अहमदाबाद, गुजरात की राजधानी और पश्चिमी गुजरात राज्य का एक तेज़ रफ़्तार शहर है, जहां लोग सड़कों पर भागते-दौड़ते नज़र आते हैं। गुजरात पश्चिमी भारत में मुंबई के बाद, महत्वपूर्ण औद्योगिक केंद्र है। रास्तों पर फेरीवाले धैर्यपूर्वक ग्राहकों के आने का इंतज़ार करते हैं। गर्मियों में सुबह 10 बजे से थोड़ी राहत पाने के लिए गन्ने के रस की गाड़ियों के ऊपर भीड़ उमड़ती है। यहां की गर्मी खुले दिल से हमारा इंतज़ार कर रही थी, जब हम मार्च में यहां जनविकास के साथ काम करने आए। कूलर और एयर कंडीशनर बेचने वाली दुकानें और दुकानों के आगे सड़क पर आती-जाती गाड़ियों के लिए इन उपकरणों का डिस्प्ले एक आम नज़ारा है। इसके बाद हम जहां गए, वहां का नज़ारा बिलकुल अलग था।
झुग्गी-झोपड़ियां, अस्थायी छतें और संकरी गलियां। यह हलचल भरे शहरी केंद्र से विपरीत एक अलग दुनिया थी। बस्ती चौक में प्रवेश करने से लेकर, अगले क्षेत्र के लिए ऑटो में बैठने तक, लोगों की जो जीवनयापन की कठिनाइयां दिखाई पड़ती है, वह जरूर परेशान और विचलित करेगी। कुछ दूर तक सड़क के किनारे छोटी-छोटी दुकानें थीं। महिलाएं फर्श पर बैठकर झाड़ू के बंडल बांध रही थीं, जिससे वे किसी तरह सिर्फ़ अपने परिवार के लिए भोजन जुटा पाती हैं। झाड़ू से निकली धूल और भूसी अक्सर उनके शरीर में चिपक जाती है जिससे दर्दनाक चकत्ते और खुजली हो सकती है, खासकर शरीर के नाज़ुक हिस्सों और गुप्तांगों में। उन्हें प्रत्येक तैयार वस्तु के लिए मात्र 8-10 रुपए का भुगतान मिलता है।
पतंगों की गालियां और मजदूरों की सच्चाई
एक व्यापारिक शहर के अंदर लोगों का ये संघर्ष इन ‘लाभदायक व्यवसायों’ की वास्तविकता के बारे में सोचने पर मजबूर करती है। कैसे हर साल लोग बेहतर जीवन की उम्मीद में अपने गांव और घर छोड़कर शहर आते हैं। यहां के समुदाय जैसे हज़ारों लोगों द्वारा की गई कड़ी मेहनत का फ़ायदा सच में किसे मिल रहा है? शहर के इसी भागदौड़ में हमारी पहली बातचीत एक माँ और बेटी के परिवार से हुई, जो अपने घर में हमारा स्वागत करने के लिए उत्साहित थी। अंदर कदम रखते ही हमने कोने में रखे पतंगों के दो बड़े ढेर देखे जो लगभग छत तक पहुँच रहे थे। जिज्ञासावश हमने बेटी से इसके बारे में पूछा। इसपर उसने बताया, “इसी से गुज़ारा चलता है हमारा।” वह करीब 30 वर्ष की होगी। माँ और बेटी की यह जोड़ी पतंगे बनाते हैं। हमने पतंगों के बारे में और बातें की।
हमें पता चला कि कैसे ये सभी सामान्य सी दिखने वाली पतंगें रचनात्मकता और अस्तित्व का प्रतीक है और साथ ही, इसको बनाने वालों की दृढ़ता के बारे में भी बताती हैं। इस बस्ती के लगभग हर घर में एक या दो सदस्य शहर के व्यस्त हिस्से में काम करने जाते हैं या फिर घर पर हाथ से पतंग और झाड़ू बनाकर गुज़ारा करते हैं। पतंग के लिए कच्चा माल बिचौलिए मुहैया कराते हैं, जिन्हें जोड़कर तैयार माल दुकानों पर बेचा जाता है। इस काम में ज़्यादातर महिलाएं ही लगी हुई हैं। वे पहले फ्रेम को जोड़कर पतंग की पूंछ लगाती हैं। ये पतंगें 5 से 20 रुपये के बीच बिकती हैं और बनाने वालों को एक हज़ार पतंग का कॉन्ट्रैक्ट पूरा करना होता है, जिसके लिए उन्हें सिर्फ़ 70 से 80 रुपये मिलते हैं।
क्यों बनाते हैं ये पतंगे
पतंग बनाना गुजरात में एक बहुत बड़ा उद्योग है और अहमदाबाद इसका एक केंद्र है। साल 2019 में इस उद्योग को बढ़ावा देने के लिए, सरकार ने अहमदाबाद में एक अंतर्राष्ट्रीय पतंग महोत्सव का भी आयोजन किया था। आंकड़ों से पता चलता है कि यह उद्योग 625 करोड़ रुपए का है और 1.3 लाख लोगों को रोज़गार देता है। अगर हम इन महिलाओं और अन्य मजदूरों के काम करने की स्थिति और औसत वेतन देखें, तो लगता है कि ऐसे रोज़गार का क्या मतलब है। अहमदाबाद में पतंगों का इतिहास बहुत समृद्ध और पुराना है। इसका प्रमाण यह है कि यहां एक पूरा संग्रहालय है जिसे अहमदाबाद का पतंग संग्रहालय कहा जाता है। लेकिन, जो मजदूर इस काम में लगे हैं, उन्हें जीवन में मूलभूत सुविधाओं के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।
जो महिलाएं पतंग बनाने का काम करती हैं, उनके दिन के लगभग 10-12 घंटे 1000 पतंगों के ढेर को पूरा करने में चले जाते हैं। उन्हें न्यूनतम मजदूरी से भी कम कमाकर संतुष्ट रहना पड़ता है। इनकी दुर्दशा देश भर में अनौपचारिक महिला मजदूरों द्वारा सामना की जाने वाली एक बड़ी वास्तविकता का प्रतीक है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में कामकाजी महिलाओं की कुल संख्या का लगभग 82 प्रतिशत अनौपचारिक क्षेत्र में केंद्रित है, जो घरेलू काम, घर-आधारित काम, कचरा बीनने, निर्माण, स्ट्रीट वेंडिंग आदि जैसे क्षेत्रों में काम करती हैं। फिर भी वे अक्सर खुद को हाशिए पर और शोषित पाती हैं। औपचारिक रोज़गार के अवसरों तक उनकी पहुंच न होने के कारण उन्हें पतंग और झाड़ू बनाने जैसे उद्योगों में टुकड़ा-दर-टुकड़ा काम करके जीविका चलानी पड़ती है।
अंतर्संबंधों का जटिल जाल
पतंग बनाने की प्रक्रिया एक सरल लेकिन गहन विचार को उजागर करती है। इन पतंग बनाने वालों के जीवन को देखते हुए समुदायों को एक साथ बांधने वाले परस्पर संबंधों के जटिल जाल के बारे में सोचे बिना नहीं रहा जा सकता। पतंग उड़ाना कई सामुदायिक और धार्मिक त्योहारों का एक अभिन्न हिस्सा है। यह लोगों के लिए ख़ुशी व्यक्त करने का समय होता है और वे देवी-देवताओं के अपनी लंबी नींद से फिर से जागने का जश्न मनाते हैं। माना जाता है कि जो देवी-देवता पिछले छह महीने से सो रहे थे, वे अब जाग गए हैं जिससे स्वर्ग के द्वार खुल गए हैं। पतंगों के ये जीवंत रंग मौज-मस्ती का एक हिस्सा हैं।
त्योहारों के दौरान आसमान में उड़ने वाली इन रंग-बिरंगी पतंगों के पीछे क्या छिपा है, यह समझना बहुत ही गहरा अनुभव रहा। मानवीय प्रयास और दृढ़ संकल्प की एक खामोश लेकिन गहन कहानी। अपने बेटे को स्कूल भेजने के लिए कड़ी मेहनत करने वाली एक माँ से लेकर खाने का इंतज़ाम करने वाली एक अकेली महिला तक, ये पतंगें एक तरह से असंख्य परिवारों को अपने लिए बेहतर जीवन पाने में मदद कर रही हैं। हालांकि इसे अभी भी आजीविका के साधन के रूप में देखने में कठिनाई और झिझक होती है। लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि यह इन लोगों को बेहतर कल की उम्मीद देने में सहायक है।
पतंग बनाने वाली महिलाओं की स्थिति
कुछ सामाजिक-आर्थिक अध्ययन से पता चला है कि अहमदाबाद में देश में सबसे अधिक पतंग बनाने वाले लोग हैं। गुजरात के पतंग निर्माताओं पर किए गए इस अध्ययन से पता चलता है कि सिर्फ अहमदाबाद में 20,000 से अधिक पतंग कारीगर हैं, जो पतंग बनाकर अपनी आजीविका कमाते हैं। सर्वेक्षण में अहमदाबाद की 500 पतंग बनाने वाली महिलाओं से सवाल पूछे गए। इसमें पता चला कि अहमदाबाद में पतंग बनाने का उद्योग बहुत असंगठित है और पतंग बनाने वाले बेहतर कीमत पाने के लिए खुद को संगठित करने में बहुत कम या कोई दिलचस्पी भी नहीं दिखा रहे हैं।
हालांकि पतंग बनाने वाले साल में सात महीने ही काम करते हैं। लेकिन उन्हें शोषण, व्यावसायिक खतरों और कम मजदूरी जैसी कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। आर्थिक दृष्टि से, सर्वेक्षण बताता है कि पतंग बनाने वालों में 99 प्रतिशत से अधिक महिलाएं हैं, जिनमें से 23 प्रतिशत की मासिक आय 400 रुपये से कम है, 56 प्रतिशत महिलाएं 400 से 800 रुपये के बीच कमाती हैं, 15 प्रतिशत महिलाएं 800 से 1,200 रुपये के बीच कमाती हैं, जबकि केवल चार प्रतिशत महिलाएं 1200 रुपये और उससे अधिक कमाती हैं।
सामाजिक दृष्टि से, सर्वेक्षण से पता चलता है कि पतंग बनाने की प्रक्रिया में पुरुषों की बजाय मुख्य रूप से महिलाएं शामिल हैं और पतंग बनाने वाली 37 प्रतिशत से अधिक महिलाएं 26 से 35 वर्ष की आयु वर्ग की हैं। सर्वे यह भी बताती है कि 45 प्रतिशत महिलाएं निरक्षर हैं, जबकि 99 प्रतिशत महिलाओं को लगता है कि उनके पास कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है। हमारे लिए अहमदाबाद की पतंगें अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले हज़ारों लोगों के जीवन के संघर्षों की निशानी हैं। फिर भी वे कल के लिए आशावादी बने रहने में कामयाब होते हैं। सवाल यह है कि उनका भविष्य कौन तय करेगा?
नोट: यह लेख इंडिया फेलो रुद्राणी दत्ता द्वारा लिखी गई है। इंडिया फ़ेलो युवा भारतीयों के लिए एक सामाजिक नेतृत्व कार्यक्रम है जिसमें सामाजिक मुद्दे पर 18 महीने तक पूर्णकालिक काम करना शामिल है। रुद्राणी जनविकास के साथ मिलकर अहमदाबाद में हाशिए पर रहने वाले समुदायों की युवा महिलाओं के साथ गैर-पारंपरिक आजीविका पहलों का समर्थन करने के लिए काम कर रही हैं।