्रेट ही होगा। ऐसे में शारीरिक बीमारी के साथ-साथ व्यक्ति मानसिक तौर पर भी तनाव महसूस करता है। कई बार वे इस वजह से सही से अपनी बात नहीं कह पाते हैं।
कुछ ऐसा ही अनुभव उत्तर प्रदेश की लता (बदला हुआ नाम) का रहा है। 32 वर्षीय लता स्व-रोजगार कर रही हैं और क्वीयर समुदाय से हैं। फेमिनिज़म इन इंडिया से बातचीत के दौरान वह कहती हैं, “हमें डॉक्टर के पास जाने से पहले 10 बार सोचना पड़ता है। पूर्वाग्रहों के चलते कुछ डॉक्टर जहां शादी से पहले आम लोगों के रिलेशनशिप को भी ग़लत मानते हैं और जज करते हैं, वहां पर क्वीयर संबंधों को स्वीकार करना तो दूर की बात है।”
“हमें डॉक्टर के पास जाने से पहले 10 बार सोचना पड़ता है। पूर्वाग्रहों के चलते कुछ डॉक्टर जहां शादी से पहले आम लोगों के रिलेशनशिप को भी ग़लत मानते हैं और जज करते हैं, वहां पर क्वीयर संबंधों को स्वीकार करना तो दूर की बात है।”
कैसे हो बदलाव
हालांकि धीरे-धीरे इस दिशा में बदलाव आ रहा है। एलजीबीटीक्यू+ समुदाय से जुड़े मुद्दों को मीडिया में जगह भी मिल रही है और इस पर चर्चा भी हो रही है। पिछले कुछ दशकों में इन पर फ़िल्में भी बनाई जा रही हैं। लेकिन यह आम तौर पर आर्ट फ़िल्में होती हैं जो समाज में आम जनता की पहुंच से दूर रहती हैं। इसलिए, इस दिशा में अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। ख़ासतौर पर काम्प्रीहेन्सिव सेक्शूऐलिटी एजुकेशन का स्कूली स्तर से ही पाठ्यक्रमों में शामिल किया जाना बहुत जरूरी है। स्कूल के स्तर पर पाठ्यक्रमों में जेंडर, सेक्शुअलिटी और नॉन-बाइनरी लोगों के बारे में जानकारी शामिल कर छात्रों में जागरुकता फैलाई जा सकती है।
हाल ही में एनसीईआरटी ने इसके लिए एक मैन्युअल भी जारी किया है, जिसमें स्कूलों को जेंडर न्यूट्रल यूनिफॉर्म और टॉयलेट बनाने का निर्देश दिया है। केरल के एर्नाकुलम के एक सरकारी स्कूल में 2018 से ही जेंडर न्यूट्रल यूनिफॉर्म की पहल कर समावेशिता का एक बेहतरीन उदाहरण पेश किया है। इसी तरह परिवार की परिभाषा में तस्वीरों के माध्यम से नॉन बाइनरी जोड़ों को शामिल करके लैंगिक समानता और समावेशिता की दिशा में क़दम बढ़ाया जा सकता है।
मुख्यधारा की मीडिया, सिनेमा और साहित्य को भी संवेदनशील बनाना होगा। इनमें नॉन बाइनरी लोगों के ग़लत और असंवेदनशील चित्रण पर रोक लगानी होगी। इसके साथ ही इन्हें न सिर्फ़ मुख्यधारा के सिनेमा, साहित्य और मीडिया में जगह मिलनी चाहिए, बल्कि सही रूप में हर जगह प्रतिनिधित्व की भी आवश्यकता है। सरकार के साथ ही समाज और परिवार को भी इसके लिए आगे आना होगा, जिससे नॉन बाइनरी लोगों का भी सुरक्षित और गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार सुनिश्चित किया जा सके।