इंटरसेक्शनलग्रामीण भारत मेंस्ट्रुअल हाइजीन डेः पीरियड्स के दौरान स्वच्छता कायम करना एक बड़ी चुनौती

मेंस्ट्रुअल हाइजीन डेः पीरियड्स के दौरान स्वच्छता कायम करना एक बड़ी चुनौती

15 से 24 साल की आयु की 50 प्रतिशत से अधिक विवाहित महिलाएं अभी भी अपने पीरियड्स के दौरान आंशिक या पूर्ण रूप से कपड़े का इस्तेमाल करती हैं। देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में यह दर 30 प्रतिशत से भी कम है।

“मैंने कई जगह पर ऐसे परिवार देखे हैं जहां महिलाओं को पीरियड्स के दौरान स्नान करने तक नहीं दिया जाता है। जिस समय स्नान की बहुत ज़रूरत होती है क्योंकि ऐसे में सफाई नहीं हुई तो इंफेक्शन का खतरा बहुत बढ़ जाता है लेकिन इसका ध्यान रखे बगैर लड़की को अपवित्र मानकर उसे हर चीज से दूर रखा जाता है।” यह कहना है उत्तर प्रदेश के एक गाँव में रहने वाली प्रतिमा का। पीरियड्स एक सामान्य शारीरिक प्रक्रिया है लेकिन आज भी इससे जुड़े पूर्वाग्रह, रूढ़िवाद और भेदभाव व्याप्त है। आज दुनिया भर में वर्ल्ड मेंस्ट्रुअल हाइजीन डे मनाया जा रहा है। ब्राह्मणवादी और पितृसत्तात्मक समाज में पीरियड्स को लेकर ऐसी प्रथाओं को चलन है जिस वजह से मेंस्ट्रुअल साइकल से गुजरने वाले लोगों को भेदभाव, अपमान और तिरस्कार का सामना किया जाता है। इस वजह से लोगों को पीरियड्स और उससे संबंधित उत्पादों के बारे में सही जानकारी नहीं है, साफ-सफाई की कमी, आवश्यकता पड़ने पर किसी की मदद मांगने पर संकोच और खुलकर बात न करने का चलन है।

मेंस्ट्रुअल हाइजीन एक सामाजिक मुद्दा है जिस पर सरकारों, नागरिकों और अन्य व्यक्तियों को तुरंत ध्यान देने और कदम उठाने की ज़रूरत है। भारत में पीरियड्स को लेकर बहुत सी भ्रातियां और मान्यताएं आज भी जड़ हैं। भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में पीरियड्स को लेकर अलग-अलग अंधविश्वास और धारणाएं देखी जा सकती हैं। ख़ासकर ग्रामीण इलाकों में जानकारी के अभाव और पारंपरिक रूढ़िवाद के चलते ऐसी प्रथाओं को चलन अधिक है। जैसे पीरियड्स में होने पर स्त्री को कोई भी छू नहीं सकता और न वह किसी सदस्य को छू सकती है। यहां तक कि वो घर से बाहर भी नहीं निकल सकती है। उसका बिस्तर, खाने का बर्तन सब अलग किया जाता है। उन्हें किसी भी तरह के धार्मिक आयोजन में शामिल होने की सख्त मनाही होती है। वे मंदिर नहीं जा सकती, रसोई नहीं छू सकती और बहुत से घरों में तो महिलाओं को पूरे पीरियड्स के दौरान जमीन पर सोना होता है।

मेंस्ट्रुअल हाइजीन डे की शुरुआत जर्मन स्थित एनजीओ वॉश यूनाइटेड द्वारा शुरु किया गया। यह अभियान मेंस्ट्रुअल हाइजीन के महत्व पर जोर देते हुए इस दिशा में जानकारी फैलाने का काम करता है। इस मुख्य उद्देश्य स्वच्छ और सुरक्षित मेंस्ट्रुअल हाइजीन प्रोडक्ट का इस्तेमाल करना। पीरियड्स के दौरान स्वच्छता का ध्यान रखना। पीरियड्स पर खुलकर बात करना। विशेष रूप से निम्न आय वाले समुदाय के लोगों की पीरियड्स के दौरान ज़रूरत के उत्पादों की पहुंच सुनिश्चित रखना। मेंस्ट्रुअल साइकल से जुड़ी समस्याओं पर बात करना और सब तक समान पहुंच बनाना है क्योंकि आज भी बड़ी संख्या में पीरियड्स को जानकारी का अभाव है। भारत में हुए एक अध्ययन के मुताबिक़ लगभग 12 फीसदी युवा लड़कियों का मानना है कि पीरियड्स भगवान का अभिशाप है या एक बीमारी है।

प्रयागराज की छात्रा शुचि पीरियड्स पर बोलते हुए कहती है, “जब मैं 13 साल की थी तब पहली बार पीरियड्स आए थे तो मुझे पहले इसके बारे में कोई जानकारी नहीं थी। जो थोड़ी बहुत थी भी वो सब आधा-अधूरा और कल्पनाशील था। दर्द से मैं बेहाल हो गई और पहली बार का पीरियड्स का ब्लड मुझे बेहद अजीब और गंदा लग रहा था।”

उत्तरप्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में पीरियड्स को लेकर स्त्रियों में पहले से कहीं अधिक जागरूकता देखने को मिलती है। नई उम्र की लड़कियां पीरियड्स के दौरान कपड़े की जगह सेनेटरी पैड्स के इस्तेमाल कर रही है। हालांकि पैड्स का इस्तेमाल भी वर्ग और विशेषाधिकार से जुड़ता विषय है। हर घर की महिला या किशोरी तक यह पहुंच नहीं है। साथ ही पीरियड्स से जुड़े मिथ्य भी बने हुए हैं। ज्यादातर घरों में मेंस्ट्रुअल साइकल के दौरान स्त्रियां घर के सारे काम करेगी लेकिन रसोई तक नहीं जायेगी। वे घर और रसोई की सारी व्यवस्था बाहर से कर देगी और तब घर या आस-पड़ोस की कोई महिला रसोई में जाकर खाना पका देगी। पीरियड्स के दौरान महिला को भोजन कोई अन्य महिला निकाल कर देती है जिसे बाहर से ही उसे लेना पड़ता है। यह स्थिति दिखाती है कि पीरियड्स को लेकर विज्ञान के समय में भी समाज में बहुत तरह के अंधविश्वास और रूढ़िवादी धारणाएं विद्यमान हैं जिनसे स्त्री को बहुत सी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। यह पितृसत्तात्मक समाज का ऐसा प्रभाव है कि इन मान्यताओं का क्रियान्वयन करने में महिलाएं ही अग्रणी रहती हैं।

हर किसी तक नहीं है सैनिटरी नैपकिन की पहुंच

तस्वीर साभारः Pink Flag Foundation

किशोरियों में पीरियड्स आने की उम्र लगभग 10 से 12 वर्ष होती है। किशोरावस्था का वह समय बच्चियों के लिए बेहद संवेदनशील समय होता है। पीरियड्स के साथ बहुत सारे शारीरिक बदलाव उन्हें असहज कर देते हैं। ऐसे में अगर मेंस्ट्रुअल साइकल प्रक्रिया की सही शिक्षा उनको नहीं मिलती है तो वे घबरा जाती हैं और बहुत सारे प्रश्नों में घिर जाती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में सेनेटरी पैड तो पहुंच गये हैं लेकिन हर वर्ग की महिलाओं और किशोरियों तक उनकी पहुंच नहीं है। मेंस्ट्रुअल हाइजीन के लिए सेनेटरी पैड की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है लेकिन कम आय वाले वर्ग के लोगों के लिए सेनेटरी पैड्स की उपलब्धता नहीं है। नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार लगभग 50 फीसदी किशोरियां आज भी मेंस्ट्रुएशन के दौरान हाइजीन के लिए उपयुक्त साधन का इस्तेमाल नहीं कर पाती हैं। शहरी किशोरियों के मुकाबले ग्रामीण क्षेत्र में हाइजीन का ख्लाय रखने की दर और भी कम है। केवल 43 फीसदी ग्रामीण किशोरियां पीरियड्स के दौरान हाइजीन का ख्याल रख पाती है।

ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी ज्यादातर लड़कियां या महिलाएं पीरियड्स के दौरान इस्तेमाल होने वाली चीज़ें जैसे सेनेटरी पेड्स आदि ख़रीद नहीं पातीं क्योंकि पहली बात तो आय का साधन उनके पास बहुत न्यूनतम होता है, दूसरे मार्केट भी ज्यादातर दूर होते हैं। पीरियड्स को लेकर यहां शर्म संकोच भी बहुत दिखता है जैसे पुरुष दुकानदार से वे सीधे जाकर खरीदने में संकोच करती हैं। इसके साथ इन साधनों के इस्तेमाल की जानकारी का भी कुछ हद तक अभाव होता है। बहुत लड़कियों के पास नहाने और पैड्स आदि के बदलने तक के साधन नहीं होते है। सैनिटरी नैपकीन के अलावा भी अन्य मेंस्ट्रुअल प्रोडक्ट जो पैड के मुकाबले ज्यादा सहुलियत देते हैं उसके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। गर्मियों के दिनों पसीने और रक्त की नमी के कारण अक्सर जांघे छिल जाती हैं। कपड़े या पैड बदलने के अतिरिक्त पाउडर और एंटीसेप्टिक भी लगाया जा सकता है बहुत बार ये जानकारी भी महिलाओं या किशोरियों को नहीं होती है। अब थोड़े बदलाव हो रहें हैं लेकिन पीरियड्स के दौरान स्वच्छता के लिए पीरियड पावर्टी की भूमिका बहुत बड़ी होती है।

ग्रामीण ही नहीं शहरी इलाकों में भी आज भी पीरियड्स के दिनों को लेकर बहुत सी मान्यतायें और भ्रांतियां होती हैं जैसे किशोरियों का मेंस्ट्रुअल साइकल शुरू होता है तो उन्हें अशुद्ध माना जाने लगता है और उन्हें कन्या पूजन से लेकर अन्य तरह की धार्मिक उत्सवों में शामिल नहीं किया जाता। ऐसी प्रथाओं का बाल मन पर बुरा असर तक पड़ता है। गांवों और शहरी क्षेत्रों में भी बहुत सारी बच्चियों को इस तिरस्कार से फूटफूटकर रोते देखा है। किसी भी ऐसे उत्सव में शामिल न हो पाने से वे उदास हो जाती हैं। एक तरह से खुद को वह सामाजिक रूप से अलगाव महसूस करती है और तब वे पीरियड्स जैसी जैविक प्रक्रिया को एक अपवित्र क्रिया मानने लगती हैं जो आजीवन चलता है और पीढ़ी दर पीढ़ी ये सब मान्यता के रूप में चलता रहता है।

बहुत लड़कियों के पास नहाने और पैड आदि के बदलने तक के साधन नहीं होते है और सबसे बड़ी बात जानकारी का भी बड़े स्तर पर अभाव रहता है। सैनिटरी नैपकीन के अलावा भी अन्य मेंस्ट्रुअल प्रोडक्ट जो पैड के मुकाबले ज्यादा सहुलियत देते हैं उसके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है।

पीरियड्स से जुड़ी मान्यताओं और मिथकों को लेकर फेमिनिज्म इन इंडिया ने कुछ ग्रामीण महिलाओं व किशोरियों से बातचीत की। प्रयागराज की छात्रा शुचि पीरियड्स पर बोलते हुए कहती है, “जब मैं 13 साल की थी तब पहली बार पीरियड्स आए थे तो मुझे पहले इसके बारे में कोई जानकारी नहीं थी। जो थोड़ी बहुत थी भी वो सब आधा-अधूरा और कल्पनाशील था। दर्द से मैं बेहाल हो गई और पहली बार का पीरियड्स का ब्लड मुझे बेहद अजीब और गंदा लग रहा था। ऊपर से कपड़े को संभालने की दिक़्क़ते आ रही थी। मैं दिन-रात बिस्तर पर पड़ी रही। घर में पिता डॉक्टर को दिखाने के लिए कह रहे थे तो माँ ने मना कर दिया। करीब 14 दिन तक मैंने उस पीड़ा का सामना किया था। घर से नहीं निकली थी।”

पीरियड्स को लेकर सबके अनुभव अलग-अलग होते हैं। शुचि का अनुभव पीरियड्स को लेकर बहुत पीड़ादायक है। इसी तरह साइकिल से स्कूल जाती लड़कियों को लिए ये अवस्था बहुत कठिन हो जाती है। कुछ लोगों को पीरियड्स के समय शारीरिक पीड़ा के साथ तनाव और मूड-स्विमिंग, चिढ़, क्रोध जैसी तकलीफ़ों से भी गुजरना पड़ता है। कुछ लोगों को दर्द की वजह से अधिक समय बिस्तर तक पर गुजरना पड़ता है। वैसे कुछ लोगों के लिए ये दिन थोड़े से कठिन होते हैं। ऐसे में उन्हें  भरपूर नींद, आराम, पौष्टिक खाना और देखभाल रखनी बहुत ज़रूरी है लेकिन लैंगिक भेदभाव और पीरियड्स को लेकर रूढ़िवाद के चलते उन्हें अक्सर ही नहीं मिलता है।

गाँव पीरियड्स को लेकर भ्रांतियां मौजूद

उत्तरप्रदेश के सुल्तानपुर जिले के अमरी गाँव की रहने वाली निर्मला देवी एक वरिष्ठ उम्र की गृहणी हैं। निर्मला देवी एक तथाकथित सवर्ण जाति से आती है। पीरियड्स के विषय पर बातचीत में सामने आया कि वह छुआछूत जैसे अंधविश्वासों पर यकीन रखती हैं। उनका मानना है कि इन दिनों औरतों को स्नान नहीं करना चाहिए, रसोई में नहीं जाना चाहिए। उनसे इन मिथकों की वैज्ञानिकता पर बात की तो वो नाराज़ हो गयीं। आगे उन्होंने कहा कि हमारे यहां बहुत बार अचार आदि पीरियड्स के दिनों की स्त्री के छूने से खराब हुआ है। उनका मानना है कि इन दिनों महिलाओं को तेल-मसाला से बने खाने को भी नहीं खाना चाहिए। दूध भी नहीं पीना चाहिए। पीरियड्स के दौरान स्नान नहीं करना चाहिए, बाल नहीं धोने चाहिए जैसी भ्रांतियों की वजह से महिलाएं पीरियड्स के दौरान स्वच्छता रखने जैसी बात और इससे जुड़े पहलू को जानने से अंजान रह जाती है।  

इसी तरह हमने कुछ अन्य जाति की महिलाओं से भी बातचीत की तो पाया कि उनके यहां पीरियड्स के दिनों को लेकर इतना भेदभाव छुआछूत नहीं है जितना तथाकथित सवर्ण परिवारों में है। इसका सीधा संबंध धर्म और परंपरा से जुड़ता है। पीरियड्स से जुड़े छुआछूत के सारे मिथक धर्म से जुड़े हैं तो जहां धर्म का जितना प्रभाव होता है ये मिथक भी वहां उतने मजबूत होते हैं। जिन वर्गों में धर्म का दखल बहुत ज्यादा नहीं है वहां ये मान्यताएं बहुत मजबूत नहीं हैं। समाज में पीरियड्स को लेकर फैली भ्रांतियों को धर्मिक प्रभाव ने और मजबूत किया है और इससे अस्वच्छता से जोड़ने के चलन को मजबूत किया है।

तस्वीर साभारः The Hindu

गाँव की कर्मावती देवी मल्लाह जाति से आती हैं उन्होंने बताया कि आज से लगभग तीस-चालीस साल पहले उनके यहां पीरियड्स को लेकर कोई छूआछूत नहीं था लेकिन धीरे-धीरे उन्हें ये सब पता चला कि इसमें छुआछूत का परहेज होना चाहिए। इस तरह से ग्रामीण समाज में जाति, वर्ग और समुदाय की अलग-अलग सामाजिक स्थिति की महिलाओं की पीरियड्स को लेकर अलग-अलग धारणाएं सामने आई है। यह सब स्थिति दिखाती है कि पीरियड्स को लेकर आज भी कई लोग जागरूक नहीं हैं। गाँव और शहरों में अभी भी महिलाएं पीरियड्स के बारे में कई महत्वपूर्ण बातें नहीं जानती हैं। पीरियड्स के दौरान स्वच्छता का ध्यान न रखने से कई गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं लेकिन इस पर चर्चा नहीं होती है।

पीरियड्स के दौरान स्वच्छता है ज़रूरी

पीरियड्स के दौरान स्वच्छता एक बड़ा मुद्दा है जिस पर चर्चा होनी चाहिए। पीरियड्स प्रोडक्स जैसे सैनिटरी पैड्स, मेंस्ट्रुअल कप आदि का इस्तेमाल सब तक हो साथ ही शौचालय और पानी की उपलब्धता तक भी सबकी समान पहुंच होना बहुत ज़रूरी है। द वॉयर में छपी जानकारी के अनुसार 15 से 24 साल की आयु के बीच की लगभग 47 प्रतिशत विवाहित महिलाएं अपने पीरियड्स के दौरान विशेष रूप से स्वच्छता के लिए स्थानीय रूप से तैयार पैड, सेनेटरी नैपकिन, मेंस्ट्रुअल कप या टेम्पोन का इस्तेमाल करती हैं जबकि 23 फीसदी विशेष रूप से कपड़े का इस्तेमाल करती है। 15 से 24 साल की आयु की 50 प्रतिशत से अधिक विवाहित महिलाएं अभी भी अपने पीरियड्स के दौरान आंशिक या पूर्ण रूप से कपड़े का इस्तेमाल करती हैं। देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में यह दर 30 प्रतिशत से भी कम है।

कुछ लोगों को पीरियड्स के समय शारीरिक पीड़ा के साथ तनाव और मूड-स्विमिंग, चिढ़, क्रोध जैसी तकलीफ़ों से भी गुजरना पड़ता है। कुछ लोगों को दर्द की वजह से अधिक समय बिस्तर तक पर गुजरना पड़ता है। वैसे कुछ लोगों के लिए ये दिन थोड़े से कठिन होते हैं।

समाज और अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए महिलाओं को उसमें शामिल करना ज़रूरी है। केवल सेनेटरी पैड्स या मेंस्ट्रुअल प्रोडक्ट्स की कमी का सामना करना उनके मूल अधिकारों का हनन है। पीरियड्स के दौरान स्वच्छता एक ज़रूरी विषय लेकिन भारत में रूढ़िवाद के चलते इससे जुड़ी अनेक धारणाएं बनी हुई है जिस वजह से इसे अस्वच्छता से जोड़ दिया जाता है और पीरियड्स के दौरान खुद का ख्याल और स्वच्छता कैसे रखनी चाहिए उस पर बात नहीं होती है। पीरियड्स के दौरान स्वच्छता का ख्याल न रखने पर संक्रमण, जलन, पीएच संतुलन में बदलाव और अन्य बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। इतना ही नहीं संकोच और तनाव के कारण दुविधा और मानसिक स्वास्थ्य पर भी असर पड़ता है। इन सब चुनौतियों को खत्म करने के लिए शिक्षा, जागरूकता, नीतिगत सुधार और बेहतर स्वास्थ्य व्यवस्थाओं से जुड़ी व्यापक रणनीति की आवश्यकता है। धरातल में योजनाओं का क्रियान्वयन, व्यापक मेंस्ट्रुअल हाइजीन को लेकर जानकारी और जागरूकता से ही हम मेंस्ट्रुअल हाइजीन को बेहतर कर सकते हैं।


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